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यह हारे हुए सिपाही की कहानी है”मैंने मृत्यु का सामना किया है और अतीत में बहुत बार इसकी अवज्ञा की है। बहुत सारे नेताओं से अलग, मैं एक सैनिक, सेना का प्रमुख और अपने देश के सैन्य बलों का सर्वोच्च कमान्डर भी हूं। मैं रणक्षेत्र के बीच सन्नद्ध और हमेशा तैयार रहने वाला सिपाही हूं। भाग्य और घटनाओं ने देखा है कि मैं और पाकिस्तान आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में जूझ रहे हैं।”ये वे पंक्तियां हैं जो पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने अपनी किताब “इन द लाइन आफ फायर” में फिल्मी शैली में अपना वर्णन करते हुए लिखी हैं। उनका यह आत्मकेन्द्रित झांसा और गर्जना, कश्मीर के प्रति उनकी सनक और भारत विरोधी मानसिकता केवल उन्हीं लोगों को आश्चर्यचकित करेगी जो वास्तव में मुशर्रफ को नहीं जानते। मुशर्रफ जाल बुनने में माहिर हैं। अपने पुस्तक के 11वें अध्याय “द कारगिल वार” की शुरुआत करते हुए वे लिखते हैं, “1999 का वर्ष मेरे जीवन का सर्वाधिक घटनाओं से भरा वर्ष रहा है, मेरी हत्या के असफल प्रयास भी हुए। 1998 के अन्त और 1999 के वर्ष की घटनाओं ने मुझे नाटकीय रूप से एक सैनिक से देश के भाग्य का नेता बना दिया… अब यह समय वह सब कुछ बताने का है जो अब तक रहस्य रहा है।” और इसके बाद मुशर्रफ “रहस्य” प्रकट करते हैं कि “भारतीय आक्रमण की योजना को उन्होंने विफल किया।… इसके लिए बहुत परिश्रम किया गया… कश्मीर समस्या का हल निकालना ही कारगिल संघर्ष की कीमत है।”इसी प्रकार उन्होंने यह भी कहा है कि “15 मई तक मुजाहिदीनों ने भारतीय परिक्षेत्र के 800 वर्ग कि.मी. भू-भाग को अपने कब्जे में ले लिया…। मुझे मुजाहिदीनों के मार्च, 1999 से आगे के हर कदम की जानकारी थी…। हम अपने उपाय बिना किसी दोष के चला रहे थे जो सैन्य रणनीति और युक्ति के मुताबिक ही थे।” क्या भारत सरकार मुशर्रफ की इस स्वीकारोक्ति को संज्ञान में लेगी कि पाकिस्तानी सेना का जम्मू-कश्मीर में जिहाद चला रहे आतंकवादियों पर पूरा नियन्त्रण था?कारगिल युद्ध के समय पाकिस्तान के सैन्य अधिकारी, जो परदे के पीछे खेल खेलने में माहिर हैं, लगातार ये दावा करते रहे कि हमारी सेनाएं कारगिल संघर्ष में शामिल नहीं हैं। उन्होंने नियंत्रण रेखा अस्पष्ट होने का दावा किया और कहा कि पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई “नो मैन्स लैण्ड” तक ही सीमित थी। मुशर्रफ ने अब इस सच से पर्दा उठा दिया है कि मुजाहिदीन के रूप में पाकिस्तानी सेना ने भारतीय भूमि पर कब्जा किया था और सोच समझकर उन्होंने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया।जनरल मुशर्रफ की कहानी बताती है कि वे लाहौर वार्ता की तैयारी से अनभिज्ञ थे। इसमें उन्होंने सूचनाओं की जानकारी के प्रति अपना भोलापन ही दिखाया है। वह पाकिस्तानी सेना के कमजोर सैन्य संचालन पर भी बात नहीं करते। उन्हें अपनी अयोग्यता नहीं दिखाई पड़ती और सेना की असफलता का सारा दोष वह तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर मढ़ देते हैं। नवाज शरीफ, जिन्हें उन्होंने बाद में सत्ता से बेदखल किया, के सामने उन्होंने सेनाओं की घुसपैठ पर अपनी लाचारी और बेबसी को ही प्रकट किया था। वे लिखते है “प्रधानमंत्री ने मुझसे बहुत बार कहा कि हमें युद्ध विराम करना चाहिए। हर समय मैंने सैन्य कार्यवाही का बचाव किया और राजनीतिक निर्णय उन पर छोड़ दिया। वे मेरे कन्धे पर रखकर बन्दूक चलाना चाहते थे लेकिन मैंने उन्हें ऐसा करने नहीं दिया।”मुशर्रफ ने 3 जुलाई, 1999 को नवाज शरीफ के अमरीका जाने की भी घोर निंदा की है। वे लिखते हैं “…सेना की स्थिति अनुकूल थी। राजनीतिक निर्णय उन्हें (नवाज शरीफ को) करना था। उन्होंने युद्ध विराम का निर्णय लिया तो मुझे आश्चर्य हुआ कि वे इतनी जल्दी में क्यों हैं।” जबकि इस मुद्दे पर नवाज शरीफ ने बाद में एक वरिष्ठ भारतीय पत्रकार को बताया था कि “मुशर्रफ ने उनसे कहा था कि वे Ïक्लटन से क्यों नहीं मिलते? उनसे समझौता कराने के लिए बात क्यों नहीं करते?”मुशर्रफ तथ्यों के आधार पर पूरी तरह से गलत हैं और कारगिल संघर्ष के बारे में उनकी पूरी कहानी पाकिस्तानी सेना के काले अध्याय पर सफेदी पोतने का प्रयास है। चूंकि वे उस समय पाकिस्तानी सेना के प्रमुख थे और इस पद पर रहते हुए जो भी कदम उन्होंने उठाये वे सैनिक, कूटनीतिक और राजनीतिक दृष्टि से बहुत भयावह निकले। युद्ध में मुंह की खाने के बाद वे पाकिस्तान में अलग थलग पड़ गए थे। सेना की विश्वसनीयता घट गई थी और राजनीतिक दृष्टि से उन्हें अपमानित होना पड़ रहा था।पाकिस्तान में जब कारगिल घुसपैठ के बारे में सच उजागर हुए तब जो इस तबाही के लिए जिम्मेदार थे, उनकी लोगों ने जोरदार आलोचना की। सेना के अनेक अवकाशप्राप्त अधिकारियों ने सैन्य कार्यवाही पर आक्रोश व्यक्त किया और इसके विरुद्ध पत्रकारों तथा राजनीतिक नेताओं ने खुलकर टीका-टिप्पणी की। यह सब पाकिस्तानी अखबारों में खूब छपा। एक स्थान पर मुशर्रफ लिखते हैं-“अपनी तरफ से मैं यह कहने में शर्मिंदा हूं कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने चालाकी से यह बात फैलाई कि सेनाओं की उपलब्धि “शर्मनाक पराजय” है। कुछ लोगों ने पाकिस्तानी सेना को “दुष्ट सेना” तक कहा।” वस्तुत: यह सब पाकिस्तानी अखबारों में ही कहा गया था। मुशर्रफ ने अपनी पुस्तक में न केवल सच को छिपाया है बल्कि अपने अहम् को महत्व देते हुए लोगों को बहकाने का प्रयास किया है। इससे उनकी विश्वसनीयता पर पुन: प्रश्नचिन्ह लग गया है।9
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