साहित्य में राष्ट्रीयता का उद्भव-2
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साहित्य में राष्ट्रीयता का उद्भव-2

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Jan 4, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jan 2007 00:00:00

हिन्दुत्व राष्ट्रीयत्व से अलग नहीं है!-मुजफ्फर हुसैनसमरसता साहित्य सम्मेलन महाराष्ट्र की अपनी एक विशेषता है। इसका नौवां सम्मेलन मराठवाड़ा के परभणी में गत वर्ष 29 से 31 दिसम्बर तक हुआ, जिसका विषय था “भारतीय साहित्य में राष्ट्रीयता का उद्भव”। इस सम्मेलन में सुप्रसिद्ध स्तम्भकार श्री मुजफ्फर हुसैन ने साहित्य क्षेत्र में राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति पर सारगर्भित व्याख्यान दिया था। यहां हम उसी व्याख्यान की दूसरी कड़ी प्रकाशित कर रहे हैं। सं.भारत के उत्तर-पश्चिम में दिल्ली बसा हुआ है जो घर की देहरी से बना है। जो इस देहरी को पारकर लेता है वह गौरी-गजनी से लेकर बाबर बन जाता है। जो पार नहीं कर सकता उसे लौटना पड़ता है। ठीक इसके समान्तर दक्षिण पूर्व में कड़प्पा नगर है जिसका तेलुगू में अर्थ होता है घर की देहरी। भारत के पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण के नगरों में समानता क्यों है? पूर्व में रांची तो पश्चिम में कराची। ढाका-ढोलका, अटक-कटक ऐसे असंख्य शब्द भारत में भरे पड़े है। ब्राह्मपुत्र पुत्र की प्रतीक है, लेकिन दक्षिण में कन्याकुमारी भी मौजूद है। दुनिया के राष्ट्रों में भारत का ही स्थान मूल है इसका सबूत मूलस्थान के रूप में विद्यमान है जो बोलचाल में मुल्तान हो गया। इतनी विविधता के बावजूद इस राष्ट्र की एकता अपने आपमें एक बड़ा चमत्कार है। इसलिए साहित्य में जब राष्ट्र और राष्ट्रीयता को खोजते तो केवल भारत ही इसकी कसौटी पर खरा उतरता है।राज्य, राष्ट्र और राष्ट्रीयता में जो भ्रम पैदा हुए उसका मुख्य कारण आक्रांता हैं। मध्य पूर्व के हमलावर अपने साथ मजहब भी लेकर आए। चूंकि वे रेगिस्तानी प्रदेश से आए थे इसलिए उनके यहां धरती का कोई महत्व नहीं था। कबीलाई और घुमक्कड़ लोग जहां जाते थे वे अपना मजहब और उसके बलबूते पर हथियाई संस्कृति को भी साथ ले जाते थे। जबकि कृषि प्रधान देशों से निकले मत-पंथ प्रारम्भ से ही राज्य और राष्ट्र को किसी न किसी रूप में जानते थे। इसलिए ईरान के जस्थ्रुष्टत, भारत का सनातन और चीन के कन्फ्युशियस की विचारधारा को अपने स्थायित्व का आधार मानते थे। लेकिन ईसाई और मुस्लिम ऐसा नहीं कर सके। ईसाइयत और इस्लाम यहूदियत की ही शाखाएं हैं, इसलिए इन तीनों की विचारधारा समान है। लेकिन यहूदी बहुत कम संख्या में हैं। इस्लाम और उनका कोई देश 1949 तक कायम नहीं हुआ इसलिए यहूदियों में वह उग्रता देखने को नहीं मिलती है जो इन दोनों पंथों में है। समय के साथ ईसाइयत की धारा यूरोप में चली गई और उसने कृषि प्रधान सभ्यता को अपना लिया। लेकिन मुस्लिमों मंे निरंतर विजय के पश्चात भी यह चरित्र पैदा नहीं सका।लीग आफ नेशन्स की स्थापना के समय राज्य और राष्ट्र को पर्यायवाची शब्द मान लिया गया। राष्ट्रपति वुडरो विल्सन की यह भूल उस समय दुनिया को महंगी पड़ी जब उन राज्यों में रहने वाले अल्पसंख्यकों का सवाल उठा। परिणामस्वरूप द्वितीय महायुद्ध हुआ।पिछले दिनों अमरीकी जनरल जोन एबीजेडे एवं पाकिस्तान, अफगानिस्तान की यात्रा पर आए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने विश्व में चल रहे मुस्लिम आतंकवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि राष्ट्र को मजहब से पूरे नहीं रखा गया तो फिर तृतीय महायुद्ध होने से विश्व को कोई नहीं बचा सकता।वेदकालीन युग के साहित्य में जिस प्रकार राष्ट्र और राष्ट्रीयता को स्थान मिला क्या वही सोच और चेतना आगे भी जारी रही? सातवीं शताब्दी के पश्चात भारत निरंतर अरब, तुर्क, उजबेक और अफगान आक्रांताओं का शिकार हुआ। भारत को राज्य कहा जाए या राष्ट्र कहा जाए मुस्लिम शासक इस चक्कर में पड़े ही नहीं, क्योकि इस्लाम अथवा उनके संबंधित देशों में ऐसा कोई चिंतन था ही नहीं। लेकिन यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने इस बहस में अनेक भ्रम पैदा करने की लगातार कोशिश करे। वे यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि भारत कभी राष्ट्र था। उन्होंने भारत में युगों-युगों से बसने वाले लोगों को भी यहां का मूल निवासी नहीं माना और यह सिद्धांत प्रतिपादित कर दिया की आर्य बाहर से आए थे। यदि वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें भारत में राज करने का अधिकार नहीं मिलता। भारत कभी एक था वह इस तथ्य से भी परहेज करते रहे। उन्होंने भारत में बनाए गए “नए देशों के समूह” को भारतीय उपखंड कहकर सम्बोधित किया। यह उनके लिए इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि ऐसा कहकर उन्होंने यह कहना चाहा कि नेपाल, भूटान, म्यांमार वर्मा और श्रीलंका अलग देश हैं।मैकाले और माक्र्स पुत्र कुछ भी कहते रहें लेकिन अनंत काल से आज तक जितने साहित्य का भारत भूमि पर सर्जन हुआ, सभी ने भारतीय राष्ट्रवाद की चर्चा की। साहित्य में राष्ट्रीय चेतना कभी आक्रोश मुद्रा में प्रकट हुई तो कभी संत वाणी में। पर साहित्य में राष्ट्रीय चेतना हर युग में झलकती दिखलाई पड़ती है। इससे देश का कोई कोना अछूता नहीं है।राष्ट्रीयता का सिरमौर कहा जाने वाला साहित्य बंगला है। बंगाल ने सांस्कृतिक उपहास और राष्ट्रीयता के अममान के जो दृश्य देखे थे उसकी पीड़ा उसके साहित्य में भली प्रकार झलकती है। राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद जहां बंगाल की विरासत है, वहीं उसका साहित्य संघर्ष, देश प्रेम और क्रांति का संगम है।बंगाल में जागरुकता के कारण 12 वीं और 13वीं शताब्दी से कविता, नाटक और उपन्यास के रूप में राष्ट्रीयता का साहित्य में उद्भव होता रहा। इसी श्रृंखला में आगे चलकर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने आनंद मठ नामक अपने विख्यात उपन्यास में राष्ट्रवाद का भव्य चित्र प्रस्तुत करने का कीर्तिमान स्थापित किया। धर्म-संस्कृति और राष्ट्रीयता का ऐसा सुन्दर समागम किसी अन्य जगह देखने को नहीं मिलता।राष्ट्रभाषा हिन्दी के साहित्य में राष्ट्रीयता की खोज करने से पूर्व एक दृष्टि उर्दू साहित्य पर भी डालना अनिवार्य है, क्योंकि हिन्दी बोली को अरबी में लिपिबद्ध करके जिस साहित्य का निर्माण किया गया वह भी राष्ट्रीयता की मूल धारा से अलग नहीं था। उर्दू का जन्म 13वीं शताब्दी में हुआ। स्वदेशी भावना को विदेशियों के सम्मुख अमीर खुसरो कव्वाली के भी जनक हैं, ब्राज, अवधी, मालवी, भोजपुरी और मेवाडी के शब्दों को फारसी जैसी भाषा से मिलाकर गजल और गीत लिखे। “खलिकवारी” नामक फारसी हिंदवी छंदोबद्ध शब्दकोष के संग्रह का भी श्रेय इसी महान कवि को जाता है। अमीर खुसरो ने जिस तरह प्रस्तुत किया वह भाषा की दुनिया में एक नया अविष्कार था। राग-रागनियों के धनी अमीर खुसरो ने भारतीयता और राष्ट्रीयता की लहर का परिचय भारत के बाहर प्रस्तुत किया और उसे ईरान तक पहुंचाया, जो आर्यवृत्त कभी का हिस्सा था।हिन्दी साहित्य में जब हम राष्ट्रीयता की खोज करते हैं तब इस बात अहसास हो जाता है कि इस विशाल भू-भाग पर जो उत्तर और पश्चिम में स्थित है, वह सबसे अधिक संघर्ष का केन्द्र रहा। विदेशी आक्रांताओं में, विशेषकर मुगलों तो सीधे-सीधे इस पर अपना अधिपत्य जमाया। आजादी की लड़ाई में सारे देश ने योगदान किया लेकिन निर्णायक सफलता इसी धरती पर मिली, इसलिए यह क्षेत्र राष्ट्रीयता का धड़कता दिल बन गया। गंगा-यमुना की सभ्यता वाले इस प्रदेश में भारतीय संस्कृति ने इतनी गहरी छाप छोडी कि डाक्टर इकबाल जैसे अलगाववादी कवि को यह कहना पडा कि… “यूनानो मिस्र रोमा सब मिट गए जहां से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।”हिन्दुत्व चूंकि राष्ट्रीयत्व से अलग नहीं है इसलिए जो संघर्ष हुआ वह राष्ट्रीयता के लिए ही था। अकबर को सफलता भले ही मिलती रही हो लेकिन उसी के दरबार के कवि पृथ्वीराज को जब मालूम हुआ कि राणा प्रताप अकबर के सामने समर्पण करने जा रहे हैं तो उसने राणा को एक पत्र लिखा, जिसने राणा प्रताप का इरादा बदल दिया।राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक भावना है। किसी प्रदेश विशेष के निवासियों की यह भावना और विश्वास है कि वे एक हैं और अपना भविष्य उज्जवल करने के लिए उनका दृढ़ संकल्प है- इसी का नाम राष्ट्रीयता है-जो साहित्य रूपी सरिता से निकलकर मानवता के मैदान को सींचती हुई अनंत में विलीन हो जाती है।14

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