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-अश्विनी मिन्ना, सम्पादक, पंजाब केसरी
हमारे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के फौजी शासक परवेज मुशर्रफ के इस कथन पर भरोसा कर लिया कि भारत में आतंकवाद फैलाने में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं और उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ जंग लड़ने के लिए संयुक्त तंत्र की स्थापना की घोषणा कर दी। हमारे डा. मनमोहन सिंह से अब कैसा व्यवहार होगा? यह तो उन्हें प्रधानमंत्री की गद्दी पर बिठाने वाली सोनिया गांधी ही बता सकती हैं। हर देशवासी आज यह महसूस करता है कि डा.मनमोहन सिंह की घुटने टेक नीतियां विश्व मंच पर भारत की छवि एक कमजोर राष्ट्र के रुप में प्रस्तुत कर रही हैं और मुशर्रफ मनमोहन को ठगने में कामयाब रहे हैं।
मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि मनमोहन सिंह ने हवाना में मुशर्रफ से बातचीत के बाद जो संयुक्त बयान जारी किया उसके अनुसार हमलावर एवं आतंकवादी पाकिस्तान और हमले तथा आतंकवाद का शिकार भारत में कोई अंतर नहीं रखा गया। मनमोहन सिंह मुशर्रफ के इस कथन पर भरोसा करते समय यह भूल गए कि पाकिस्तान संचालित आतंकवादी संगठन पिछले डेढ़ दशक से जम्मू-कश्मीर में निरीह एवं निर्दोष लोगों का खून बहाने में लगे हुए हैं। मनमोहन ने मुशर्रफ पर विश्वास करते समय मुम्बई और मालेगांव के बम ब्लास्ट भी भुला दिए। वहां बिछने वाली महिलाओं, पुरुषों, बच्चों की लाशों और बहने वाले खून को भी भुला दिया। सरदार मनमोहन सिंह को भी मुशर्रफ से मोहब्बत हो गई है। हवाना से स्वदेश लौटते समय उन्होंने विमान में पत्रकारों से साफ कहा- “हम मित्र तो चुन सकते हैं, पड़ोसी नहीं, पड़ोसी कैसा भी हो उसके साथ रहना ही पड़ेगा।” मैं कहता हूं पड़ोसी को उद्दंडता और धूर्तता छोड़ने को मजबूर तो किया जा सकता है। उसे इस बात का पाठ तो अच्छी तरह सिखाया जा सकता है कि वह अच्छे पड़ोसी की तरह रहना सीखे। हमें ऐसा प्रधानमंत्री कतई पसंद नहीं जो हमलावर और आतंकवादी पाकिस्तान के फौजी शासक की बात पर तो भरोसा कर ले, किन्तु अपने करोड़ों लोगों की भावनाओं का तिरस्कार करे। (पंजाब केसरी 20 सितम्बर, 2006 के संपादकीय का अंश)
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