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आयुर्वस्त्र

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Jan 7, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Jan 2007 00:00:00

दुनिया के बाजारों पर छाने को तैयार है भारतीय आयुर्वेद की अनूठी देन- प्रदीप कुमारभगवान परशुराम और आदि शंकराचार्य की भूमि केरल सदियों से आयुर्वेद के संधान में जुटा रहा है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के विभिन्न तरीकों के साथ ही केरल में आजकल एक नई ही क्रांति का सूत्रपात हुआ है और वह है आयुर्वेदिक वस्त्र-आयुर्वस्त्र। हालांकि आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुसार वस्त्रों के निर्माण की तकनीक तो हजारों साल से थलीयोला (ताड़पत्र पर लेखन) पर अंकित थी, मगर पहले तो अंग्रेजों ने और उसके बाद हमारे अपने स्थानीय शासकों ने, जो पश्चिमी पहनावे और दिखावे में ढले हुए थे, ने यहां की इस महान परम्परा को पूरी तहर अनदेखा ही रखा। इसके साथ ही, मशीनी और स्वचालित कल-कारखानों के आने से हथकरघा पर बने कपड़ों की मांग कम होती गई। और यहीं से औषधियुक्त वस्त्रों की दिशा में बढ़ा गया। यह प्रयास किया तिरुअनंतपुरम जिले के बलरामपुरम में रहने वाले हिन्दू बुनकर परिवारों ने। ये परिवार कई पीढ़ियों से, ठीक-ठीक कहें तो पिछले 600 वर्ष से इसी व्यवसाय में जुटे हैं।आज उनके द्वारा बनाए गए औषधियुक्त वस्त्रों की मांग केवल भारत ही नहीं बल्कि यूरोप के बड़े-बड़े वस्त्र व्यापारी भी कर रहे हैं। काम इतना आ गया है कि उन्हें फुर्सत नहीं। पोलिएस्टर और उसी तरह के अन्य कृत्रिम धागों से बुने कपड़े पहनते-पहनते ऊब चुके यूरोप के लोग भी अब केरल के आयुर्वस्त्र की ओर आकर्षित हुए हैं।कई वर्ष पूर्व बलरामपुरम में कुजिविला नामक एक हिन्दू परिवार ने कपड़ों को आयुर्वेदिक रंगों में रंगने की तकनीक की खोज की थी। अपने पूर्वज अयप्पन, जो पूर्व त्रावणकोर राज परिवार के मुख्य चिकित्सक थे, द्वारा उत्तराधिकार में सौंपी गई कपड़ा बनाने की कला के बल पर आज इस परिवार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक नई जान फूंकने का रास्ता दिखाया है। कहा जाता है कि कपड़ा बनाने की इसी तकनीक का इस्तेमाल करके अयप्पन ने राजरिवार की विभिन्न बीमारियों का सफल इलाज किया था। कुजिविला परिवार की वर्तमान पीढ़ी ने आयुर्वेद रंग तकनीकी को पुनर्जीवित किया है और केरल के लगभग लुप्त हो चुके हथकरघा उद्योग में एक नई गति पैदा की है।आयुर्वस्त्र का निर्माण अष्टवैद्यार, आर्यवैद्यार, सिद्धवैद्यार और मर्म चिकित्सावैद्यार, जो विशेषज्ञ चिकित्सक हैं, के निर्देशों के अनुसार किया जाता है। तिरुअनंतपुरम के राजकीय आयुर्वेद कालेज में इनका गुणवत्ता परीक्षण किया जाता है। इस वस्त्रों के रंगने और इनमें एक प्रकार की महक पैदा करने के लिए विभिन्न पौधों और बूटियों का इस्तेमाल होता है। उदाहरण के लिए, पीला रंग बनाने में हल्दी, काष्ठ हल्दी, कस्तूरी हल्दी और अन्य कई प्रकार की हल्दियों का प्रयोग किया जाता है। लाल रंग के लिए मंजड़ी का प्रयोग होता है, हरे के लिए कुरुनथोटी, नीले के लिए नीलायमिरी और काला रंग खसखस, काली मिर्च, लौंग आदि चीजों से बनाया जाता है। आयुर्वेदिक पद्धति से ही रंगों और महक को स्थाई बनाया जाता है। विभिन्न जड़ी बूटियों का लेप भी किया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया जैविक है। तैयार कपड़े को गोमूत्र में धोया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में जो भी अवशेष पदार्थ बचता है उससे जैविक खाद और बायोगैस बनाई जाती है। भारत और विदेशों में इन वस्त्रों पर हुए शोध में यह बात सिद्ध हो चुकी है कि इनको पहनने वाले व्यक्ति को एलर्जी, चर्मरोग, कैंसर, मधुमेह सहित अन्य कई प्रकार की बीमारियों का खतरा कम हो जाता है। चिकित्सकों द्वारा अलग-अलग बीमारियों के लिए अलग-अलग बूटियों से बने कपड़े सुझाए जाते हैं। आयुर्वेदिक चादरें और गद्दे भी बनाए जा रहे हैं। बलरामपुर के इन बुनकरों के संगठन हैंडलूम वीवर्स डेवेलपमेंट सोसायटी के प्रबंधक के. विजयन बताते हैं कि सऊदी अरब का शाही परिवार भी उनके बनाए कपड़े पहन रहा है। पिछले साल कुजिविला परिवार ने यूरोपीय देशों में 50 लाख रुपए के कपड़े भेजे थे। आज सोसायटी के पास सऊदी अरब के अलावा अमरीका, जर्मनी, इटली, फ्रांस, स्पेन, जापान, मलेशिया, सिंगापुर, ताइवान और जार्डन से बड़ी मात्रा में ऐसे कपड़ों की मांग आ रही है।17

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