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स्त्री

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May 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2006 00:00:00

हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भ”क्या भारतीय पुरुष स्वभावत: स्त्री विरोधी होता है”विषयक बहस पर आमंत्रित विचारों की द्वितीय कड़ीभारतीय पुरुष स्त्री-विरोधी नहींया देवी सर्वेभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।यह विडम्बना ही है कि “शक्तिरूपेण संस्थिता” के रूप में मातृ-शक्ति की पूजा करने वाले देश के पुरुषों पर यह लांछन लगाया जाए कि वे स्त्री-विरोधी हैं। यदि यहां के पुरुष स्त्री-विरोधी होते तो भारत में रानी लक्ष्मीबाई, महारानी अहिल्याबाई होल्कर, दुर्गावती, यामिनी कृष्णमूर्ति, सोनल मानसिंह, संतोष यादव, कल्पना चावला, आरती साहा, अंजली भागवत, डा. किरण बेदी, कर्णम मल्लेश्वरी, पी.टी. उषा, चोकिला अय्यर (भारत की प्रथम महिला विदेश सचिव) आदि महिलाएं सफलता के उन आयामों को शायद ही छू पातीं जो उन्होंने छुए हैं। राजनीति, धर्म, समाज, सेना, पुलिस, खेल आदि क्षेत्रों में जो स्त्रियां नेतृत्व कर रही हैं वे अधिकांशत: पुरुषों के सहयोग से ही आगे आई हैं। आदिकाल से लेकर वर्तमान तक भारतीय पुरुषों ने नारी को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया है। फिर वह चाहे याज्ञवल्क्य ऋषि हों जिन्होंने अपनी पत्नी मैत्रेयी को ब्राह्मज्ञान कराया या फिर ऋषि अत्रि-मां अनुसुइया, जिनसे भगवान राम और मां सीता ने भी मार्गदर्शन प्राप्त किया। माता अनुसुइया को आखिर इतना महान दर्जा कैसे मिला? और ऐसे उदाहरण कोई एक-दो नहीं वरन् इतने हैं कि उन्हें सूचीबद्ध करना भी कठिन है। इस जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। स्त्री के बिना पुरुष वैसे ही अधूरा है जैसे पानी के बिना नदी। इसी बात को पुष्ट करते हुए तुलसीदास जी ने लिखा है कि -“जिय बिनु देह नदी बिनु वारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ।।”कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक नारी का हाथ होता है, ठीक वैसे ही हर सफल नारी के पीछे भी एक पुरुष का हाथ होता है, चाहे वह पिता, भाई या पति किसी भी रूप में हो। जीवन को शांतिपूर्वक व्यतीत करने के लिए आवश्यक है कि स्त्री और पुरुष दोनों के जीवन में सामञ्जस्य हो। कहा जाता है कि हर सीप में मोती नहीं होता, ठीक वैसे ही सभी पुरुष याज्ञवल्क्य ऋषि नहीं होते। कहीं-कहीं अपवाद स्वरूप बातें देखने को भी मिलती हैं। कुछ तथाकथित लोग विभिन्न संगठन बनाकर एक सोची समझी रणनीति के तहत कुछ मुद्दों को राई का पहाड़ बना देते हैं। भारतीय पुरुष स्त्री को दासी नहीं वरन् अर्धांगिनी का दर्जा देता है, कुछेक संगठन अपने हित के लिए स्त्री को “दासी” बनाकर प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि भारतीय पुरुष स्त्री विरोधी मानसिकता के हैं।अदिति शर्माद्वारा-बी.के. शर्मा, 27 सी, पंचवटी,दिल्ली छावनी-110010अहं से बनता है स्त्री विरोधी स्वभावभारतीय पुरुष स्वभावत: स्त्री-विरोधी नहीं होता है बल्कि वह अपने अहं के कारण ऐसा बन जाता है। जन्म से कोई भी किसी का विरोधी नहीं होता, वस्तुत: यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह जिस घर में पैदा हुआ है, वहां का संस्कार कैसा है। घर में किसको ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है? मां को ज्यादा सम्मान मिलता है या पिता को? अगर पिता ने मां को हमेशा लताड़ा है या प्रताड़ना दी है तो निश्चय ही उस माहौल में पैदा होने वाला बालक यह सब देखता है और ग्रहण करता है। और वह धीरे-धीरे स्त्री का हर जगह विरोध करने लग जाता है। बचपन से विकसित इस स्वभाव के कारण वह चाहते हुए भी स्त्री का सम्मान नहीं कर पाता। बराबर का दर्जा देने पर वह अपने आपको नीचा महसूस करता है। वास्तव में वर्तमान समय में पुरुषों का अहं तोड़ने एवं अपने अधिकारों के लिए स्त्रियों को डटकर संघर्ष करने की जरूरत है। जब तक स्त्री-पुरुष एक दूसरे की भावनाओं की कद्र नहीं करेंगे तब तक वे अपने परिवार को खुशहाल नहीं बना पाएंगे।जनकबी-9, 27-28, सेक्टर-5, रोहिणी (दिल्ली)निर्णय का अधिकार मिले तो बदलेगी तस्वीरस्त्री सशक्ति-करणआन्दोलन के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है कि महिलाओं पर बहुत जुल्म हो रहे हैं, यह तस्वीर का मात्र एक पहलू है। स्त्री-पुरुष सम्बंध नि:संदेह परिस्थिति सापेक्ष होते हैं। जाति, धर्म, सम्प्रदाय, इलाका, भाषा, शिक्षा, सौंदर्य, वर्ग, रोजगार का स्वरूप और विचारधारा के साथ-साथ आंशिक रूप से राजनीति भी इसे अपने-अपने स्तर पर प्रभावित करती है। तमाम विभिन्नताओं और परिवर्तनों के बीच अगर स्थिर है तो पुरुष का जन्मजात अहं और सदियों से चली आ रही शास्त्रोक्त मान्यताएं। कहने की जरूरत नहीं कि शास्त्र निर्माता पुरुष ही था। स्त्री देह की कोमलता पुरुषों को स्तुति का उपजीव्य लगी पर इसी आधार पर वे उसके मानसिक ऐश्वर्य को अधिकांशत: स्वीकृति नहीं दे पाए! वैदिक युग की मुट्ठी भर ऋषिकाओं के हवाले से विशाल स्त्री वर्ग के दयनीय अतीत को झुठलाया नहीं जा सकता। रीतिकाल आते-आते स्त्री मात्र मांस का लोथड़ा बनकर रह गई।दूसरा पाश्र्व है 21वीं सदी का। शिक्षा, मीडिया, आर्थिक स्वावलम्बन, ज्ञान के विस्फोट और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अतिरेक का। नारी अस्मिता से जुड़े अनगिनत सवालों का यह संक्रमण काल है। जहां मीडिया में बिकनी धारिकाओं, गली से लेकर ब्राह्माण्ड तक की सुन्दरियों, सिने तारिकाओं, रिमिक्स बालाओं और अमर्यादित सेक्स को वर्जना न मानने वाली ललनाओं का एक समूह है वहीं एक विशाल वर्ग कामकाजी महिलाओं का है जो घर और दफ्तर दोनों स्थानों पर पूरी क्षमता से व्यक्त हो रही हैं। परम्परा और आधुनिकता की रस्साकशी में सन्तुलन साधती हुई अपने कर्म-पथ पर बढ़ रही हैं। एक छोटा वर्ग अति महत्वाकांक्षी महिलाओं का है जो “कैरियर” की खातिर कुछ भी करने को तैयार हैं। भारत में चूल्हा-चौका, खाना, झाड़ू-पोंछा कर केवल बच्चे पालने वाली स्त्रियों का वर्ग सबसे बड़ा था, है, और रहेगा। स्त्री-पुरुष संबंधों को परिभाषित करने वाले अन्य घटक भी हैं-यथा केरल का मातृ-सत्तात्मक समाज, उत्तरपूर्व का बहुपतित्व, हरियाणा, उ.प्र., बिहार, पंजाब आदि में कन्या भ्रूण हत्या, दहेज, जाति प्रथा, बेरोजगारी और अन्तत: हमारी सरकार। अपने देश में स्त्री आश्रित की भूमिका में ज्यादा है। निर्णय का अधिकार आज भी उसके पास नहीं है। केवल महानगरों की चकाचौंध में उसके वर्चस्व की तस्वीर से नतीजा निकालना ठीक नहीं। क्या भूला जा सकता है यह सत्य कि 80 प्रतिशत हिन्दुस्थान गांवों में बसता है? स्त्री की दशा ग्रामीण अंचल में “आंचल में है दूध और आंखों में पानी” वाली ही है।पुरुष संसार में सर्वत्र एक सा है। वह स्त्री-विरोधी नहीं पर समर्थक भी नहीं। उसका समर्थन देवीत्व के हक में ज्यादा है, मानवीयत्व के लिए कम। नैसर्गिक रूप से स्त्री पुरुष पूरक इकाई हैं किन्तु पूरकत्व का अनुपात सदा गड़बड़ रहा है।निष्कर्ष यह कि इस दौर में स्त्री-पुरुष संबंध अत्यधिक रूप से प्रभावित हुए हैं। भारतीय पुरुष स्त्री विरोधी नहीं, वह आत्म समर्थक है इसलिए वह निर्णय का अधिकार अपने पास सदा सुरक्षित रखता आया है। कितने बच्चों को जन्म देना हैं, वे बेटे होंगे या बेटियां, उनकी शिक्षा-दीक्षा कहां और किस तरह की हो, कौन से रीति-रिवाजों का पालन किया जाए और वोट किसे दिया जाए, कुछ इस तरह के फैसले करने में जिस दिन स्त्री स्वतंत्र होगी, स्त्री-पुरुष संबंधों पर बहस करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।इंदिरा किसलयबल्लालेश्वर अपार्टमेंटरेणुका विहार, नागपुर-27 (महाराष्ट्र)28

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