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राजनीति की बिसात
-फिरदौस खान
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने पिछले कुछ दिनों में अनेक अवसरों पर कहा है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक का दर्जा हर हाल में बहाल रखा जाएगा, भले ही इसके लिए सरकार को संविधान में संशोधन क्यों न करना पड़े। प्रधानमंत्री के इस बयान से राजनीतिक गलियारों में हलचल तेज हो गई है। दरअसल गत 18 अप्रैल को दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी की अगुवाई में देश के प्रमुख मुस्लिम संगठनों के 27 सदस्यीय एक प्रतिनिधिमंडल ने डा. मनमोहन सिंह को नौ सूत्रीय ज्ञापन सौंपा था। इस ज्ञापन में मुस्लिमों की शैक्षिक-आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने संबंधी अन्य मांगों के अलावा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक दर्जा बहाल रखने की भी पुरजोर मांग की गई थी। इसी मांग को प्राथमिकता देते हुए प्रधानमंत्री ने संविधान में संशोधन कराने तक की बात कह डाली। उन्होंने अन्य मांगों को भी गंभीरता से लेने की बात कही है। साथ ही प्रधानमंत्री ने यह भी माना कि अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान के लिए पूर्व की केन्द्र सरकारों ने कोई कारगर कदम नहीं उठाए।
डा. मनमोहन सिंह की इस बात के लिए तो उनकी सराहना करनी ही पड़ेगी कि उन्होंने अपनी ही पार्टी की पूर्व सरकारों की इस मामले में पोल खोल दी। इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि कांग्रेस ने मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक के रूप में ही इस्तेमाल किया, पर अब सवाल यह है कि क्या इस बार कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार मुसलमानों की समस्याओं को वास्तव में गंभीरता से लेगी? यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि चुनाव का माहौल बनते ही कुछ राजनीतिक पार्टियां ही नहीं, मुसलमानों का मसीहा होने का दावा करने वाले नेताओं को भी मुसलमानों की तकलीफें याद आने लगती हैं। यह मुसलमानों का दुर्भाग्य ही है कि आज भी देश में एक भी ऐसा मुस्लिम नेता नहीं है, जिसे वे अपना “नेता” मान सकें। इसी के चलते अपनी समस्याओं को हल कराने की आस में मुसलमानों को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव या लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान की तरफ ही देखना पड़ता है। पिछले कई दशकों से इन लोगों ने मुसलमानों को जो लालच देकर अपना स्वार्थ पूरा किया, वही काम अब मुस्लिम संगठन भी करना चाहते हैं।
मुसलमानों में रूढ़ीवादी प्रथाएं आज भी कायम हैं। इन मुस्लिम नेताओं का ध्यान कभी इस तरफ क्यों नहीं गया? शरीयत के नाम पर महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद रखना कहां का इंसाफ है? कुरान का मनमाना अनुवाद कर कठमुल्ला अपनी “दुकानें” चला रहे हैं। कभी मुस्लिम संगठनों ने इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाई? मुसलमानों को जागरुक करने के लिए आज तक ऐसी कोई मुहिम नहीं चलाई गई, जिससे मुसलमानों को, खासकर मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में सही जानकारी हासिल हो सके?
यह बात भी गले नहीं उतरती कि शैक्षिक और आर्थिक उत्थान मजहब के आधार पर मिले आरक्षण से ही हो सकता है। हकीकत में आरक्षण का फायदा आमतौर पर उच्च वर्ग ही उठाता है। जब तक आरक्षण मजहब या जाति के आधार पर होगा, तब तक इसके लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं है। यह कहना गलत न होगा कि मुसमलानों की समस्याओं को उचित तरीके से सामने लाया ही नहीं गया। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में मुसलमानों की साक्षरता दर 51.1 फीसदी है, जो कि अन्य समुदायों के मुकाबले काफी कम है। देश में आमतौर पर सभी वर्गों ने अपने समुदाय के लोगों की तरक्की के लिए काफी काम किया है, लेकिन मुस्लिम समाज का ऐसा कोई संगठन या नेता नजर नहीं आता जिसने सिवाय राजनीति करने के जमीनी स्तर पर कोई उल्लेखनीय काम किया हो।
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