7 नवम्बर, 1966 का वह काला दिन
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7 नवम्बर, 1966 का वह काला दिन

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May 11, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 May 2006 00:00:00

-राकेश उपाध्याय

“दुर्भाग्य है कि आज “स्वराज्य” में भी गोरक्षा आन्दोलन चलाना पड़ रहा है। पर सन्तोष की बात यह है कि इसमें सभी सम्प्रदायों और मतों के लोग सम्मिलित हैं और सभी एक स्वर से गोहत्या बन्दी का कानून बनाने की मांग सरकार से कर रहे हैं। कांग्रेसी, सनातनधर्मी, आर्य समाजी, हिन्दू महासभा के लोग, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सभी आश्रमों, चारों वर्णों एवं वर्णेत्तर लोग, हमारे सिख भाई आदि सभी इस आन्दोलन में सम्मिलित हुए हैं। हमारे महान शंकराचार्य, महामण्डलेश्वर, रामानुज सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदायों के आचार्यगण, जैन मत के आचार्य, नामधारी सिख, अनेक आदरणीय लोकनायक गण, मुसलमान और ईसाई भी इस आंदोलन में भाग ले रहे हैं।” 7 नवम्बर, 1966 को गोरक्षा कानून बनाने की मांग को लेकर संसद भवन के समक्ष आयोजित विराट प्रदर्शन के बारे में पूरे देश की भावनाओं और एकजुटता को प्रख्यात पत्रिका कल्याण के सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार “भाई जी” ने कुछ इन्हीं शब्दों में रेखांकित किया था। “भाई जी” सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान समिति की सर्वोच्च संचालन समिति के सदस्य भी थे। उनके अतिरिक्त पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ, धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी, संत प्रभुदत्त ब्राह्मचारी, जैन मुनि सुशील कुमार, श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य “श्री गुरुजी” एवं पंजाब के महंत श्री गुरचरण दास सर्वोच्च संचालन समिति के सदस्य थे। “भाई जी” सहित देश के हजारों गण्यमान्य सन्तों ने संसद भवन के समक्ष गोभक्तों पर किए गए भीषण पुलिसिया दमन को अपनी आंखों से देखा और सहा था। घटना का विवरण देते हुए “भाई जी” लिखते हैं- “कुछ लोगों के मनों में पैशाचिक, राक्षसी और अवांछनीय भावनाएं खेल रही थीं। सरकारी अधिकारी और हमारी पुलिस के लोग विकृत-बुद्धि हो गए। बिना कोई सूचना- चेतावनी के निरीह-निर्दोष, शांत चित्त नर-नारियों पर लाठियां चलवायी गईं। अश्रु गैस के गोले बरसाये गए और अकारण ही बेशुमार गोलियां बरसाकर क्रूर हत्याएं की गईं।….. इस घृणित अपराध का दोष मढ़ा गया सबमें एक आत्मा देखने वाले साधु-संतों के सिर! यहां तक कहा गया कि यह सब पूर्व योजना के अनुसार हुआ….। लेकिन मैं कहता हूं कि दस लाख आदमियों ने मार-काट के लिए, लूट-पाट के लिए पूर्व नियोजित धावा किया होता तो क्या वे निहत्थे आते? क्या पचास हजार स्त्रियों को लेकर मैदान में आते? क्या दुधमुंहे शिशुओं को गोद में उठाए देवियां और लाठी टेकती बूढ़ी दादियां इस प्रदर्शन में आतीं?”

श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार “भाई जी” के सवालों को तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नन्दा ने बाद में अपने एक वक्तव्य में सही करार दिया। 22 नवम्बर, 1966 को दैनिक आज (वाराणसी) में छपे वक्तव्य में उन्होंने कहा- “मैं यह मानने के लिए कदापि तैयार नहीं हूं कि इन घटनाओं के पीछे गोहत्या विरोधी प्रदर्शनकारियों का हाथ है। हमारे महान धर्माचार्यों के हृदय में हिंसा और तोड़-फोड़ की बात हो ही नहीं सकती।” तो फिर हिंसा भड़की कैसे? इसका उत्तर देते हुए महामण्डलेश्वर स्वामी प्रकाशानन्द जी कहते हैं- “भारत सरकार ने साधु-संतों और हिन्दू जनता के साथ हिंसक और क्रूर व्यवहार किया। उस दिन मंच के बाईं ओर सरकार समर्थक गुण्डे ही बैठकर हल्ला मचा रहे थे। नगर में भी इन्हीं गुण्डों ने शांति भंग की।…. मैंने अपनी आंखों से देखा कि साधुओं को उठा-उठाकर, खड़ा करके गोलियां मारी जा रही थीं। दिल्ली में कफ्र्यू लगा दिया गया। कितने ही लोगों के शवों को ट्रकों में भरकर जाने कहां ले जाया गया….। इसे देखकर मुझे तो नादिर शाह और चंगेज खां के अत्याचारों की स्मृति हो आई।”

उस हृदय विदारक काण्ड में कितने लोग मारे गए, यह सवाल आज भी अनुत्तरित है। सरकार ने तो मृतकों की संख्या 8 बताई लेकिन लाला रामगोपाल “शाल वाले” (तत्कालीन संसद सदस्य) के अनुसार संख्या इससे कहीं ज्यादा थी। अपने दावे के प्रमाण में उन्होंने जो संसद में कहा और लिखा है, उसके अनुसार, “सरकार ने 7 नवम्बर, 1966 को 3 बजे अपराह्न से दिल्ली में 48 घंटे का कफ्र्यू लगा दिया। इस कफ्र्यू का उद्देश्य ही अवैध ढंग से लाशों को ठिकाने लगाना था। हजारों लोगों को जेल के भीतर इसलिए ठूंस दिया गया ताकि सब कुछ निरापद ढंग से निपटाया जा सके।”

वस्तुत: 7 नवम्बर के गोली काण्ड ने कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस नेतृत्व के छल और सेकुलर चेहरे को पहली बार हिन्दू समाज के सामने बेनकाब किया। धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी ने तब इस सन्दर्भ में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था- “इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार जनतंत्र के सभी सिद्धान्तों को ताक पर रखकर देश की 85 प्रतिशत जनता की मांग की न केवल उपेक्षा कर रही है प्रत्युत शक्ति के साथ येन-केन प्रकारेण उसे दबा देने पर तुली है।”

7 नवम्बर को दिल्ली में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए सांसद मधु लिमये ने इसके लिए कम्युनिस्ट नेताओं की ओर इशारा किया था। पहले लोकसभा में और बाद में पत्रकारों को उन्होंने बताया, “दिल्ली में उपद्रव कराने के लिए कलकत्ता से गुंडे बुलाए गए थे। 7 नवम्बर की घटना की पीछे श्री अतुल्य घोष और श्री एस.के. पाटिल का हाथ है।” प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों में भी जगह-जगह विद्यार्थियों-युवकों द्वारा तोड़-फोड़ करने की बात कही गई। पुलिस रपट के मुताबिक, लगभग 11 बजे विद्यार्थियों के एक समूह ने डिलाइट सिनेमा, इरविन अस्पताल, रणजीत होटल, दो बिजली घर, भारत सरकार का प्रेस, सुपर बाजार में तोड़-फोड़ की।…. जहां-जहां तोड़-फोड़ प्रारम्भ हुई, वे सभी क्षेत्र प्रदर्शनकारियों के जुलूस मार्ग से अलग थे।” यही तथाकथित विद्यार्थी चारों ओर तोड़-फोड़ करते हुए संसद भवन पहुंचे। उस समय वहां प्रदर्शन को संसद सदस्य प्रकाशवीर शास्त्री सम्बोधित कर रहे थे। श्री शास्त्री के उद्बोधन के बाद मंच पर भाषण देने के लिए श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने माइक संभाला ही था कि पुलिस का तांडव प्रारम्भ हो गया। 1967 में दिल्ली से प्रकाशित “गोधन मासिक” के दीपावली विशेषांक में प्रकाश वीर शास्त्री लिखते हैं- “…..मैं मंच पर था। तभी मंच के पीछे गड़बड़ शुरु हुई। मैं श्री कमल नयन बजाज के साथ मंच से नीचे उतरने लगा तो एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पुलिस वेष में खड़े एक व्यक्ति को देखकर चिल्लाया कि अरे…. तू पुलिस वेष में कैसे? जब कमलनयन जी ने उन पुलिस अधिकारी से पूछा कि क्या आप इसे जानते हैं? तो उन्होंने उत्तर दिया कि यह तो दिल्ली का नम्बरी गुण्डा है।” स्पष्ट है कि गोरक्षा के महान प्रदर्शन को असफल करने के लिए सुनियोजित साजिश रची गई थी। 7 नवम्बर को दोपहर के 1 बजे प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध पुलिस कार्रवाई प्रारंभ हुई, 3 बजते-बजते समूची दिल्ली में कफ्र्यू की घोषणा कर दी गयी। उधर भोजनावकाश के बाद संसद में इस घटना पर जमकर शोर शराबा हुआ।

लोकसभा में स्वामी रामेश्वरानन्द ने स्थगन प्रस्ताव लाकर जब इस मुद्दे को उठाना चाहा तो अध्यक्ष ने अनुमति नहीं दी। स्वामी रामेश्वरानंद इस पर बहस के लिए अड़ गए। उनके समर्थन में श्री हुकुमचन्द्र कछवाय तथा मधु लिमये भी खड़े हुए। बाद में श्री रामेश्वरानन्द को सदन से निलम्बित कर आधे घण्टे के लिए कार्रवाई स्थगित कर दी गई। सदन की बैठक जब पुन: प्रारम्भ हुई तो श्री हुकुम चन्द ने कहा- “सदन के बाहर गोली चल रही है, महात्माओं को मारा जा रहा है। संसद सदस्य अटल बिहारी वाजपेयी तक घायल हो गए हैं। मुझ पर भी पुलिस ने लाठियां चलाई हैं, ऐसी अवस्था में सदन की कार्रवाई कैसे चलेगी।” श्री रामसेवक यादव भी श्री हुकुम चंद के समर्थन में खड़े हो गए। संसदीय कार्यमंत्री सत्य नारायण सिन्हा ने तब कहा कि सरकार शाम साढ़े पांच बजे वक्तव्य देगी। इस पर प्रतिवाद करते हुए श्री बृजराज सिंह ने कहा कि जब बाहर लाशें हटा दी जाएंगी, तब वक्तव्य देंगे? अन्तत: शाम साढ़े पांच बजे गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नन्दा ने सदन के समक्ष सफाई प्रस्तुत करते हुए कहा कि हिंसक लोगों को रोकने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी है।

1966 और अब 2006, भारतीय राजनीति और संसद ने कितने ही उतार-चढ़ाव देखे। गोभक्त आज भी इंतजार कर रहे हैं कि भारत की संसद क्या कभी गोरक्षा के लिए केन्द्रीय कानून बना सकेगी? (सन्दर्भ-संतों एवं नेताओं के उद्धृत वक्तव्यों के लिए गोधन मासिक, 3 सदर बाजार, दिल्ली के दीपावली-1967 एवं दीपावली-1968, कल्याण पत्रिका-गोरखपुर व कुछ अन्य पत्रिकाओं के अंकों से सामग्री साभार ली गई है।)

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