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सम्पादकीय

by
Jan 7, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Jan 2007 00:00:00

न तथा रत्नमासाद्य सुजन: परितुष्यति।यथा च तद्गताकांक्षे पात्रे दत्वा प्रह्रष्यति।।सज्जन लोग रत्न पाकर उतने प्रसन्न नहीं होते, जितने प्रसन्न उस रत्न को किसी निर्लोभ पात्र को देकर होते हैं।-भास (अविमारक, 4/14)नये राष्ट्रपति के चुनाव से पूर्वदेश के जनमन का एक ही स्वर जयतु कलामदेश की राजनीति और राष्ट्रीय जीवन में ऐसे क्षण बहुत कम आते हैं जब सब लोग लगभग एक स्वर से एक व्यक्ति को पुन: राष्ट्राध्यक्ष पद पर देखने की आवाज उठाएं। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के बारे में यही हुआ था। वे अपने ही जीवन में अपनी ही आंखों के सामने एक महान विभूति का विराट व्यक्तित्व प्राप्त कर चुके हैं। यही कारण है कि विभिन्न जनमत संग्रह, आलेख, जनप्रतिक्रियाएं ही नहीं बल्कि राजनीतिक दलों की व्यापक एकजुटता भी अब्दुल कलाम को पुन: राष्ट्रपति पद पर आसीन देखना चाहती थी। यह स्थिति उस कांग्रेस के लिए अत्यंत विकट और विडम्बनापूर्ण थी जो केवल 10 जनपथ के इशारों पर राष्ट्रीय राजनीति को चलाना चाहती है। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के पक्ष में न केवल तीसरे मोर्चे के सभी दलों ने बल्कि भारतीय जनता पार्टी और स्वतंत्र उम्मीदवार के नाते चुनाव मैदान में उतरे उपराष्ट्रपति श्री भैरोंसिंह शेखावत ने भी अपनी सहमति जतायी थी। क्या कोई विश्वास करेगा कि ऐसा भी हो सकता था? स्वतंत्रता के बाद अभी तक राष्ट्रपति पद के लिए जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें इस प्रकार की रोमांचक और जनमन के तीव्र आवेग प्रकट करने वाली स्थिति कभी पैदा नहीं हुई थी।राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने प्रारंभिक हिचकिचाहट और एक स्वाभाविक संकोच के बाद राष्ट्रपति पद के लिए पुन: चुनाव लड़ने हेतु अपनी सशर्त सहमति प्रकट करके सभी को प्रसन्न ही किया था। यह उचित ही है कि जिस स्थिति और गरिमा का अब्दुल कलाम प्रतिनिधित्व करते हैं वहां पुन: चुनाव लड़ने की बात तभी वे मान्य करते जबकि इस संबंध में सभी राजनीतिक दल उन्हें आश्वस्ति देते। वास्तव में देखा जाए तो राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का दूसरी बार राष्ट्रपति बनना असंभव भी नहीं कहा जा सकता था।अब्दुल कलाम ने भारत और भारतीयता का सच्चा प्रतिनिधित्व किया है, उन्होंने भारत पर छा रहे विभिन्न प्रकार के उन खतरों को साहसपूर्वक दूर किया जो भारतीय सीमा के बाहर अंकुरित और पाले पोसे गये थे। उन्होंने भारत के महान भविष्य के प्रति लोगों की आस्था जगायी। उनकी पुस्तकों ने भारत की नयी और पुरानी पीढ़ी, दोनों के मन और कल्पनाओं को नवीन स्फुरण प्रदान किया और बच्चों के बीच उनकी चर्चाएं भारत के भविष्य के बारे में एक नवीन आस्था और विश्वास का संचार करती हैं। उन्होंने किसी को यह महसूस नहीं होने दिया कि वे किस मत, पंथ, संप्रदाय, क्षेत्र से हैं। वास्तव में वे पूरे भारत में लीन हो गये और भारत मानो उनके माध्यम से बोलने लगा।स्वाभाविक रूप से ऐसी स्थिति कांग्रेस और कम्युनिस्टों को कैसे सुहा सकती है जिनका सब कुछ भारत और भारतीयता से दूर वैदेशिक संसार में बसा है। जो कुछ भी भारत का है और भारतीयता में गौरव-बोध जगाने वाले जो भी तत्व हो सकते हैं उनके प्रति नफरत और वितृष्णा फैलाना ही कम्युनिस्ट अपना माक्र्सवादी कर्तव्य समझते हैं। इसलिए उनसे आशा क्या की जाए।वर्तमान परिस्थिति में राष्ट्रीय मानस का एक ही स्वर है- जयतु कलाम।संघ का चिर तारुण्यइन दिनों जब देश के समाचार पत्रों की सुर्खियां राजनीतिक गहमागहमियों और राष्ट्रपति चुनाव पर केन्द्रित हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हजारों कार्यकर्ता ग्रीष्मकालीन शिविर पूर्ण कर एक नूतन उत्साह और संकल्प के साथ घर लौट रहे हैं। रा.स्व.संघ के स्वयंसेवकों को तीन वर्षीय विशेष बौद्धिक एवं शारीरिक प्रशिक्षण दिये जाने की व्यवस्था है। ये शिविर सात दशकों से भी अधिक समय से चले आ रहे हैं। प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष और तृतीय वर्ष, इस प्रकार के प्रशिक्षण विभाजनों में विभक्त इन शिविरों की अपनी एक विशिष्टता और इतिहास है। देश के विद्वान, साहित्यकार, दृष्टा और सामाजिक कार्यकर्ता इन शिविरों में भारतीय राष्ट्रीयता के इतिहास, वर्तमान संघर्ष और भविष्य के स्वरूप की कल्पना सामने रखते हैं। इनमें अत्यंत निर्धन और अति सामान्य परिवारों से लेकर धन सम्पदा युक्त, सामान्य संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले युवाओं से लेकर समाज में लोकमान्य साहित्यकार, पत्रकार, उद्योगपति, वकील, चिकित्सक और प्रबंधन विशेषज्ञ लगभग 20 दिन का समय निकालकर एक कष्टसाध्य दिनचर्या को अपनाते हैं। ये सभी अपना-अपना खर्च कर इन शिविरों में शामिल होते हैं। इस वर्ष प्रारंभिक एवं अपुष्ट आंकड़ों के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देश के विभिन्न भागों में लगभग 70 शिविर लगे। इनमें प्रथम और द्वितीय वर्ष के प्रशिक्षण दिये गये। इनमें 25 से 30 हजार तक स्वयंसेवकों ने भाग लिया। इसी प्रकार राष्ट्र सेविका समिति के देश भर में 35 शिविर आयोजित हुए, उनमें हजारों सेविकाओं ने भाग लिया। ये सभी शिविर राष्ट्र की एक ही उद्दाम इच्छा को अभिव्यक्त करने के माध्यम बने कि हमें सबल, सशक्त, सुसंस्कृत, सुसमृद्ध एवं सुसम्पन्न बनना है, राष्ट्र के परम वैभव का स्वप्न साकार करना है, भारत और भारतीयता के शत्रुओं को परास्त करना है। देश के युवक और युवतियों में इस प्रकार का भाव संचारित करने वाले रा.स्व.संघ और उसके विचार परिवार के अंगभूत घटक इस राष्ट्रीय आशा और विश्वास के प्रतीक बने हैं कि हम सभी बाधाओं पर विजय पाते हुए अंतत: सफल होंगे और एक नवीन भारत-अभ्युदय का सूर्य विश्व क्षितिज पर चमकेगा।5

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