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माक्र्सवादी इतिहासकार हिन्दुत्व विरोधी ही क्यों?देवेन्द्र स्वरूप(31 मार्च, 2006)इसी 27 मार्च को भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (आई.सी.एच.आर.) का स्थापना दिवस व्याख्यान सुनने का अवसर मिला। व्याख्याता थे प्रमुख माक्र्सवादी इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब। प्रो. हबीब ने व्याख्यान के लिए विषय चुना था, “राष्ट्रीय आन्दोलन की पुनव्र्याख्या”। प्रो. हबीब मध्यकालीन इतिहास के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने आधुनिक काल के इतिहास में हस्तक्षेप करना क्यों आवश्यक समझा? वैसे कुछ वर्षों से वे हड़प्पा सभ्यता, सरस्वती नदी, आर्य-समस्या जैसे प्रागैतिहास कालीन विषयों से लेकर अर्वाचीन काल तक छलांगें लगा रहे हैं। यदि हम यह मान लें कि इतिहास का प्रवाह अखंड रहता है, उसे कृत्रिम काल विभाजन से बांधा या काटा नहीं जा सकता तो प्रो. हबीब की भारत के सम्पूर्ण इतिहास की यह यात्रा स्वागत योग्य है। किन्तु जब मैं स्मरण करता हूं कि यही माक्र्सवादी इतिहासकार भारत के महानतम इतिहासकार स्व. डा. आर.सी. मजूमदार द्वारा उनकी प्रस्थापनाओं को ध्वस्त करने वाले शोध से तिलमिलाकर उंगली उठाया करते थे कि डा. मजूमदार प्राचीनकालीन इतिहास के विशेषज्ञ होकर मध्य और अर्वाचीनकाल पर लेखनी क्यों उठाते हैं, तब मुझे प्रो. हबीब की मध्यकाल के बाहर इन छलांगों में निहित उद्देश्य को खोजने की इच्छा पैदा होती है।प्रो. हबीब द्वारा प्रस्तुत “राष्ट्रीय आन्दोलन की पुनव्र्याख्या” का विस्तृत विवेचन इस लेख में न अभिप्रेत है और न सभ्य। संक्षेप में कहना हो तो उनके भाषण का मुख्य लक्ष्य हिन्दुत्व अर्थात् सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ध्वस्त करने के लिए गांधी का मूर्तिभंजन एवं नेहरू का महिमामंडन करना था। नेहरू उन्हें ठीक लगते हैं क्योंकि उन्होंने कभी कहा था कि अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता से बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता अधिक खतरनाक होती है, क्योंकि बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद का आवरण ओढ़ लेती है और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता को पृथकतावाद घोषित कर दिया जाता है। प्रो. हबीब ने यह भी कहा कि कांग्रेस को “हिन्दू संस्था” जिन्ना ने नहीं, ब्रिटिश शासकों ने घोषित किया था। शायद वे जानबूझकर इस तथ्य को छिपा गये कि 1885 में कांग्रेस के जन्मकाल से ही सर सैयद अहमद खान ने कांग्रेस को बंगाली हिन्दुओं का मंच कहकर मुसलमानों को उसमें सम्मिलित न होने का आदेश दिया था। प्रच्छन ढंग से प्रो. हबीब यहां कांग्रेस की अखंड भारत की कोशिशों को बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता बता रहे हैं और मुस्लिम लीग के पाकिस्तान आन्दोलन को महज अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता। प्रो. हबीब के भाषण में इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारत के स्वाधीनता आन्दोलन की एकमात्र प्रेरणा ब्रिटिश शासन द्वारा भारत के आर्थिक शोषण का विरोध थी, न कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। उन्होंने कहा कि गांधी जी की आत्मकथा अन्तर्विरोधों का पुलिन्दा है। गांधी जी का यह कहना गलत है कि उनकी राजनीतिक प्रेरणा भारतीय संस्कृति थी। हरिजनोद्धार, सत्याग्रह, अहिंसा आदि के सिद्धांत उन्होंने भारत के इतिहास में से प्राप्त किये। प्रो. हबीब को पूरा विश्वास है कि समता, अहिंसात्मक प्रतिरोध, समाज सुधार और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जिन आदर्शों पर गांधी जी का आन्दोलन खड़ा दिखायी देता है, वे सब उन्होंने विदेशों से प्राप्त किये थे, भारतीय संस्कृति में से नहीं क्योंकि प्राचीन भारत के पास वे आदर्श थे ही नहीं। उनका जन्म तो फ्रेंच क्रान्ति, रस्किन और टालस्टाय से हुआ। प्रो. हबीब ने बार-बार माक्र्स के 1853 के लेखों, ब्रिटेन स्थित रजनी पामदत्त के “आज का भारत” और ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद की स्वतंत्रता संग्राम सम्बंधी पुस्तकों को ही भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रामाणिक स्रोत बताया।भक्ति का जादूअभी 24 मार्च को राष्ट्रीय अभिलेखागार में “विदेशों में बिखरे भारतीय इतिहास के स्रोत” विषय पर एक विद्वत्तापूर्ण भाषण के पश्चात् प्रश्नोत्तरकाल में एक युवा शोध छात्र ने, जिसकी चिन्ता का मुख्य विषय जीविकार्जन का अभाव था, अप्रासंगिक ढंग से जानकारी दी कि दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. डी.एन. झा ने दो दिन पूर्व जामिया मिलिया में रहस्योद्घाटन किया है कि अब तक इतिहास की पुस्तकों में बताया जाता रहा है कि प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय के विशाल पुस्तकालय को 1206 ईसवीं में विदेशी आक्रमणकारी बख्तियार बिन खिलजी ने जलाया और ध्वस्त किया था, यह पूरी तरह गलत है। वस्तुत: उस बौद्ध विश्वविद्यालय का ध्वंस हिन्दुओं ने किया था। उस शोध छात्र ने बताया कि प्रो. डी.एन. झा के अनुसार असहिष्णु एवं दुर्दान्त हिन्दुओं ने अनेक बौद्ध एवं जैन मन्दिरों को ध्वस्त किया एवं बलपूर्वक बौद्धों का धर्मान्तरण किया। प्रो. डी.एन.झा प्राचीन भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ हैं। उनके द्वारा मध्यकालीन इतिहास में इतनी मौलिक खोज आश्चर्य में डालने वाली है। चायपान के समय उस युवा शोध छात्र ने और जानकारी दी कि क्या आप जानते हैं कि “हिन्दू” शब्द का प्रयोग ग्यारहवीं शताब्दी के अलबरुनी से पहले कहीं नहीं मिलता। लगा कि उस पर प्रो. डी.एन. झा भक्ति का जादू चढ़ा हुआ था और वह उसे प्रदर्शित करने का कोई अवसर चूकना नहीं चाहता था। बातों-बातों में उसने बताया कि अभी कुछ दिन पहले ही उसे दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में नौकरी मिल गयी है। दिल्ली के विश्वविद्यालयों में इतिहास के शिक्षकों की नियुक्ति में माक्र्सवादी प्रोफेसरों की निर्णायक भूमिका से परिचित होने के कारण ताजा शिक्षक बने उस युवक के भक्ति प्रदर्शन का रहस्य समझ में आने लगा। किन्तु साथ ही स्मरण आया इस वर्ष 28 जनवरी को विश्व भारती, शान्ति निकेतन में सम्पन्न भारतीय इतिहास कांग्रेस (आई.एच.सी.) के 66 वें वार्षिक अधिवेशन के मंच से प्रो. डी.एन. झा का मुख्य अध्यक्षीय भाषण। इस महत्वपूर्ण बौद्धिक समागम के लिए प्रो. झा ने विषय चुना था, “हिन्दू पहचान की खोज”। 232 पाद टिप्पणियों से बोझिल 47 मुद्रित पृष्ठों के इस लम्बे भाषण का एकमात्र लक्ष्य भारत में “हिन्दू” नाम के किसी समाज के अस्तित्व को नकारना है। प्रो. झा जिहादी उत्साह के साथ हिन्दू अस्मिता एवं आस्थाओं को ध्वस्त करने पर जुटे हुए हैं। कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि प्राचीन भारत में गोमांस खाया जाता था और पूर्ण गोवध की वर्तमान हिन्दू आस्था का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। प्रो. झा की इस मौलिक खोज के विरुद्ध व्यापक जनक्षोभ उमड़ पड़ा था। हिन्दू अस्मिता एवं हिन्दू आस्थाओं के विरुद्ध प्रो. झा की इस शोध तपस्या का मूल कहां है? क्या वे केवल सत्य के शोधक हैं या किसी शत्रु से आक्रान्त हैं? इस प्रश्न का उत्तर उनके अध्यक्षीय भाषण के पहले पैराग्राफ में ही मिल जाता है। वे कहते हैं कि “मेरे जैसे व्यक्ति को, जो भारत के अतीत के प्रति आक्रामक, साम्प्रदायिक एवं पोंगापंथी धारणाओं के विरुद्ध सतत संघर्ष कर रहा है, इस अधिवेशन के अध्यक्ष पद पर चुने जाने से बहुत प्रोत्साहन मिला है। इसलिए मैं आपका ध्यान पहले तो इस मुख्य घटना की ओर खींचना चाहूंगा कि भारत की राष्ट्रीय पहचान का इतिहास बहुत पीछे जाता है और फिर यह सिद्ध करना चाहूंगा कि हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पोषण करने वाले हिन्दुत्व का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।” स्पष्ट है कि प्रो. झा ने एक शत्रु चुन लिया है और वे उस शत्रु के विरुद्ध रणक्षेत्र में जूझ रहे हैं। शोध का लक्ष्य उनके लिए सत्य की खोज नहीं, उस शत्रु के विरुद्ध वकील बुद्धि से तथ्यों का चयन करना और तर्कों को बुनना है।अमरीका की गोद”हिन्दुत्व” नामक शत्रु के विरुद्ध यह लड़ाई केवल भारत में ही नहीं विदेशों में भी विशेषकर अमरीका की धरती पर भी लड़ी जा रही है। इस दिशा में माक्र्सवादी महारथी प्रो. रोमिला थापर का इसी 9 मार्च को टाइम्स आफ इन्डिया में प्रकाशित लेख पठनीय है। पहली महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस लेख के लेखक के रूप में प्रो. थापर के साथ एक अमरीकी प्रोफेसर माईकेल विट्जेल का नाम भी जुड़ा है। यह स्वयं में एक रोचक तथ्य है कि शीतयुद्धकालीन मानसिकता के दास भारत के माक्र्सवादी एक ओर तो अमरीका विरोध को अपना धर्म मान बैठे हैं और अमरीका विरोध के आवेश में भारत के राष्ट्रीय हितों की बलि देने एवं जिहादियों के साथ हाथ मिलाने में भी संकोच नहीं करते, वहीं दूसरी ओर वे “हिन्दुत्व” नामक शत्रु के विरुद्ध उसी घृणित अमरीका की गोद में बैठने में नहीं शरमाते। स्पष्ट है, उनकी दृष्टि में उनके माक्र्सवाद को खतरा इस्लामी जिहाद से नहीं, हिन्दुत्व या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से है। और, इसलिए अमरीका के कैलीफोर्निया जैसे राज्यों की पाठ पुस्तकों में भारत के वर्तमान और अतीत का विकृत चित्र प्रस्तुत करने वाले अंशों को हटाने की वहां बसे भारतवंशी हिन्दुओं की मांग का विरोध करने के लिए भारत के माक्र्सवादी दौड़ पड़ते हैं और इसके लिए वे भारत विरोधी अमरीकी विद्वानों की शरण में चले जाते हैं। प्रो. थापर के इस लेख को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरुद्ध राजनीतिक लड़ाई लड़ रही हैं। वे समझती हैं कि दुनिया के किसी भी कोने में हिन्दू समाज की ओर से उठने वाली किसी भी मांग का रिश्ता संघ से जोड़ कर वे अपने विरोध को उचित ठहरा सकती हैं। इस लेख में वे जगह-जगह संघ का नाम घसीटती हैं। और अमरीकी हिन्दुओं की आहत भावनाओं में से निकली मांग को संघ से जोड़कर वे उसके विरोध को उचित ठहरा सकती हैं। वे अमरीकी विद्वान डेविड फ्राली को अपना शत्रु समझती हैं क्योंकि वे वेद, योग एवं आयुर्वेद के प्रति गहरी श्रद्धा रखते हैं और माईकेल विट्जेल को अपना त्राता मान लेती हैं। क्योंकि वह फ्राली और हिन्दुत्व का विरोधी हैं। सच तो यह है कि अमरीका को गाली देने वाला प्रत्येक भारतीय कम्युनिस्ट चीन के बजाय अमरीका में ही बसना चाहता है। हिन्दुत्व के प्रति उनका द्वेष इतना गहरा है कि महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ के मन्दिर ध्वंस के इतिहास सिद्ध सत्य को असत्य सिद्ध करने के लिए एक पूरा ग्रन्थ लिख मारती हैं। प्राचीनकालीन इतिहास में अपनी विशेषज्ञता की सीमा रेखा को लांघकर मध्यकालीन इतिहास के कुंए में कूद पड़ती हैं।वकील बुद्धिबहरहाल, उपरोक्त सभी उदाहरणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विवश हैं कि पिछले कुछ वर्षों से भारत के माक्र्सवादी इतिहासकारों के मन-मस्तिष्क पर “हिन्दुत्व” का भय बुरी तरह सवार है। उन्होंने हिन्दुत्व को ही अपना एकमात्र शत्रु मान लिया है और इस शत्रु के विरुद्ध उन्होंने अपना पूरा बुद्धि-बल रणक्षेत्र में झोंक दिया है। उनके बुद्धि-बल को कम आंकने का कोई कारण नहीं है। किन्तु जब कोई बुद्धि सत्यनिष्ठा को खोकर राग-द्वेष की बन्दी बन जाती है तो उसे वकील बुद्धि कहा जाता है। और यह सर्वविदित है कि वही वकील बुद्धि किसी हत्यारे को बचाने के लिए तर्क बुन सकती है तो उसके विरुद्ध भी। कभी- कभी लगता है कि भारत के माक्र्सवादी इतिहासकारों पर यह बात पूरी तरह लागू होती है। माक्र्सवादी विचारधारा इतिहास के लेखन-अध्ययन को सर्वोपरि महत्व देती है। स्वयं माक्र्स ने इतिहास विषय को सब विधाओं का मूलाधार कहा था। उनका कहना था कि सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक क्रांति व पुनर्रचना की कुंजी इतिहास दृष्टि में ही विद्यमान है। इसलिए माक्र्सवादी आन्दोलन में इतिहास लेखन को अत्यधिक महत्व दिया गया है। भारत में भी बौद्धिक क्षेत्र में कम्युनिस्ट आन्दोलन आज भी मुट्ठी भर माक्र्सवादी इतिहासकारों के कंधों पर ही टिका हुआ है। पिछले बीस वर्षों में रूस, पूर्वी यूरोपीय देशों एवं कम्युनिस्ट चीन में माक्र्सवाद की विफलता एवं कम्युनिस्ट सरकारों के धराशायी होने के बाद से भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन का सैद्धांतिक आधार तो समाप्त हो चुका है। अब वह सत्ता प्राप्ति का एक संगठित तन्त्र मात्र रह गया है। अब उसकी प्रेरणा नये समाज के निर्माण की सैद्धांतिक साधना के बजाय सैद्धांतिक शब्दाचार के आवरण में येन-केन प्रकारेण सत्ता का सुख भोगना रह गयी है। अब वह विचारधारा नहीं, मात्र राजनीति है। माक्र्सवादी राजनीति को जिन्दा रहने के लिए कोई शत्रु चाहिए। कभी वह रूस के जार थे, फिर साम्राज्यवादी इंग्लैंड बन गया, फिर हिटलर का फासिज्म, शीत युद्धकाल में अमरीका और अब भारत के हिन्दुत्व ने वह जगह ले ली है। योद्धा मैदान में खड़ा है, तलवार भांज रहा है, केवल शत्रु बदलता जा रहा है।भारत के माक्र्सवादी इतिहासकारों पर राजनीति इस कदर हावी है कि बौद्धिक क्षेत्र भी वे कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीति का हिस्सा बन गए हैं। जिस प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी के अनेक टुकड़े हो गए हैं और प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी अपने को ही सच्चा माक्र्सवादी बता रही है उसी प्रकार माक्र्सवादी इतिहासकार भी अलग-अलग कम्युनिस्ट पार्टी का हिस्सा बनकर एक-दूसरे की टांग खींच रहे हैं। प्रो. हबीब स्वयं को माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का हिस्सा मानते हैं, जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के कट्टर माक्र्सवादी इतिहासकार प्रो. सुमित सरकार अब सबाल्टर्न स्कूल के माने जाते हैं। प्रो. हबीब ने अपने व्याख्यान में सबाल्टर्न स्कूल के जन्मदाता रणजीत गुहा और वर्तमान पुरोधा पार्थो चटर्जी व सुमित सरकार के इतिहास लेखन पर साम्राज्यवादी कैम्ब्रिाज स्कूल की छाप बता दी। ज्ञातव्य है कि प्रो. सुमित सरकार के पिता प्रो. सुशोभन सरकार को ही बंगाल में माक्र्सवादी इतिहासकारों के प्रथम गुरु का सम्मान दिया जाता रहा है। माक्र्सवादी इतिहासकारों के तबेले में चल रहे इस लतियाव के पीछे क्या केवल सैद्धांतिक मतभेद काम कर रहे हैं या कहीं स्वार्थों का टकराव विद्यमान है? राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसंधान परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.) के ताजा पाठक्रम एवं इतिहास की पाठपुस्तकों को लेकर माक्र्सवादी शिविर में जो जूतम-पैजार चल रही है उस पर दृष्टि डालें तो लगता है कि माक्र्सवादियों की इस अन्तर्कलह के पीछे विचारधारा से अधिक आर्थिक स्वार्थ एवं प्रतिष्ठा की भूख काम कर रही है। इतिहास की नई पाठपुस्तकों का लेखन सबाल्टर्न स्कूल के शिक्षकों ने किया है। उन्होंने आर.एस. शर्मा, रोमिला थापर, विपिन चन्द्र एवं सतीश चंद्र जैसे पुराने माक्र्सवादियों की पुस्तकों को निकाल बाहर किया है। इसलिए प्रो. हबीब और ये लोग अपनी पाठपुस्तकों को वापस लाने की मांग कर रहे हैं और उन्हें वापस लाने के लिए सबाल्टर्न स्कूल की पुस्तकों में दोष निकाल रहे हैं। हमारा कहना यह नहीं है कि सबाल्टर्न स्कूल की पुस्तकें सही हैं। उनकी कमियों को हम पहले ही पाञ्चजन्य में लिख चुके हैं। हमारा झगड़ा व्यक्तियों से नहीं, विचारधारा से है। हमारी चिन्ता यह है कि आपस में लड़ते-झगड़ते हुए भी अनेक खेमों में बंटे माक्र्सवादी इतिहासकार हिन्दुत्व के विरुद्ध एकजुट क्यों हैं? अपना पूरा बुद्धि-बल वे हिन्दुत्व के विरुद्ध ही क्यों खर्च कर रहे हैं? क्यों नहीं किसी भी भारतीय माक्र्सवादी इतिहासकार ने अब तक माक्र्सवाद की विचारधारा की अवैज्ञानिकता, अपूर्णता और असफलता का विवेचन करने की आवश्यकता समझी? क्या सचमुच वे रूस, चीन और पूर्वी यूरोप के पुराने कम्युनिस्ट देशों में चल रही वैचारिक बहस से परिचित नहीं हैं? यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि इस अध्ययनशील भारतीय माक्र्सवादी इतिहासकारों की कलम से रूस में कम्युनिस्ट इतिहास लेखन की शव परीक्षा पर कोई लेख अब तक देखने में नहीं आया। क्या विचारधारा के नाम पर गिरोह बन्दी करके विश्व विद्यालयों एवं अन्य उच्च शैक्षिक संस्थानों में मोटी तनख्वाहों वाले पदों पर अपने कब्जे को खोने के भय से वे आत्मालोचन के बजाय एक काल्पनिक शत्रु के विरुद्ध तलवार भांजना अधिक उपयोगी समझते हैं?31
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