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कौन सूफी, कैसे संत?मराठों के खिलाफ अब्दाली को जंग करने की सलाह देने वालावली उल्ला आखिर “सूफी संत” क्यों?-सूर्य नारायण सक्सेनायह लेख ऐसे सूफी संत के बारे में है जिसने 18वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में दुर्बल और बिखरते हुए मुगल साम्राज्य की दशा से चिंतित होकर और मराठा नारों और सिखों के बढ़ते प्रभाव और शक्ति से व्यग्र होकर विदेशी अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने का सुझाव दिया। इस “संत” ने पुन: मुस्लिम सत्ता स्थापित करने एवं हिन्दुओं को कुचलने के लिए षड्यंत्र रचे और इस्लाम के नाम पर तत्कालीन प्रमुख मुसलमानों को पत्र लिखे। सवाल है कि क्या ऐसे व्यक्ति को “संत” मानना चाहिए? प्राय: अधिकांश सूफी संतों का ऐसा ही इतिहास रहा है। कुछ अपवाद हो सकते हैं। इस “संत” द्वारा लिखे वे पत्र वर्षों तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पड़े रहे। इन्हें प्रकाश में लाने का काम डा. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने किया।यह तब की बात है जब “अटक से कटक” तक मराठों की तूती बोलने लगी थी और दिल्ली के तख्त पर बैठ मुगल सम्राट नाममात्र के और मराठों के इशारों पर नाचने वाले सम्राट रह गए थे। फिर वह कौन व्यक्ति और दिमाग था जिसके कारण सन् 1761 में पानीपत के मौदान में अफगानिस्तान का बादशाह अहमद शाह अब्दाली (1747-1772) मराठों के सामने आ डटा और मराठी को करारी हार का मुंह देखना पड़ा। यह व्यक्ति और कोई नहीं, सूफी संत शाह वली उल्ला (1703-1772) थे।यद्यपि अब्दाली ने 1748, 1749 और 1750 में पंजाब पर तीन हमले किए थे पर मराठों के प्रभाव के कारण वह दिल्ली की ओर बढ़ने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। अपने 1956 में चौथे हमले के समय अब्दाली को वलीउल्ला की यह अपील मिली। पत्रों में तारीख नहीं दी गई है, पर सब पर संत का नाम और हस्ताक्षर हैं। घटनाक्रम से पता चलता है कि यह प्रमुख मुसलमानों को लिखे गए पत्रों में दूसरा पत्र है। पत्र बहुत लम्बा है और इसमें मुगल सम्राट, मुसलमानों और इस्लाम के पतन और दुर्दशा का दारुण चित्र ही नहीं है, अब्दाली को ललचाया भी गया है कि यदि वह दिल्ली को जीतकर मराठों को खदेड़ देता है तो कितना बड़ा राजस्व उसके हाथ लग जाएगा। पत्र में अनेक विषयों को लिया गया है जो मुगल शासन की खस्ता हालत बयान करते हैं। संक्षेप में कुछ विषय इस प्रकार हैं।मजहबी उन्माद का प्रसार?लगभग हजार वर्षों तक मुसलमान हमलावरों और बादशाहों ने किस प्रकार खून पसीना बहाकर हिन्दुस्थान पर कब्जा और राज किया तथा इस्लाम का झंडा बुंलद किया इसका स्मरण कराते हुए संत लिखता है कि “आज नादिरशाह के हमले के बाद हिन्दुओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है। गुजरात और मालवा के सूबे मराठों को देने पड़े हैं। आगरा और दिल्ली के बीच का सारा क्षेत्र जाटों के कब्जे में है। सूरजमल जाट (भरतपुर नरेश) ने सफदरजंग (सम्राट का मंत्री) से मिलकर दिल्ली को लूटा है, अलवर पर अधिकार कर लिया है।”वली उल्ला हदीस का हवाला देते हुए “मराठों को एक फितनाह” (संभवत: अभिशाप) बतलाता है और कहता है, उससे छुटकारे के लिए अल्लाह ने अब्दाली को चुना। मुझे ऐसे दिव्य संदेश आ रहे हैं कि तुम्हारी सफलता निश्चित है, भले ही शुरु में कुछ असफलता मिले।” इस्लामी नैतिकता की नसीहत देते हुए वह लिखता है कि “नादिरशाह और सफदरजंग ने दिल्ली में मुसलमानों को भी लूटा था। तुम ऐसा न करना। हिन्दुओं के साथ जो चाहो कर सकते हो।” वाह रे सूफियाना समता का उपदेश, आज जिसका गुणगान करते लोग नहीं थकते। वलीं उल्ला की कोशिश थी कि सारे मुस्लिम अमीर, सरदार जमींदार, नवाब, वजीर आदि मिलकर अब्दाली की मदद कर मराठों को खत्म करें। इसके लिए उसने मुगल बादशाह के मीर बख्शी (सेनापति) नजीबुद्दौला और वजीर इमाद उल मुल्क को पत्र लिखे कि वे दोनों अब्दाली की मदद करें। पर दोनों ही मराठों के डर से अब्दाली की मदद करने में झिझक रहे थे, क्योंकि दोनों के ही पद मराठों की कृपा पर निर्भर थे। नजीबुद्दौला भी रक्त से अफगान था। वलीउल्ला बार-बार पत्र लिखकर कि “अल्लाह की मर्जी है कि मराठे और जाट नष्ट हों, मुझे दिव्य दृष्टि से दिखाई दे रहा है कि ऐसा होगा। अत: यह सबाब का काम तुम ही क्यों न करो।” बलूच सरदार ताज मुहम्मद खां को भी मतभेद भूलकर अब्दाली की मदद करने को लिखा। इसी प्रकार सहेला अफगान सरदार को भी मुसलमानों के अब्दाली सहायक गठबंधन में शामिल होने को लिखा और एक मजहबी नेता मौलाना सैयद अहमद से समस्त देशी अफगानों को गठबंधन में शामिल कराने के लिए अपना प्रभाव इस्तेमाल करने की अपील की। यह वह समय था जब देशी अफगान और बलूच आदि सभी मुस्लिम सरदार, मराठा सरदार माऊ से भयभीत थे क्योंकि “सैंट्रल हिन्दुस्तान” में मराठों का कब्जा या दबदबा था और मुगल सरदार एक के बाद एक बादशाह का साथ छोड़कर मराठों से या जाटों से मिलते जा रहे थे। उदाहरणार्थ आगरा के किलेदार फाजिल खां ने किले को एक लाख रुपए में भरतपुर नरेश सूरजमल जाट को सौंप दिया था।अवध के नवाब का साथअब्दाली के पक्ष में शाहवली उल्ला द्वारा रचे जा रहे मुस्लिम गठबंधन के लिए सबसे मजबूत और महत्वपूर्ण कड़ी थी अवध का नवाब शुजाउद्दौला, जो अभी तक फुसलाया नहीं जा सका था। इतना ही नहीं उसके पिता सफदरजंग और मराठों की अच्छी दोस्ती थी और पेशवा की ओर से सदाशिव राव भाऊ के द्वारा नवाब को बार-बार आश्वासन दिया गया कि हमारे अर्थात् नवाब और मराठों के समान उद्देश्य हैं- विदेशी अफगान अब्दाली को भारत से बाहर निकालना, शहजादे अली गौहर (शाह आलम द्वितीय) को मुगल तख्त पर बैठाना तथा शुजाउद्दौला को फिर से “नवाब वजीरे” के पद पर बैठा कर मुगल दरबार पर दोनों (मराठों और नवाब) का नियंत्रण स्थापित करना।अवध उस समय के बंगाल को छोड़कर सबसे बड़ा और मालदार सूबा था। उसकी फौज भी काफी बड़ी, अनुशासित और सुगठित भी। अत: अब्दाली और मराठा, दोनों पक्षों की ओर से शुजाउद्दौला को अपनी-अपनी ओर मिलाने के जबरदस्त कूटनीतिक प्रयास किए जा रहे थे। दोनों का यह भी यत्न था कि यदि नवाब युद्ध में साथ न दे तो तटस्थ ही रहे।शाह वली उल्ला के अवध के नवाब के नाम सीधे पत्र तो नहीं मिलते, किन्तु ऐसे कई पत्र हैं जिसमें वह नजीबुद्दौला से बराबर कहता रहा है कि कुछ भी हो नवाब अवध को अपने पक्ष में करो। काफी पत्र व्यवहार और यहां तक कि मुहम्मद शाह रंगीला की विधवा मलका-ए-जमानी को दूत बनाकर भेजने पर भी जब नवाब राजी नहीं हुआ तो नजीबुद्दौला खुद नवाब के पास गया और अब्दाली के हस्ताक्षर और मुहर वाली संधि और पत्र नवाब को दिया जिसमें शाह आलम को मुगल तख्त, नवाब को विजारत (वजीर का पद) देने का वायदा था। आखिर वली उल्ला की कोशिश सफल हुई और नवाब अवध शुजाउद्दौला ने अब्दाली का साथ देना कुबूल कर लिया।क्या वली उल्ला का सपना सच हुआ? जो बात ध्यान देने की है वह यह कि वली उल्ला की सारी दुआओं, मन्नतों और रुहानी ताकत से मराठे बुरी तरह हारे। उन्हें फिर उठने में दस साल लग गए।18
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