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-ब्राह्म चेलानी, वरिष्ठ रक्षा विश्लेषक
जब यह परमाणु समझौता लागू होगा तो वह भारतीय परमाणु प्रतिरोधक क्षमता के आकार पर ढक्कन लगा देगा यानी उससे अधिक हम कभी बढ़ नहीं पाएंगे। अमरीकी राज्य मंत्री निक बन्र्स के शब्दों में- यह समझौता पहली बार अमरीका को “भारत के परमाणु कार्यक्रम के भीतर एक पारदर्शी दृष्टि देगा।” निक बन्र्स ने आगे कहा है, “पिछले तीन दशकों से हमें भारत के परमाणु कार्यक्रम पर जो असर और पारदर्शी नजर चाहिए थी, वह हमें अब प्राप्त हुई है।”
गत वर्ष 29 जुलाई को संसद में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए आश्वासन के आज ठीक उलट हुआ है। तब प्रधानमंत्री ने संसद में कहा था कि वे अन्य परमाणु शक्तियों के समान ही “लाभ और अधिकार” हासिल करेंगे तथा, “कभी भी भेदभाव स्वीकार नहीं करेंगे।” लेकिन उन्होंने अमरीकी दबाव में आकर “केवल भारत के लिए बनाए गए खास” अन्तरराष्ट्रीय निरीक्षणों के लिए सहमति दे दी। भारत अब दुनिया में दूसरे दर्जे की परमाणु शक्ति ही रहेगा क्योंकि, “जमीनी नियमों” के एक हिस्से के नाते भारत सरकार ने अपनी क्षमता बढ़ाने पर विभिन्न नियंत्रणों को स्वीकार कर लिया है।
इससे भी बदतर बात यह है कि इस समझौते की आवश्यकता का तर्क ही दोषपूर्ण है। इस समझौते के आधार में यह मान्यता है कि भारत की ऊर्जा आवश्यकताएं तेजी से बढ़ रही हैं। और उनको केवल न्यूक्लियर पावर रिएक्टर द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। अब यह कोई भी बता सकता है कि विदेशों से आयातित न्यूक्लियर रिएक्टरों द्वारा बिजली उत्पादन का बहुत लाभप्रद आर्थिक या सामरिक अर्थ नहीं निकलता। हम जितना विदेशों से आयातित रिएक्टरों पर ऊर्जा उत्पादन निर्धारित करेंगे उतना ही यह ऊर्जा असुरक्षा और बेतहाशा महंगी लागत की ओर हमें ले जाएगा।
भारत को ऊर्जा क्षेत्र में वे बड़ी गलतियां नहीं करनी चाहिए जो उसने हथियारों के क्षेत्र में की हैं। आज भारत दुनिया में हथियारों का आयात करने वाला सबसे बड़ा देश हो गया है जो हर साल अरबों डालर इसी मद में खर्च करता है। लेकिन वह स्वयं अपने हथियार बनाने का आधार मजबूत करने की उपेक्षा करता है। भारत को वही भयंकर गलती अरबों डालर खर्च करके महंगे रिएक्टर आयात करके नहीं दोहरानी चाहिए जबकि वह ज्यादा लाभकारी ढंग से अपने ऊर्जा स्रोतों के विकास में पूंजी निवेश कर सकता है। भारत अपने परमाणु कार्यक्रम पर नियंत्रण स्वीकार कर परमाणु ऊर्जा बनाने के बजाय अपने विशाल जल विद्युत क्षेत्र और कोयला भण्डार के दोहन पर ध्यान क्यों नहीं देता जो कि दुनिया में सबसे बड़े हैं? किसी भी देश ने अपनी ऊर्जा सुरक्षा उस प्रकार के परमाणु रिएक्टर आयात करके नहीं बनाई है जिस प्रकार के रिएक्टरों का स्वदेश में ही निर्माण करने की इच्छा नहीं है और जिसके लिए र्इंधन की आवश्यकताएं उसे सदा सर्वदा के लिए विदेशों पर निर्भर बना देंगी। इसके बावजूद यही वह अजीब रास्ता है जो भारत अपनाने की ओर बढ़ चला है।
संक्षेप में अमरीका के साथ परमाणु समझौते ने भारत पर एक आर्थिक दृष्टि से खराब ऊर्जा विकल्प थोप दिया है। इसके बावजूद अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह विदेशी आयातित र्इंधन पर आधारित बहुत महंगे आयातित रिएक्टरों द्वारा पैदा की जाने वाली बिजली के अर्थशास्त्र पर चर्चा से संकोच करते हैं। एक बहुत छोटे परमाणु आपूर्ति समूह पर भारत को निर्भर बना देना ऊर्जा असुरक्षा का रास्ता है। यह भी गलत है कि परमाणु ऊर्जा “साफ सुथरी” होती है क्योंकि परमाणु ऊर्जा की प्रक्रिया में बहुत अधिक रेडियो एक्टिव कचरा निकलता है जिसके सुरक्षित निपटारे में गहरी प्रोद्यौगिकी चुनौतियां और आकलन से परे लागत होती है।
इस समझौते से लड़खड़ाते अमरीकी ऊर्जा उद्योग में तो फिर से जान आ जाएगी, लेकिन भारत की अपनी ऊर्जा स्वतंत्रता लड़खड़ा जाएगी।
निक बन्र्स के शब्दों में, “भारत इस बात पर सहमत हो गया है कि भविष्य में वह अपने सभी भावी नागरिक ऊर्जा रिएक्टर थर्मल रिएक्टर और ब्राीडर रिएक्टर अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षा निगरानी के अन्तर्गत रखेगा।” यह समझौता लोकसभा में 27 फरवरी, 2006 के दिन प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से विपरीत है जिसमें उन्होंने कहा था, “हमने यह स्पष्ट कर दिया है कि हम अपने स्वदेशी फास्ट ब्राीडर कार्यक्रम पर कोई सुरक्षा निगरानी स्वीकार नहीं कर सकते।” अमरीका में परिष्कृत रिएक्टरों के लिए केन्द्र सरकार का वित्त आवंटन काफी पहले खत्म कर दिया गया था और 1973 के बाद जिन रिएक्टरों के लिए आदेश दिया गया था वे भी निरस्त कर दिए गए। अमरीका में थर्मल ऊर्जा केन्द्रों की तुलना में परमाणु रिएक्टरों की लागत बहुत अधिक होने के कारण उनका निर्माण रोक दिया गया लेकिन अब वाशिंगटन उन्हीं रिएक्टरों की भारत में बिक्री अपने मृत प्राय: परमाणु ऊर्जा उद्योग को पुनर्रुजीवित करने का सबसे अच्छा तरीका देख रहा है। जैसा कि निक बन्र्स ने दिल्ली में अपने वक्तव्य में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया, “हमें अरबों डालर का आर्थिक लाभ होने वाला है, इसमें कोई शंका नहीं है।”
स्पष्ट रूप से हथियार और ऊर्जा आयात लाबियों के स्वार्थ भारत के इस परमाणु समझौते पर केन्द्रित हो गए हैं। जैसा कि गत वर्ष 19 जुलाई, 2005 को वाशिंगटन पोस्ट ने पहले पन्ने पर पेंटागन अधिकारियों को उद्धृत करते हुए लिखा था कि एक बार यह परमाणु समझौता लागू हो जाए तो भारत अमरीका से “पांच अरब डालर” के हथियार खरीदेगा। वास्तविक रिएक्टरों की बिक्री तो इससे भी ज्यादा कीमत की होगी। 2 मार्च, 2005 को नई दिल्ली में परमाणु समझौते पर बुश-मनमोहन सिंह घोषणा के कुछ ही घंटे बाद अमरीकी रक्षा विभाग ने एक विजयपूर्ण बयान जारी किया जिसमें कहा गया कि इस समझौते से बहुत बड़े भारतीय हथियार के ठेके मिलने का रास्ता खुल गया है। अमरीकी रक्षा विभाग के बयान में कहा गया, “जहां कुछ साल पहले तक भारत और अमरीका के बीच किसी बड़े रक्षा सौदे की संभावना पर भी चर्चा नहीं होती थी वहीं आज वे संभावनाएं निश्चित हो गई हैं। चाहे वह युद्धक विमानों, हेलीकाप्टरों, नौसैनिक चौकसी विमानों का क्षेत्र हो या नौसैनिक पोतों का।” वास्तव में अमरीका भारत के परमाणु सामग्री उत्पादन की क्षमता पर निशाना साध रहा है क्योंकि उस क्षमता पर ढक्कन लगाने का अर्थ होगा भारत की परमाणु प्रतिरोधक क्षमता को सीमित करना। अमरीका नागरिक और सामरिक विभाजन पर भी जोर दे रहा है जिसका अर्थ होगा कि भारत के आणविक ऊर्जा विभाग में कार्यरत वैज्ञानिकों का भी क्षेत्र विभाजन। जहां अमरीका भारत से हवा बंद नागरिक-सामरिक विभाजन की मांग कर रहा है वहीं वह इस तथ्य को छिपा रहा है कि बाकी किसी भी परमाणु शक्ति ने ऐसा नहीं किया है क्योंकि ऐसे अधिकांश मामलों में नागरिक-सामरिक विभाजन का कोई भ्रम तक नहीं पालता। वास्तव में अमरीका स्वयं अपने टेनेसी वेली अथारिटी के नागरिक रिएक्टरों में अपने परमाणु हथियारों के लिए ट्राइटियम का उत्पादन करता है।
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