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हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भतेजस्विनीकितनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। आपके आसपास भी ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बल पर समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गईं। क्या आपका परिचय ऐसी किसी महिला से हुआ है? यदि हां, तो उनके और उनके कार्य के बारे में 250 शब्दों में सचित्र जानकारी हमें लिख भेजें। प्रकाशन हेतु चुनी गईं श्रेष्ठ प्रविष्टि पर 500 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।उषा कृष्णस्वामीरंगों से बिखरा जीवन में उजास – आलोक गोस्वामीअपने बनाए रंग-बिरंगे फूलों सेखिली साड़ी में उषा कृष्णस्वामीहरा, पीला, लाल, जामुनी…..- किस तरह किसी के जीवन को रंग-बिंरगी आभा प्रदान करते हैं इसकी जीती-जागती मिसाल का नाम है उषा कृष्णस्वामी। बंगलौर में सेना विहार के अपने खूबसूरत घर में अपने पति कर्नल कृष्णस्वामी (सेवानिवृत्त) और दो बेटों के साथ रह रहीं उषा को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि आज से चार साल पहले वे कैंसर रूपी दानव से लड़ी थीं और उस पर विजय प्राप्त की थी। यह कथा है एक ऐसी महिला की जो कलाकार है, खिलाड़ी है, वक्ता है, व्यवसायी है और सबसे बढ़कर एक पत्नी और मां है। यह कथा है ऐसी महिला की जिसने अपने जीवन पर आए भीषण संकट को हंसते-हंसते झेला और न केवल झेला बल्कि उससे और ताकतवर होकर उभरी है।बात 1997 की है। उषा की उम्र तब यही कोई 35 वर्ष रही होगी। उनके पति दिल्ली में सेना की इंजीनियरिंग कोर में मेजर पद पर तैनात थे। नोएडा में उनका घर था और उषा वहीं बाल भारती पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थीं। उनके दोनों बच्चे अभी छोटे थे, स्कूल जाते थे। उषा सेना के आयोजनों के संचालन में भी आगे रहती थीं, बैडमिंटन खेलने में तो कोई उनका सानी नहीं था और रंगों की चितेरी तो वे थी हीं। बस, यूं हंसी-खुशी दिन बीत रहे थे कि अचानक एक दिन कुछ जांच करने के बाद डाक्टर ने बताया कि उन्हें स्तन कैंसर है। उषा पल भर के लिए धक् से रह गईं, लेकिन अगले ही क्षण हिम्मत के साथ उठीं और डाक्टर से कहा, इलाज शुरू करिए। कैंसर रोग का इलाज कष्टकारी होता है। कीमोथैरेपी यानी कई तेज दवाओं का मिश्रण बूंद-बूंद करके शरीर में उतारा जाता है ताकि इस विकट रोग के जीवाणुओं को मारा जाए। हर बीस-बाइस दिन बाद एक दिन अस्पताल में इसके लिए भर्ती होना पड़ता था। उषा का इलाज करने वाले दिल्ली के सेना अस्पताल के चिकित्सक उनकी जीवटता देखकर आश्चर्य करते थे। वे उषा को आराम की सलाह देते पर उनका स्कूल जाकर पढ़ाने का क्रम नहीं टूटा। कीमोथैरेपी के एक-दो नहीं कई दौर चले। शरीर पर असर दिखने लगा, बाल झड़ गए, शरीर की निरोधक शक्ति घटती गई, बेहद कमजोरी और बेचैनी महसूस हुई। कीमोथैरेपी के बाद सर्जरी करके कैंसर की गांठ निकाली गई। बहुत कष्टदायी थी पूरी प्रक्रिया। बहरहाल, 6-7 महीने तक इलाज चला। इस बीच, जैसा होता है, लोगों ने उषा को न जाने कितनी घरेलू दवाएं और नुस्खे बताए पर उन्होंने अपने डाक्टर पर ही पूरा भरोसा रखा।”स्त्री” स्तम्भ के लिए सामग्री, टिप्पणियांइस पते पर भेजें-“स्त्री” स्तम्भ द्वारा,सम्पादक, पाञ्चजन्य,संस्कृति भवन, देशबन्धु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-55मेजर कृष्णस्वामी का कोटा स्थानांतरण हो गया और उधर कारगिल की लड़ाई भी शुरू हुई। सीमा से बुलावा आया और मेजर कारगिल के मोर्चे पर तैनात हो गए। उषा घर पर दोनों बच्चों की देखभाल करतीं और चित्रकारी करतीं। सब-कुछ पहले की तरह व्यवस्थित होता जा रहा था कि अचानक बंगलौर में छुट्टियां बिताने गई उषा को वहां सेंट जोन्स अस्पताल में परीक्षण के बाद कैंसर विशेषज्ञ ने बताया कि कैंसर का जीवाणु फिर फैलने लगा है। उषा के पैरों तले जमीन ही खिसक गई। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते थे, इतना लंबा और कष्टदायक उपचार कराए। फिर एक बार! लेकिन इस बार भी उषा ने दिल मजबूत करके इस रोग से लड़ने का फैसला किया। 30 दिन तक रेडियोथैरेपी हुई जिसमें विशेष प्रकार की रोशनी संक्रमित अंग पर डाली जाती है। पुन: कीमोथैरेपी की बहुत तेज “डोज” दी गई, दवाएं अलग से खानी पड़ती थीं। 6-7 माह तक इलाज चला और तब डाक्टर ने कहा कि अब सब ठीक है।दो-दो बार कैंसर से संघर्ष करके जीवन को पूरे उत्साह से आगे बढ़ाने वाली उषा का एक ही शौक और वह है साड़ियों और महिलाओं के पहनने के अन्य कपड़ों पर रंगों से खूबसूरत डिजाइन बनाना। बातचीत में उषा ने बताया, “जब 10वीं कक्षा में थी तभी से चित्रकारी का शौक रहा। मैंने सितार वादन में डिप्लोमा भी किया, गाती भी थी। देहरादून में जिला स्तर की टेबल टेनिस खिलाड़ी थी। बैडमिंटन में भी काफी मेडल जीते हैं।” 1982 में शौक के रूप में साड़ी पर रंग भरी तूलिका चलाना शुरू किया था उषा ने। रंग-बिरंगे फूलों वाले डिजाइन पहले फेवीक्रिल रंगों से बनाती थीं, लेकिन आगे चलकर उन्होंने “डाई” रंगों का इस्तेमाल शुरू कर दिया, क्योंकि वे ज्यादा टिकाऊ होते हैं। कैंसर से जूझती उषा ने खुद को व्यस्त रखने के लिए अपना पूरा ध्यान इसी ओर लगा दिया था। शुरुआत उन्होंने अपनी ही एक साड़ी पर चीनी गुलाब के फूल बनाकर की थी। साड़ी ऐसी बनी कि जब उषा उसे पहनकर सेना के एक कार्यक्रम में गईं तो महिलाएं उस साड़ी पर की गई रंग-बिरंगी चित्रकारी को देखकर बहुत प्रभावित हुईं और जब पता चला कि वह डिजाइन उषा ने खुद ही बनाई थी तब तो उनके पास ऐसी साड़ियों के चाहने वाले जुटने लगे। देखते-देखते उषा इतनी व्यस्त हो गईं कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि उनको कोई घातक रोग भी है। रंगों की दुनिया में गहरे उतरते हुए उषा ने जीवन में एक पुलक का अनुभव किया। वे बताती हैं, “मैं ईश्वर और भाग्य दोनों को बहुत मानती हूं। ईश्वर ने मुझे इस कष्ट को सहकर पार आने की ताकत दी है और भाग्य ने मुझे आज ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया है कि देशभर के मशहूर बुटीकों में मेरे द्वारा रंग-बिरंगे फूलों से खिले कपड़े “एक्सोटिक” नाम से मिलते हैं।” चूंकि उनका पूरा काम हाथ से ही होता है, अत: हर साड़ी में लगातार 6-7 घंटे की मेहनत के बाद एक नया ही डिजाइन उभरता है।उषा के पति कर्नल पद से सेवानिवृत्ति ले चुके हैं। बड़ा बेटा 19 साल का है, इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है और छोटा अभी 8वीं में है। उषा का न कोई दफ्तर है, न कोई शो रूम। सारा काम घर पर ही होता है, अकेली ही सब संभालती हैं, साड़ियों पर अपनी कल्पना की उड़ान से रंग-बिरंगे फूल बनाना और उन्हें उनके चाहने वालों तक भेजना।पीछे मुड़कर देखती हैं तो कैसा महसूस होता है? यह पूछने पर उषा कृष्णस्वामी जोर से हंसती हैं और कहती हैं, “अगर इंसान पक्का इरादा कर ले और भगवान पर भरोसा रखे तो फिर कुछ मुश्किल नहीं। जब मैं कैंसर की पीड़ा झेल रही थी तब यह सोचकर खुद को समझाती थी कि मुझसे भी ज्यादा गंभीर समस्या से कितने ही लोग जूझ रहे हैं।” उषा उस समय भी जवानों की पत्नियों को गाहे-बगाहे सलाह देती थीं कि कैसे कैंसर जैसे रोग की स्वयं जांच करते रहनी चाहिए। वह कहती हैं कि “यह घातक रोग अगर शुरुआत में ही पहचान लिया जाए तो इसका इलाज संभव होता है अत: सावधानी रखें और अपने डाक्टर की सलाह पर ही चलें।” ऊषा कृष्णस्वामी से इस पते पर संपर्क किया जा सकता है-उषा कृष्णस्वामीद्वारा सम्पादक, पाञ्चजन्यसंस्कृति भवन, देशबन्धु गुप्ता मार्ग,झण्डेवाला, नई दिल्ली-11005519
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