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पाकिस्तानी सेना में पहला सिख!देवेन्द्र स्वरूप58 वर्ष पहले भारत-विभाजन की विभीषिका में से जन्मे पाकिस्तान ने पहली बार एक 19 वर्षीय सिख युवक हरचरन सिंह को अपनी सेना में कमीशन प्राप्त अधिकारी के नाते प्रवेश दिया है। इन्टर स्टेट सर्विसेज बोर्ड की परीक्षा में दूसरी बार बैठने वाले ननकाना साहब के निवासी इस युवक को यह अकल्पित लगा। उसने गद्गद् होकर पाकिस्तानी दैनिक “डान” को बताया कि यह मेरे जीवन का सर्वोत्तम क्षण है। वह चाहता है कि उसका छोटा भाई भी पाकिस्तानी सेना का अंग बने। उसे लगता है कि उसके चयन ने पाकिस्तानी सेना में सिखों के प्रवेश का रास्ता खोल दिया है। इस अकेले चयन का स्वागत करने के लिए जम्मू की एक सिख संस्था भाई कन्हैयासिंह निष्काम सेवा समिति के प्रमुख सलाहकार स. मोहिन्दर सिंह दौड़ पड़े और उन्होंने अपनी संस्था से एक प्रस्ताव भी पास करा दिया। यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि किसी परीक्षा के माध्यम से ही पाकिस्तानी सेना में प्रवेश सम्भव था तो पिछले 58 साल में क्या हिन्दू, सिख, ईसाई अल्पसंख्यकों में एक भी मेधावी युवक पैदा नहीं हुआ जो उस परीक्षा का बंद ताला खोल सकता?या सरकारी नीतिवश अभी तक अल्पसंख्यकों के लिए वह ताला खोलना संभव नहीं था? क्या यह मान लिया जाय कि अल्पसंख्यकों के प्रति पाकिस्तान की नीति में कोई बुनियादी परिवर्तन हुआ है और अब पाकिस्तान सचमुच मि. जिन्ना के 11 अगस्त, 1947 को संविधान सभा में दिए गए भाषण को क्रियान्वित करने के लिए भारत जैसा सेकुलर राज्य बनने के रास्ते पर चल पड़ा है? क्या इस परिवर्तन के लिए पाकिस्तानी मानस तैयार हो चुका है, उसने विभाजन के लिए जिम्मेदार द्विराष्ट्रवाद की विचारधारा को त्याग दिया है, सभी उपासना पंथों के प्रति समदृष्टि अपना ली है? इसके बिना पाकिस्तान में बचे रह गये मुट्ठीभर अल्पसंख्यक समानता की स्थिति कैसे पा सकते हैं?इस दृष्टि से देखें तो पाकिस्तान में पंथ निन्दा कानून अभी भी बना हुआ है। इस कानून के अंतर्गत हजरत मुहम्मद या कुरान की छोटी सी तौहीन करने वाले को भी प्राण दंड दिया जा सकता है। अभी कुछ ही दिनों पहले कुरान शरीफ की एक प्रति फाड़ने के आरोप में 300 ईसाई परिवारों पर हमला किया गया, तीन चर्चों को जला दिया गया। ईसाई- हिन्दू की बात तो छोड़िये इस्लाम के ही एक अहमदिया सम्प्रदाय के इमाम रो रहे हैं कि उन्हें पाकिस्तान में प्रवेश के लिए वीजा नहीं दिया जा रहा है। शिया-सुन्नी के संघर्ष आये दिन की बात है। जिहादी बड़ी संख्या में आज भी पैदा हो रहे हैं।पाकिस्तान के पैंतरेपाकिस्तान ने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है इसकी एकमात्र कसौटी कश्मीर और भारत के प्रति उसका व्यवहार ही हो सकती है। कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे का एकमात्र आधार वहां मुस्लिम बहुसंख्या का होना बनाया गया है। एक मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेश हिन्दूबहुल सेकुलर देश का अंग कैसे बना रह सकता है? उसे मुस्लिम पाकिस्तान का ही अंग होना चाहिए। इसी एक तर्क को लेकर पाकिस्तान भारत के साथ चार युद्ध लड़ चुका है, वहां जिहादी हिंसा की आग सुलगाता रहा है, तीन लाख से अधिक कश्मीरी हिन्दुओं को उनके घरों से उजाड़कर कश्मीर से बाहर खदेड़ चुका है। भारत के सिर पर इस्लामी अणु बम को लटका रहा है, उसे हजार साल तक युद्ध की धमकियां देता रहा है, प्रत्येक वैश्विक मंच पर कश्मीर के सवाल को उठाता रहा है। एक महीने पहले ही उसने इस्लामी देश संगठन (ओ.आई.सी.) से भारत के विरुद्ध प्रस्ताव पारित कराया और कश्मीर को मुस्लिम प्रश्न के रूप में प्रक्षेपित किया गया। पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से लेकर किसी भी नेता ने अब तक नहीं …. कि पाकिस्तान की विचारधारा बदल चुकी है और अब कश्मीर के प्रश्न पर वह भारत से विरोध मोल लेने को तैयार नहीं है।तब यकायक एक सिख युवक के लिए पाकिस्तानी सेना के दरवाजे खोलने का अर्थ क्या हो सकता है? यह तो निश्चित है कि सर्वोच्च स्तर पर निर्णय के बिना यह प्रवेश सम्भव नहीं हो सकता था। वैसे पाकिस्तान में सिखों की संख्या है ही कितनी? शायद कुछ हजार से ऊपर नहीं होगी। इसलिए पाकिस्तानी सेना में दो-चार सिखों के प्रवेश से सेना के चरित्र में तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। और एक जमाना था जब 1857 के बाद अंग्रेजी फौज में सिखों की भरती बड़े पैमाने पर की गयी थी और सिख शौर्य के सहारे अंग्रेजों ने भारत में और भारत के बाहर अनेक लड़ाई के मैदान जीते थे। पर अब तो पाकिस्तान में सिख इनी-गिनी संख्या में रह गये हैं। विभाजन के समय पाकिस्तानी हुक्मरानों ने निश्चयपूर्वक चुन-चुन कर सिखों को पाकिस्तान से खदेड़ दिया था, उनका भयंकर कत्लेआम किया था, बड़े पैमाने पर उनकी स्त्रियों का अपहरण और बलात्कार किया था। हिन्दुओं और सिखों पर उस समय के लोमहर्षक बर्बर अत्याचारों का वर्णन शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने 1950 में ही 450 पृष्ठों की वृहत् पुस्तक में आधिकारिक तौर पर प्रकाशित किया था। उसी पुस्तक में 307-310 पृष्ठों पर पंजाब के अंग्रेज गवर्नर सर फ्रांसिस मुडी का गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना के नाम 5 सितम्बर, 1947 का वह लम्बा पत्र भी प्रकाशित है, जिसमें वह जिन्ना साहब को सगर्व सूचित करता है- “मैंने हर अधिकारी को बता दिया है कि मुझे इससे मतलब नहीं कि सिख सीमा पार कैसे खदेड़े जाते हैं। बड़ी बात यह है कि उनसे जल्दी से जल्दी छुटकारा कैसे मिल सकता है। लायलपुर के 3 लाख सिख अभी भी जमे हुए हैं, लेकिन आखिरकार उन्हें भी जाना ही होगा।”और वही हुआ। एक सुनियोजित नीति के तहत करोड़ों सिखों को पाकिस्तान से खदेड़ दिया गया। केवल दो-चार सिख अब वहां आंसू पोंछने के लिए रह गये हैं।रूख क्यों पलटा?पर, इधर अचानक सिखों और भारतीय पंजाब के प्रति पाकिस्तान के मन में प्यार का दरिया उमड़ पड़ा लगता है। दोनों पंजाबों के बीच पंजाबी भाषा और पंजाबियत का पुल बनाने का राग अलापा जा रहा है।इसी 21 दिसम्बर को दोनों देशों के अधिकारियों की बैठक में घोषणा की गयी कि 20 जनवरी से अमृतसर और लाहौर के बीच साप्ताहिक बस सेवा शुरू होगी। 27 फरवरी से अमृतसर और ननकाना साहब के बीच भी बस चलने लगेगी। अमरीका के टैक्सास राज्य में स्वास्थ्य विज्ञान केन्द्र के एक प्रोफेसर हरबंस लाल ने ट्रिब्यून को ई-मेल द्वारा सूचित किया कि 16-20 फरवरी, 2006 को पहले लाहौर और फिर ननकाना साहब में गुरुनानक स्मृति अन्तर्पंथीय समझ पर एक अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी होगी। इस अवसर पर 1920-21 के गुरुद्वारा सुधार या मुक्ति आंदोलन के 130 शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए उस आंदोलन की वर्तमान प्रासंगिकता पर चर्चा की जाएगी। जिन्हें उस आन्दोलन के इतिहास की थोड़ी भी जानकारी है वे जानते हैं कि उस आंदोलन का एकमात्र लक्ष्य दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी द्वारा स्थापित निर्मले महन्तों एवं पुजारियों से छीन कर गुरुद्वारों को केशधारी सिखों के नियंत्रण में लाना था। इसी आंदोलन में अकाली दल का जन्म हुआ था, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी को वैधानिक दर्जा मिला था और ब्रिाटिश सरकार ने गुरुद्वारा एक्ट बनाकर पंजाब के मुख्य गुरुद्वारों पर इस कमेटी का नियंत्रण स्थापित कर दिया था। इस आन्दोलन का जन्म 1857 के बाद ब्रिाटिश सरकार की केशधारी और मौने सिखों के बीच अलगाव पैदा करने की साम्राज्यवादी नीति में से हुआ था। इस आंदोलन का मुख्य स्वर गैर केशधारी हिन्दू विरोधी था। इस सम्बंध में उन्हीं दिनों गांधी जी और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के नेताओं के बीच हुआ पत्राचार पठनीय है।आतंक का अड्डायह होने पर भी सिख पंथ मुस्लिम विस्तारवाद और पृथकतावाद के विरुद्ध भारतीय प्रतिरोध का अग्रणी रहा है। छठे गुरु हरगोविन्द से लेकर दशम गुरु गोविंद सिंह जी और उसके बाद बंदा बैरागी से लेकर महाराजा रणजीत सिंह तक मुस्लिम शासन एवं आक्रामकता के विरुद्ध सिखों के संघर्ष, शौर्य और बलिदान की गाथा भारतीय इतिहास का अत्यन्त प्रेरणादायी और उज्ज्वल अध्याय है। ब्रिाटिश साम्राज्यवादियों द्वारा केशधारी, गैरकेशधारी प्रश्न को खड़ा करने के बाद भी सिख पंथ मुस्लिम शासकों के अत्याचारों को कभी भूला नहीं। उसने अपने मन की वेदना और कटुता 1927 में साइमन कमीशन को और 1947 में रेडक्लिफ सीमा आयोग को दिये गये प्रतिवेदनों में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ विस्तार से व्यक्त किया है। वर्तमान सिख पीढ़ी को इन दस्तावेजों को पुन: पढ़ना चाहिए। 1947 के विभाजन की कटु स्मृतियों ने पाकिस्तान के प्रति उसके ह्मदय द्वारों को पूरी तरह बंद कर दिया था।पर, पाकिस्तान के शासक भारत के सिख समाज के भीतर विभिन्न विचार-प्रवाहों एवं राजनीतिक स्पर्धाओं का बारीकी से अध्ययन करते रहे हैं। सिख समाज की शौर्य भावना को भारत विरोधी रुख देने की कोशिश करते रहे हैं। इस कोशिश के तहत उन्होंने 1971 के युद्ध में अपनी भारी पराजय का बदला लेने के लिए कुछ उत्साही और भावुक सिख युवकों को खालिस्तान का सपना देकर आतंकवाद के रास्ते पर बढ़ाने का प्रयास किया। अब यह प्रमाणित हो चुका है कि 1980 के बाद प्रांरभ हुए आतंकवाद में पाकिस्तान ने शस्त्रास्त्रों, ट्रेनिंग व पैसे से कितनी सहायता की थी, पाकिस्तान ही खालिस्तानी आतंकवाद का मुख्य अड्डा बना हुआ था। अभी भी बब्बर खालसा इंटरनेशनल का सरगना वधावा सिंह पाकिस्तान में बैठकर ही कुछ पथ भ्रष्ट सिख युवकों को आतंकवाद के रास्ते पर बढ़ाने की कोशिशों में लगा रहता है। 22 मई, 2005 को दिल्ली में लिबर्टी और सत्यम सिनेमाघरों में बम विस्फोट से यह कुचक्र सामने आया कि इस विस्फोट में जिस जगतार सिंह हवारा और जसपाल राणा की मुख्य भूमिका थी उनके तार पाकिस्तान में वधावा सिंह से जुड़े हुए थे। 7 जून को जगतार सिंह हवारा की गिरफ्तारी के बाद मिले सुरागों के आधार पर इस गिरोह के जो 60 सदस्य गिरफ्तार हुए उन्होंने कबूला कि उन्हें पाकिस्तान में हथियार चलाने का प्रशिक्षण मिला। आई.एस.आई. द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविर में वधावा सिंह का लगातार आना जाना था। भारत में खालिस्तानी आतंकवाद को पुनरुज्जीवित करने की पाकिस्तानी भूमिका को इंडियन एक्सप्रेस ने 24 से 27 जुलाई, 2005 तक चार किश्तों में पूरी तरह उजागर किया है। उन्हीं दिनों 26 जून, 2005 को ननकाना साहब में एस.जी.पी.सी. की पहल पर 55 व्यक्तियों को अमृतधारी बनाया गया। इस अवसर पर भारत से पंजप्यारे भेजे गये। 29 जून को महाराजा रणजीत सिंह की 166वीं पुण्यतिथि के बहाने एस.जी.पी.सी. के सदस्य ओंकार सिंह शरीफपुरा के नेतृत्व में 500 सिखों का जत्था पाकिस्तान गया। ब्रिाटेन के अवतार सिंह संधेरा की देखरेख में ननकाना साहब में कारसेवा आयोजित की गई। पाकिस्तान शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी का अलग से गठन हुआ। मस्तान सिंह उसके अध्यक्ष बने। ननकाना साहब के मुख्यग्रंथी भाई प्रेम सिंह का अभिनंदन किया गया।यह सब अनायास नहीं हुआ। पाकिस्तान सरकार की नीति के अन्तर्गत हुआ। पंजाब तथा सिखों को लुभाने की पाकिस्तानी नीति पहली बार एक साल पहले दिसम्बर, 2004 में सामने आई, जब पाकिस्तानी पंजाब के मुख्यमंत्री चौधरी परवेज इलाही अपने पूरे परिवार के साथ राष्ट्रपति मुशर्रफ के विशेष विमान से भारतीय पंजाब में पधारे। उन्होंने पंजाबी भाषा और पंजाबियत का भावुक नारा लगाया। इस अवसर पर पटियाला में विश्व पंजाबी सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता पाकिस्तान के पूर्व संस्कृति मंत्री फखर जमीन ने की। उन्होंने सिख -मुस्लिम एकता के लिए इतिहास के पुनर्लेखन का सुझाव दिया। पाकिस्तान में पंजाबी भाषा और सिख अध्ययन विभाग खोले गए। गुरुनानक पीठ स्थापित किया। ननकाना साहब के विकास की घोषणा की गई। उस भावुक वातावरण में पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने घोषणा की कि यदि बर्लिन की दीवार गिर सकती है तो वाघा का फाटक क्यों नहीं टूट सकता। सहमति बनी कि दोनों पंजाब पंजाबी भाषा का विकास करेंगे, वीजा को ढीला करेंगे, वाघा और हुसैनीवाला के रास्ते व्यापार करेंगे, अपनी संघीय सरकारों पर दबाव बनाये रखेंगे। किन्तु परवेज इलाही ने उसी समय यह भी साफ कह दिया कि दोनों पंजाबों के बीच दोस्ती की पींग बढ़ाने का मतलब यह नहीं कि हमने कश्मीर का सवाल छोड़ दिया है वह हमारे लिए मुख्यतम मुद्दा है। इलाही साहब ने यह भी नहीं बताया कि यदि वे अपने यहां पंजाबी का विकास करेंगे तो उर्दू कहां रहेगी। यह सर्वविदित है कि पंजाब के अलावा कोई भी पाकिस्तानी प्रान्त उर्दू को जगह देने को तैयार नहीं है। क्या उर्दू और पंजाबी साथ-साथ रह सकती हैं? उर्दू का वर्तमान सिख पीढ़ी के जीवन में कोई स्थान नहीं है।सिर्फ भावनओं का दोहनकिन्तु पाकिस्तान सिखों की भाषाई एवं पान्थिक भावनाओं का दोहन करने पर लगा हुआ है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह का पाकिस्तान में भव्य स्वागत हुआ। अमृतसर में हरमंदिर साहब की स्थापना में मियां मीर की भूमिका के मिथक को, जिसे वरिष्ठ सिख विद्वान मदनजीत कौर के अनुसार अंग्रेजों ने पैदा किया था, जिन्दा करते हुए पिछले महीने अमृतसर में एक समारोह का आयोजन किया, जिसमें पाकिस्तानी कलाकारों ने हिस्सा लिया। संभवत: पाकिस्तानी प्रेरणा से ही कुछ सिख बुद्धिजीवी अपने हिन्दू मूल से पूर्ण सम्बंध विच्छेद करने के लिए अदास में से मां भगवती के स्मरण को हटाने और दशम गुरु की रचना “वर दे मोहि शिवा” को छोड़ने की बात कर रहे हैं। संविधान की धारा 25 में हिन्दू शब्द के अन्तर्गत सिख के उल्लेख को हटाने की भी मांग उठी है। अनेक अकाली दलों की आपसी सत्ता-प्रतिस्पर्धा के कारण खालिस्तानी आतंकवाद का महिमामंडन भी शुरू हो गया है। पंजाब से पुन: आतंकवाद के पुनरुज्जीवित होने का भय प्रगट किया जा रहा है। मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और एस.जी.पी.सी. पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगा रहे हैं तो दूसरा पक्ष अमरिन्दर सिंह की आतंकवादियों से सांठगांठ का आरोप लगा रहा है। नेताओं की इस सत्ता स्पर्धा से व्यापक सिख समाज एवं समूचा पंजाब बहुत चिन्तित है। सिख पंथ के सामने एक ओर पाकिस्तानी दुष्चक्र, दूसरी ओर आन्तरिक फूट का संकट खड़ा हो गया है।(23 दिसम्बर, 2005)35
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