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चप्पे-चप्पे पर लिखी क्रान्तिवीरों की गौरव गाथा

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Sep 4, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Sep 2006 00:00:00

क्रांतितीर्थ

– विनीता गुप्ता

काले पानी के 100 साल

पोर्ट ब्लेयर (अंदमान) स्थित सेल्यूलर जेल का विहंगम दृश्य। ऊपर मध्य में दिख रहा है निगरानी स्तम्भ

वीर सावरकर

फांसी पर झूलते शहीद, कोल्हू में बैल की जगह जुते स्वतंत्रता सेनानी…. लक्ष्य-शाम तक तीन मन तेल पेरना और जेल की कोठरियों से गूंजते स्वर- वंदेमातरम्-वंदेमातरम्। 689 कोठरियों में बंद स्वतंत्रता सेनानियों के “वंदे मातरम्” घोष से थर्रा उठता था पोर्ट-ब्लेयर।

भीषण यातनाओं और आजादी के दीवानों के बुलन्द हौसलों की यादें सीने में समेटे आज भी पोर्ट ब्लेयर में मौजूद है क्रांतितीर्थ “सेल्यूलर जेल”। इसी वर्ष सेल्यूलर जेल ने अपने निर्माण के 100 वर्ष पूर्ण किए हैं।

सन् 1857 में भारत की आजादी के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश शासकों के मन में राजनीतिक कैदियों की एक ऐसी बस्ती स्थापित करने का विचार आया जो मुख्य भूमि से हजारों मील दूर हो ताकि उन लोगों से प्रभावी ढंग से निबटा जा सके जिन्होंने उनकी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। इसी उद्देश्य से 8 दिसम्बर, 1857 को अंग्रेज विशेषज्ञों की एक समिति ने अंदमान-निकोबार द्वीप समूह का सर्वेक्षण किया। रपट आने के बाद 22 जनवरी 1858 को इन द्वीपों में यूनियन जैक फहराया गया। 10 मार्च, 1858 को 200 राजनीतिक बंदियों का पहला जत्था इस द्वीप पर पहुंचा। सर सी.जे.लायल तथा सर ए.एस.लेथब्रिज ने 1890 में पोर्ट ब्लेयर का दौरा कर वहां एक जेल निर्माण की सिफारिश की और 13 सितम्बर 1896 को ब्रिटिश सरकार की बर्बर यातनाओं की दास्तां लिखने वाली सेल्यूलर जेल का निर्माण शुरु हो गया। राजनीतिक बंदियों को ही निर्माण कार्य में जोता गया और 20 साल के अथक परिश्रम के बाद 1906 में वास्तुकला का यह अनूठा नमूना तैयार हुआ।

आज राष्ट्रीय स्मारक सेल्यूलर जेल में प्रवेश करते ही ठीक सामने दिखाई देती हैं कोठरियों की तीन मंजिला तीन कतारें। हर कतार का मुंह, दूसरी कतार की पींठ की तरफ है ताकि एक कैदी दूसरे कैदी को देख न सके। यही कारण है कि सावरकर भाइयों अर्थात् गणेश दामोदर सावरकर और विनायक दामोदर सावरकर को वर्षों तक यह पता नहीं चला कि वे दोनों एक ही जेल में हैं। मूल रूप में तीन मंजिला कतारों की संख्या तीन नहीं बल्कि सात थी। कैदियों को एक-दूसरे से बिल्कुल अलग रखने के उद्देश्य से इसमें कुल 689 कोठरियां बनायीं गयी थीं। इसके प्रथम खंड में 105, दूसरे में 102, तीसरे में 150, चौथे में 53, पांचवें खंड में 93, छठे खंड में 60 तथा सातवें खण्ड में 126 कोठरियां थीं।

1941 में अंदमान-निकोबार में भीषण भूकम्प आया, जिससे इस जेल भवन की चार इमारतें पूरी तरह ध्वस्त हो गई थीं। कोठरियों की तीन कतारें अभी ज्यों की त्यों मौजूद हैं। सभी कोठरियां एक जैसी हैं। 13.5 फुट लम्बी, 7 फुट चौड़ी और 10 फुट ऊंची कोठरियों में हवा और रोशनी के लिए बस अगर कुछ है तो फर्श से 9 फुट की ऊंचाई पर बना 3 फुट लम्बा और 1 फुट चौड़ा रोशनदान। सभी कोठरियों के सामने दूर तक फैला दिखाई देता है चार फुट चौड़ा बरामदा, जो अद्र्ध वृत्ताकार स्तम्भों पर टिका है। कोठरियों की कतारें जहां मीनार से जुड़ती हैं, उस जगह लोहे का मजबूत द्वार है। उस वक्त 5,17,352 रुपयों की लागत से बनी इस जेल में दिन-रात चलता था दमन और बर्बरता का चक्र।

जेल में मिलने वाली यातनाओं की दास्तां वीर सावरकर की लेखनी कुछ इस तरह बयान करती है- “शरीर और मस्तिष्क को दी जाने वाली उन यातनाओं का वर्णन कौन कर सकता है? मैं अंदमान की सेल्यूलर जेल में कैदियों के कठिन जीवन की एक झलक मात्र ही दे सकता हूं। देहतोड़ मेहनत, जरूरत से बेहद कम कपड़े और भोजन। अक्सर कोड़ों की बरसात भी इतनी परेशान करने वाली नहीं थी, जितना कि लघुशंका और शौच की व्यवस्था। कैदियों को एक साथ घंटों अपनी इन प्राकृतिक आवश्यकताओं पर नियंत्रण रखना पड़ता था, और जब स्थिति असहनीय हो जाती थी तो उस बंद कोठरी के अलावा और कहीं जाने का उपाय नहीं रहता था।”

इस जेल में सावरकर बन्धुओं, पंडित परमानंद, बलवन्त राय फड़के, उल्लासकर दत्त, महर्षि अरविन्द के छोटे भाई बारीन्द्र कुमार घोष, पृथ्वी सिंह आजाद, त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती, भाई महावीर सिंह, वामन जोशी, बटुकेश्वर दत्त, सचीन्द्र नाथ सान्याल, गणेश चन्द्र घोष, लोकनाथ बल, गुरुमुख सिंह, लद्दाराम जैसे अनेक क्रांतिकारी लाए गए। इन क्रांतिकारियों को लम्बी सजाएं दी गई थीं। वीर सावरकर को तो दोहरे आजीवन कारावास की सजा मिली थी। इन सभी ने ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा दी गई अमानवीय यातनाओं को भोगा लेकिन उनके सीने में आजादी की ज्वाला जलती रही।

राजनीतिक बंदियों को निश्चित अवधि में पूरा करने के लिए जो काम दिया जाता था, उसे उस अवधि में पूरा करना असंभव होता था। और काम पूरा न होने पर मिलती थी कोड़ों की मार और भीषण यातानाएं। लोहे का वह तिकोना फ्रेम आज भी सेल्यूलर जेल में प्रवेश करते ही दायीं तरफ के बगीचे में रखा देखा जा सकता है, जिस पर हाथ-पैर बांधकर आजादी के दीवानों की देह पर कोड़े बरसाये जाते थे। पैरों तक झूलतीं लोहे की मोटी-मोटी वजनदार बेड़ियों के बोझ से दस मिनट में ही बहुत से बंदियों की सांस फूल जाती थी। जीभ सूखकर तालू से चिपक जाती थी, हाथ-पैर सुन्न हो जाते, उनमें घाव हो जाते और सिरे चकराने लगता था। ऐसी शारीरिक और मानसिक यातनाएं सहते-सहते कितने ही बन्दी विक्षिप्त हो गए थे।

अल्प और खराब भोजन तथा ब्रिटिश अत्याचारों के खिलाफ सेल्यूलर जेल में बंदियों ने तीन बार भूख हड़ताल भी की। 12 मई, 1923 को भूख हड़ताल कर बंदियों ने अपना आक्रोश जताया लेकिन इसमें तीन क्रांतिकारी शहीद हो गए थे-भाई महावीर सिंह, मोहित मोइत्रा और मोहन किशोर नामदास। दूसरी भूख हड़ताल चार साल बाद हुई तो एक महीने से ज्यादा चली थी, यह भूख हड़ताल अंतत: श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर और गांधी जी के हस्तक्षेप के बाद 24 अगस्त, 1937 को समाप्त हुई। इसके बाद सजा समाप्त करने वाले बंदियों को वापस मुख्य भूमि भेजा जाने लगा। और वहां बंद कैदियों को पढ़ने के लिए अखबार, पत्रिकाएं और पुस्तकें दी जाने लगी थीं।

अंदमान-निकोबार यानी काला-पानी की सजा। ये द्वीप अपने आप में ही एक बड़ी जेल जैसे थे। किन्तु सेल्युलर जेल इन जेलों के बीच एक बंद जेल थी। इन खुली और बंद जेलों में सजा पा रहे कैदियों की यातनाओं का कोई अंत नहीं था। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 23 मार्च, 1942 से 7 अक्तूबर 1945 तक अंदमान-निकोबार द्वीप समूह पर जापानियों का कब्जा रहा। उन्होंने बर्बरता में अंग्रेजों को पीछे छोड़ दिया। पोर्ट ब्लेयर से 15 किलोमीटर दूर स्थित हम्फ्रीगंज का शहीद स्मारक जापानियों के अमानुषिक अत्याचारों के मूक साक्षी के रूप में आज भी समय की कथा कहता दिखता है।

29 दिसम्बर, 1943 को अंतरिम भारत सरकार के अध्यक्ष के रूप में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अपने तीन दिवसीय दौरे पर अंदमान पहुंचे थे, उन्होंने सेल्यूलर जेल का निरीक्षण भी किया। तब से वहां बिना किसी जांच के बंदियों को सजा देने की प्रथा समाप्त कर दी गई। नेताजी ने अन्दमान की धरती पर पहली बार तिरंगा फहराते हुए इस द्वीप समूह को “स्वराज” तथा “शहीद” द्वीपों के नाम से पुकारा।

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