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राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा।
-श्रीरामचरित मानस (लंका कांड, 104/5)
विजयादशमी और अयोध्या में दीपोत्सव
रक्षाबंधन, गणपति पूजन और दुर्गा पूजा के बाद अब विजयादशमी और दीपोत्सव की तैयारी है। विजयादशमी अर्थात महिषासुर मर्दिनी दुर्गा की पूजा, लंका विजय, रावण दहन के बाद का विजयोत्सव और फिर श्रीराम का माता सीता के साथ अयोध्या आगमन होने पर दीपोत्सव। हमारा हर त्योहार, हमारा हर पर्व असुरों और निशाचरों पर विजय का उत्सव है। श्रीराम का सारा जीवन इसी बात का प्रेरणा देता है कि खल और कुटिल के साथ कभी विनय और प्रीति नहीं हो सकती और न ही की जानी चाहिए। जो जिद्दी हो-अड़ियल हो, जो अपने शैतानी स्वभाव पर अंकुश न लगा सके, जो सत्य के मार्ग पर चलने की सबसे बड़ी बाधा बन जाए, जो माता सीता की मुक्ति के लिए अड़चन डाले, उसका निर्मूलन ही एकमात्र उपाय होता है। जब सागर ने श्रीराम को मार्ग नहीं दिया तो लक्ष्मण का क्रोध राष्ट्र का क्रोध था। “विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।” यह बात हजारों वर्ष से कही, सुनी और समझी जा रही है। जिनकी प्रवृति ही शैतानी हो उन्हें विनय से समझाया नहीं जा सकता। जब तक श्रीराम धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर शत्रु को उसके अंतिम समय का स्मरण नहीं कराते, तब तक मार्ग नहीं मिलता। और वह मार्ग वीरों के सामने स्वत: सरल और सुगम बनता चला जाता है, जिस पथ पर वीर अपने कदम बढ़ाते हैं। तो श्रीराम सेतु बनाने के लिए गिलहरी हो या नल और नील के पराक्रमी अभियंता और सहायक, पुल भी बन जाता है, रास्ता भी प्रशस्त हो जाता है, विजय भी मिल जाती है। सबसे पहले वीर हनुमान माता सीता के पास श्रीराम का संदेश लेकर गए तो सुरसा मिलनी ही थी। “जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा। सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा, अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।” वीरता भी है, पराक्रम भी है, सुरसा जैसी आसुरी शक्तियों के समक्ष अपना विराट रूप दिखाने की शक्ति भी है लेकिन उसके साथ चतुराई भी है। अगर उसने सौ योजन का मुंह फैलाया तो हनुमान जी ने तुरंत लघु रूप धारण कर लिया। यह हनुमान जी के रणकौशल का परिचायक है। लेकिन यह रणकौशल उसका सहायक बनता है जिसके पास रण में जाने का निश्चय होता है। जो हृदय में निश्चित ठान चुका होता है कि उसे अपने शत्रु को समाप्त करना है और उसके साथ वार्ता नहीं करनी है इसीलिए इतना गहरा समुद्र सुविस्तृत और व्यापक लेकिन “जलधि लांघ गए अचरज नाहीं।” वह पूरा सागर हनुमंत लांघ गए तो यह बहुत साधारण और सरल बात प्रतीत होती है। अचरज की बात नहीं लगती। अचरज की बात इसलिए नहीं लगी क्योंकि उनका निश्चय अटूट था और उनके हृदय में श्रीराम का बल था। स्मृति बनी रहे और निश्चय टिका रहे तो फिर कोई भी बाधा मार्ग नहीं रोक सकती। लंका में जाकर वीर हनुमान ने अपना कार्य पूरा किया क्योंकि जो मार्ग के शत्रु बने थे, उन्होंने ही उनके बल, पराक्रम और निश्चयात्मकता को देखकर आशीर्वाद दिया था- “प्रबिसि नगर कीजै सब काजा, हृदय राखि कोसलपुर राजा।” जब बल का विश्वास होता है तो शत्रु भी हट जाते हैं। लंका में जिन्होंने वीर हनुमान का विरोध किया, उनकी दुर्गति हुई। “जिन मोहि मारा तिन मैं मारे”, हनुमंत ने कहा कि जिन्होंने मुझे मारा उन्हें मैंने भी मारा। हनुमान जी ने यह नहीं कहा कि जिन्होंने मुझे मारा उनके साथ मैंने बातचीत की कोशिश की। ये हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। और फिर लंका विजय कैसे हुई यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है। वह प्रसंग आज पूर्णत: भारतभूमि की स्थिति के लिए प्रासंगिक है। आसुरी शक्तियां चारों ओर से रामभक्तों पर प्रहार कर रही हैं। श्रीराम के आदर्श, श्रीराम के विचार, श्रीराम के प्रतीक, यहां तक कि श्रीराम जन्मस्थली भी असुरों के प्रहारों से मुक्त नहीं है। कितनी लज्जा की बात है कि श्रीराम के देश के शासक इस बात पर भी विवाद और मतभेद रखते हैं कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि के मंदिर को चारों ओर से बुलेट प्रूफ दीवारों से घेरा जाए या नहीं। और न घेरने का फैसला इसलिए किया जाता है कि मुसलमान नाराज न हों। धिक्कार है उनके इस फैसले पर और धिक्कार है उनकी आत्मा की दुर्बलता पर। आखिरकार वे जो इस फैसले में शामिल हैं और इस फैसले के क्रियान्वयन में जुटे हैं, उनमें अधिकांशत: हिन्दू ही होंगे। व दीपावली भी मनाएंगे, श्रीराम का पूजन भी करेंगे। लेकिन किस मुंह से वे श्रीराम की जयकार करेंगे? यह समय आत्मविस्मृति को दूर करने का है। “हृदय राखि कोसलपुर राजा”, यह पंक्ति हमेशा यही याद दिलाती है कि श्रीराम हृदय में हैं तो सब काम सुगम है। इसलिए हम दुर्गा पूजन करते समय, विजयादशमी मनाते समय, रावण का पुतला जलाते समय, श्रीराम की प्रत्येक जय-जयकार करते समय एक बात सदैव याद रखें कि यह मात्र कर्मकाण्ड न बने। ऐसा प्रत्येक कार्य हमें श्रीराम के प्रति कुछ करने का भी आदेश देता है। क्या हम वह आदेश सुन रहे हैं? आज श्रीराम की अयोध्या सूनी है, श्रीरामजन्मभूमि उपेक्षा, तिरस्कार, बम विस्फोटों की शिकार हुई है। क्या रामभक्तों का यह पहला कर्तव्य नहीं है कि अपने घर में दीपोत्सव से पूर्व श्रीराम की अयोध्या में दीपोत्सव का अनुकूल वातावरण बनाएं। श्रीराम का तिलक करने वाले वे तमाम राजनेता, जो रामलीलाओं में जाएंगे और रावण की ओर धनुष का पहला तीर छोड़ेंगे, घर लौटकर या वहां जाने से पहले स्वयं से सवाल करें कि वे जो कर रहे हैं क्या उस कार्य के निहित मर्म को पहचानते हैं? इस सवाल का जवाब किसी संगठन, पार्टी या आन्दोलन को देने से पहले उस भारतीय को देना होगा, जो स्वयं को श्रीराम की परम्परा का उत्तराधिकारी और श्रीराम के देश का नागरिक मानता है। यह होगा तभी विजयादशमी और दीपोत्सव का प्रकाश पर्व सार्थक होगा।
आप सबको विजयादशमी और दीपावली की हार्दिक मंगलकामनाएं।
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