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मंथन

by
Jan 4, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 04 Jan 2007 00:00:00

संघ विरोध ही जिनका धर्म हैकिताब नहीं, झूठ का पुलंदादेवेन्द्र स्वरूपअयोध्या आंदोलन के विराट रूप, बाबरी ढांचे के ध्वंस और भारतीय राजनीति में भाजपा के सत्ता-शिखर पर पहुंचने के कारण पूरे विश्व की दृष्टि हिन्दुत्व और संघ-परिवार पर केन्द्रित हुई है। सभी को लगा कि भारत के सार्वजनिक जीवन में इस चमत्कारिक परिवर्तन के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संगठन साधना की मुख्य भूमिका है। संघ की विचारधारा का केन्द्र बिन्दु हिन्दू राष्ट्रवाद है इसलिए भारत और यूरोप-अमरीका के विश्वविद्यालयों में संघ, हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्रवाद के विभिन्न पक्षों पर शोध प्रबन्धों की बाढ़-सी आ गई। सेमिनारों-संगोष्ठियों में संघ और हिन्दुत्व मुख्य विषय बन गया। किन्तु यह बौद्धिक व्यायाम अंग्रेजी भाषा के माध्यम से अंग्रेजी शिक्षित जगत तक ही सीमित रहा। इस जगत के लगभग सभी पत्रकार, बुद्धिजीवी एवं शोधकर्ताओं की स्रोत सामग्री अंग्रेजी भाषा के आगे नहीं जा सकी। स्वाभाविक ही, हम इस पूरी बहस में केवल श्री गुरुजी के नाम से छपी “वी अवर नेशनहुड डिफाइंड” व “बंच आफ थाट्स” नामक पुस्तकों के उद्धरणों की ही तोता रटन्त पाते रहे। संघ और हिन्दू राष्ट्रवाद विषय पर पिछले पन्द्रह-सोलह वर्षों में विपुल साहित्य का सृजन हुआ है। यह साहित्य लगभग पूरा ही अंग्रेजी भाषा में है और अगले शोध छात्रों के लिए वही स्रोत सामग्री का काम करता है। सब एक-दूसरे को उद्धृत करते जाते हैं। संघ के बार-बार यह स्पष्ट करने पर भी कि श्री गोलवलकर ने इस पुस्तक की पांडुलिपि को नवम्बर, 1938 में अंतिम रूप दिया गया था। उस समय वे संघ में नये-नये आये थे और संघ का कोई बड़ा दायित्व नहीं संभाल रहे थे। उन्होंने अगस्त, 1939 में सरकार्यवाह का और जुलाई, 1940 में सरसंघचालक का दायित्व संभाला। अध्ययन, चिन्तन-मनन और अनुभव के साथ-साथ उनका विचार प्रवाह आगे बढ़ा। “वी” में प्रस्तुत विचारों की अपूर्णता एवं कालबाह्रता का उन्हें बोध हुआ और 1947 के बाद उसका प्रकाशन रोक दिया गया। भारत और विश्व के प्रत्येक विचारक और नेता के जीवन का यह सर्वमान्य सत्य है- चाहे गांधी हों या माक्र्स, विवेकानन्द हों या श्री अरविन्द, लोकमान्य तिलक हों या लेनिन-माओ। किन्तु भारत के संघ-विरोधी बौद्धिक कठमुल्लाओं ने “वी” से आगे न बढ़ने की कसम-सी खा ली और अपने संघ-विरोधी अभियान में उन्होंने संघ द्वारा पचास साल पहले परित्यक्त “वी” को बाईबिल-कुरान या दास कैपीटल के पूजासन पर प्रतिष्ठित कर लिया। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध संघ का विशाल साहित्य उनके भाषा अज्ञान या पूर्वाग्रहों के कारण उनकी शोध-परिधि के बाहर ही पड़ा रहा।पूर्वाग्रही मानसिकताइसी पृष्ठभूमि में जब ज्योतिर्मय शर्मा की इसी सप्ताह प्रकाशित पुस्तक “टेरीफार्इंग विजन : एम.एस. गोलवलकर, दि आर.एस.एस. एण्ड इंडिया” नामक पुस्तक हाथ में आई तो लेखक का यह कथन पढ़कर बहुत अच्छा लगा कि उनकी यह पुस्तक “श्री गुरुजी जन्मशती” के अवसर पर प्रकाशित 12 खंडीय “श्री गुरुजी समग्र” के अध्ययन पर आधारित है। यह और भी अच्छा लगा कि लेखक ने प्रारंभ में ही स्वीकार कर लिया कि “वी” नामक पुस्तक को वापस लेने की संघ औपचारिक घोषणा कर चुका है और वैसे भी वह गोलवलकर की लिखी नहीं है। लेकिन पुस्तक का नाम “टेरीफार्इंग विजन (भयावह सपना) स्वयं में नकारात्मक एवं पूर्वाग्रही चित्र प्रस्तुत करता है। इसलिए यह जानने के लिए कि 4000 पृष्ठों के “श्री गुरुजी समग्र” में लेखक ने “भयावह सपना” कहां से खोज लिया, पुस्तक को तुरन्त पढ़ने की उत्कंठा हुई। लेखक ज्योतिर्मय शर्मा के परिचय में कहा गया है कि वे दिल्ली तथा आक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में राजनीति दर्शन पर लेक्चर दे चुके हैं, दिल्ली के सेंटर फार स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी एवं शिमला के इंडियन इंस्टीटूट आफ एडवांस्ड स्टडी के फैलो रहे हैं। टाईम्स आफ इंडिया और दि हिन्दू जैसे प्रतिष्ठित दैनिक पत्रों के सम्पादकीय विभागों में काम कर चुके हैं। इसके पूर्व 2003 में “हिन्दुत्व : एक्सप्लोरिंग दि आइडिया आफ हिन्दू नेशनलिज्म” (हिन्दुत्व : हिन्दू राष्ट्रवाद के विचार की खोज) नामक पुस्तक प्रकाशित कर चुके हैं। पेंगुविन जैसे प्रभावी और साधन सम्पन्न प्रकाशन गृह के द्वारा प्रकाशित होने के कारण उनकी दोनों पुस्तकों को व्यापक बाजार मिलना स्वाभाविक है।हिन्दू राष्ट्रवाद ही लेखक की चिन्ता एवं लेखन प्रेरणा का विषय क्यों बना, इसे स्पष्ट करते हुए “हिन्दुत्व : एक्सप्लोरिंग…” पुस्तक के परिचय में कहा गया है कि गत दशाब्दी में उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद के उभार ने लेखक को इस ओर प्रेरित किया। पहली पुस्तक में लेखक ने निष्कर्ष निकाला कि वर्तमान उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद की जड़ें उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, योगी अरविन्द और वीर सावरकर की विचारधारा में विद्यमान है। और इस नई पुस्तक में वह श्री गोलवलकर को इस विचारधारा के उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत करता है। बात यहीं तक रहे तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि लेखक नई पुस्तक में 44 पृष्ठ लम्बी भूमिका में श्री गुरुजी के हिन्दुत्व की जड़ें भारतीय परम्परा में नहीं बल्कि 18वीं और 19वीं शताब्दी के यूरोपीय प्राच्यविदों के लेखन में खोज रहा है। आगे चलकर गुरुजी द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रवाद की अवधारणा का स्रोत वह 19वीं शताब्दी के जर्मन राष्ट्रवादियों जैसे हर्डर, कान्ट, शिलर और फिश्ते आदि के लेखन में खोज रहा है। उससे भी आगे बढ़कर वह श्रीगुरुजी की संगठनात्मक दृष्टि को “फासिज्म” की दृष्टि बता रहा है।जड़ दिमाग की जड़ेंइन ऊल-जलूल निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए वह कहीं भी श्री गुरुजी समग्र से गुरुजी के शब्दों को प्रस्तुत नहीं करता। उसे स्वीकार करना पड़ता है कि इन योरोपीय विद्वानों से श्री गुरुजी के बौद्धिक सम्बंध का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण वह नहीं खोज पाया है। किन्तु प्रमाण हों या न हों, निष्कर्ष तो उसने अपने मन में पहले से तय कर रखे थे। इन निष्कर्षों को श्री गुरुजी पर थोपने के लिए वह इस भूमिका में जर्मन विद्वानों की दो पुस्तकों “हिन्दुइज्म रिकन्सीडर्ड” और “रेप्रेजेÏन्टग हिन्दुइज्म” का सहारा लेता है। अंग्रेजी विद्वान मोनियर विलियम्स, जर्मन विद्वान पाल डासेन, आधुनिक भारतीय दार्शनिक दयाकृष्ण और ए.के. कुमारस्वामी के लम्बे-लम्बे उद्धरण देकर सिद्ध करना चाहता है कि अद्वैत दर्शन जीवन में विविधता और बहुलतावाद को अस्वीकार करता है, एकरूपता का आग्रह करता है, इसलिए वह भारत की मुख्य धारा नहीं है। क्या यह विचित्र नहीं कि लेखक “गुरुजी समग्र” में से गुरुजी द्वारा अद्वैत दर्शन के आधार पर “विविधता को जीवन का अनिवार्य तथ्य” बताने वाले उद्धरणों को नहीं प्रस्तुत नहीं करता। उसकी दृष्टि में अंग्रेजी भाषा से अनभिज्ञ स्वामी दयानन्द, निरक्षर रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानन्द, पश्चिम को नकार कर संस्कृत भाषा और योग साधना के द्वारा भारत का साक्षात्कार करने वाले योगी अरविन्द, मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए दो जन्मों के कारावास का दण्ड पाकर काले पानी में असह यातनायें भोगने वाले सावरकर का चिन्तन भारत की मिट्टी में से नहीं उपजा, किन्तु कुछ विदेशी और आधुनिक विद्वानों का चिन्तन लेखक के लिए हिन्दुत्व का प्रमाण बन गया। इसी प्रकार इसियाह बर्लिन की एक पुस्तक से जर्मन चिन्तकों के लम्बे-लम्बे उद्धरण देकर उसने श्री गुरुजी के राष्ट्रवाद की जड़ें खोज ली। 1931 में संघ के सम्पर्क में आने के पूर्व 1929 में मद्रास से लिखे पत्रों से परिचित होने के बाद में लेखक ने उन पत्रों में विद्यमान श्री गुरुजी के प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के अगाध अध्ययन में से उपजी उनकी बौद्धिक आस्थाओं और अध्यात्म दृष्टि का उल्लेख करने की कोई आवश्यकता ही नहीं समझी।अध्यात्म-उनकी समझ से परेवस्तुत: भारत का आध्यात्मिक चिन्तन लेखक की समझ के बाहर लगता है अन्यथा वह अद्वैत दर्शन को जीवन की विविधता नष्ट करने वाला और एकरूपता को थोपने वाला कदापि नहीं कहता। क्या उपनिषदों में वर्णित “एकोऽहम बहुस्यामि” का अर्थ यही होता है? भौतिकवादी दर्शन को ही अन्तिम मानने वाली दृष्टि व्यक्ति के अहं को समष्टि में विलीन करने वाले आध्यात्मिक विकास के महत्व को कैसे समझ सकती है? इसलिए लेखक श्री गुरुजी के जीवन मंत्र “मैं नहीं, तू ही” को मानव की वैयक्तिकता नष्ट करने वाला और इसीलिए लोकतंत्र का शत्रु कहता है। उनकी दृष्टि में अठारहवीं शताब्दी में जन्मा भौतिकवाद और सामाजिक अनुबंध का सिद्धांत ही लोकतंत्र और वैयक्तिक स्वतंत्रता के सपने की आधारशिला है” (पृ.24)। वह फतवा दे डालता है कि “व्यक्ति, समाज और राजनीति विषयक गोलवलकर के विचारों की नींव पर ही उनका हिन्दू राष्ट्र का उग्र और भयावह सपने का भवन खड़ा हुआ है।” (पृ.31)वह गुरुजी से कहलवा देता है कि “विविधता और लोकतंत्र ने हिन्दू समाज की एकता को नष्ट कर दिया”। वह घोषित कर देता है कि गुरुजी “हिन्दू” की व्याख्या नहीं कर पाये, न ही हिन्दू संस्कृति की व्याख्या दे पाये। क्योंकि गुरुजी इन शब्दों की जो सुनिश्चित व्याख्या दे रहे हैं वे या तो लेखक की समझ के बाहर है या उसे स्वीकार नहीं है। गुरु जी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि संस्कृति संस्कारगत अन्त:प्रेरणा का नाम है। वह किसी राष्ट्र की इतिहासप्रदत्त आस्थाओं का समुच्चय होती है। कुछ विदेशी लेखकों की जूठन पर पलने वाले मस्तिष्क के लिए इन उदात्त अवधारणाओं को समझना कठिन हो सकता है। वह हर जगह हर बात में केवल “फासिज्म” ही सूंघ सकता है।अंग्रेजी जूठन से जन्मा लेखनलेखक के अंधे पूर्वाग्रह और विकृत शोध पद्धति का नग्न रूप उस अध्याय में प्रगट हो जाता है जहां वह मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति श्री गुरुजी की दृष्टि का विवेचन करता है। वह आरोप लगा देता है कि श्री गुरुजी ने मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू राष्ट्र का शत्रु घोषित कर दिया था जिनका येन-केन-प्रकारेण उच्छेदन ही उन्हें अभिप्रेत था। बड़ी ढीठता के साथ वह लिखता है कि “गोलवलकर ने इस तर्क को भी ढुकरा दिया कि वर्तमान मुसलमान व ईसाई हिन्दू पूर्वजों के वंशज है।” (पृ.81) वह गुरुजी से कहलवाता है कि “वे राष्ट्रीय भावना से शून्य है और इसलिए राष्ट्र के शत्रु हैं-उन्हें गले लगाना और मित्र कहना असंभव है।” (पृ. 82) अपने भीतर भरी नफरत के इस जहार को गुरुजी के मत्थे मढ़कर वह निष्कर्ष घोषित करता है, “यह शत्रुभाव ही उनकी प्रेरणा थी… इस दानवी “अन्य” के कंधों पर ही गोलवलकर का सपना और हिन्दू राष्ट्र को उस सपने को पूरा करने वाला हथियार अर्थात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ टिका हुआ था।” (पृ.88)अपने इस मनगढ़न्त विचारों को गुरुजी पर लादने के लिए लेखक गुरुजी के वास्तविक विचारों को छिपाने और दबाने का सहारा लेता है। वह गुरुजी समग्र में ही उपलब्ध मुस्लिम पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी, इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक के नाते वयोवृद्ध खुशवंत सिंह और आर्गेनाइजर के सम्पादक (स्व.) के.आर. मलकानी के साथ इस विषय पर लम्बे-लम्बे साक्षात्कारों का जिक्र तक नहीं करता। इसे अप्रामाणिकता नहीं तो और क्या कहें? वह छिपा जाता है कि गुरुजी ने बार-बार हिन्दू शब्द को भू-सांस्कृतिक अर्थों में प्रयोग किया, मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू पूर्वजों की सन्तान कहा और अपनी उपासना पद्धति का पालन करते हुए भी राष्ट्र और उसकी संस्कृति को अपनाने का आग्रह किया।अन्तर्विरोध से प्रकटा सचयह पुस्तक गलत तथ्यों एवं अन्तर्विरोधों से भरी हुई है। प्रारंभ में श्रीगुरुजी का जीवनवृत्त देते हुए लेखक कहता है कि वे 1929 में ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संघ के सम्पर्क में आ गये जबकि आगे जाकर लिखता है कि 1929 में मद्रास से पत्र लिखते समय तक उनका संघ से परिचय तक नहीं हुआ था। प्रारंभ के अध्यायों में वह श्री गुरुजी की छवि एक खूंखार, रक्त पिपासु और आक्रामक व्यक्ति की प्रस्तुत करता है किन्तु आगे चलकर लिखता है कि “वे हिंसक या अहिंसक किसी भी प्रकार के संघर्ष के प्रति वितृष्णा रखते थे। उनका तर्क था कि किसी भी प्रकार का संघर्ष कुछ घाव और विकृतियां छोड़ जाता है जो समाज निर्माण में बाधा पैदा करते हैं।” (पृ.94) प्रारंभ में वह कई जगह गुरुजी की राज्य सत्ता व राजनीति के प्रति घोर विरक्ति को रेखांकित करता है किन्तु आगे चलकर वह उन पर “राज्य सत्ता हड़पने की गुप्त आकांक्षा” का आरोप लगा देता है। अन्तिम अध्याय में लेखक गांधी हत्या के आरोप को संघ के माथे मढ़ने का वही पुराना कम्युनिस्ट तीर तरकस से निकालता है। वह संघ प्रेरित संगठनों से केवल भारतीय जनसंघ की विस्तार से चर्चा करता है और वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय मजदूर संघ, सेवा भारती, देशभर में फैले 26,000 विद्यालयों जैसे रचनात्मक कार्यों का कोई वर्णन नहीं करता। स्पष्ट है कि उसका लेखन राजनीतिक दलीय प्रतिस्पर्धा से प्रेरित है। उसकी रुचि सत्य को जानने में नहीं, सत्य को विकृत करने में है।इसीलिए 20 मार्च की सायंकाल इस पुस्तक के लोकार्पण के निमित्त इंडिया हैबिटेट सेन्टर में एक परिचर्चा का आयोजन किया गया जिसमें हिन्दुत्व विरोध के लिए कुख्यात मणिशंकर अय्यर और सिद्धार्थ वरदराजन, टाइम्स आफ इंडिया के पूर्व सम्पादक दिलीप पड़गांवकर के साथ राष्ट्रवादी विचारक सुधीन्द्र कुलकर्णी को सम्मिलित किया। सुधीन्द्र कुलकर्णी ने बड़े तथ्यपूर्वक इस पुस्तक में विद्यमान विकृतियों, विसंगतियों एवं अन्तर्विरोधों को उजागर किया। जिसके उत्तर में मणिशंकर अय्यर ने भारत में मुस्लिम विस्तारवाद के इतिहास को शांतिपूर्ण सिद्ध करने के लिए हुमायूं के नाम बाबर की वसीयत का, जिसे इतिहास जगत जाली सिद्ध कर चुका है, सहारा लिया और अपने को दारा शिकोह तथा गोलवलकर और संघ को औरंगजेब की श्रेणी में रख दिया। सिद्धार्थ वरदराजन ने 2002 के गुजरात दंगों का राग अलापा तो दिलीप पड़गांवकर ने गुरुजी पर यह आरोप लगाकर कि उन्होंने समाज के निर्बल और पिछड़े वर्गों की कोई चिन्ता नहीं की- वनवासियों, मजदूरों, किसानों और दलितों के बीच संघ के विशालतम रचनात्मक कार्यों के प्रति अपने पूर्ण अज्ञान का परिचय दिया। संघ को तानाशाह और स्वयं को लोकतांत्रिक बताने वाले इन लोगों ने श्रोताओं की ओर से उठे प्रश्नों का उत्तर देना तो दूर, प्रश्न पूछने तक का मौका नहीं दिया। (22 मार्च, 2007)28

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