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आलोचना से परे नहीं चुनाव आयोगटी.वी.आर. शेनायटी.वी.आर. शेनायअपने प्यारे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव का मानना है कि चुनाव आयोग उनके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित है। इसके पीछे उनके तर्क भी हैं। चुनाव आयोग ने 31 मई की प्रेस विज्ञप्ति में बिहार में विधानसभा चुनाव देर से कराने के कारण बताए हैं। यह विज्ञप्ति बारिश के मौसम और उसके प्रभाव, खासकर राज्य के विभिन्न भागों में बाढ़ की जमीनी सचाई का बयान करती है। फिर, वह चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों और उनके एजेंटों के इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के इस्तेमाल की जानकारी से दो-चार होने की जरूरत बात कहती है। क्योंकि बीते दिनों कुछ राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने इन मशीनों के इस्तेमाल के बारे में पूरी जानकारी न होने की बात कही थी। अंत में चुनाव आयोग प्रभावी सुरक्षा मुहैया करवाने के लिए पर्याप्त केंद्रीय सुरक्षा बल उपलब्ध करने की बात का उल्लेख करता है।इन पंक्तियों में अंतर्निहित अर्थ को समझिए। यह 15 साल के लालू राज पर आंखे खोल देने वाला अभियोग पत्र है। इसमें एक उच्च संवैधानिक संस्था कह रही है कि लालू के प्रशासन ने हर साल आने वाली बाढ़ के असर को कम करने के लिए कुछ नहीं किया। (यह इतनी चिंता की बात क्यों होनी चाहिए?) विज्ञप्ति का कहना है कि बिहार के मतदाता इतने अनपढ़ हैं कि वे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का संचालन नहीं समझ सकते। (वे एक बटन को दबाने की बात नहीं समझ सकते?)। विज्ञप्ति के अंत में कहा गया है कि मतदाताओं में निर्भयता के लिए केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती जरूरी है। दूसरे शब्दों में इसे कहें तो बिहार पुलिस का इस कदर राजनीतिकरण हो चुका है कि वह इस काम के लिए उपयुक्त नहीं है।पर पिछले डेढ़ दशक में राष्ट्रीय जनता दल के कुशासन के कारण बिहार में आई भयानक विपदाओं के बावजूद क्या चुनावों को नवंबर तक टालना उचित है? क्या यह संवैधानिक है?यहां मैं ब्रिटेन का एक उदाहरण देना चाहूंगा, क्योंकि हमने उनकी लोकतांत्रिक पद्धति का ही अनुसरण किया है। 5 अप्रैल, 2005 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर सदन को भंग करने की मांग को लेकर बर्मिंघम पैलेस गए। ब्रिटेन की महारानी ने उन्हें तत्काल अनुमति दी और एक महीने बाद चुनाव का दिन तय हो गया। छह मई की शाम को ब्लेयर दोबारा प्रधानमंत्री बनकर डाउनिंग स्ट्रीट में लौट गए। मैं यह मानता हूं कि ब्रिटेन में मात्र 4 करोड़ 40 लाख मतदाता हैं जो कि बिहार के 5 करोड़ 26 लाख मतदाताओं से कुछ ही कम हैं। यह एक खुला सच है कि ब्रिटेन की तुलना में बिहार में जंगलराज एक बड़ी समस्या है और यहां की जनता तुलनात्मक रूप से कम पढ़ी-लिखी है।कुल मिलाकर निर्वाचन सदन ने भारत में चुनाव करवाने के काम को बेहतरी से अंजाम दिया है पर सराहना अपनी जगह है और न्यायोचित आलोचना अपनी जगह। अब यह लगता है कि चुनाव आयोग का यह इरादा है कि हर मतदाता का नाम मतदाता सूची में हो और मतदाता के मन में भी वही भाव हो जो स्वयं निर्वाचन सदन के सदस्यों में है।मतदाता सूचियों में सुधार और उन्हें अद्यतन करना एक खत्म न होने वाली बात न होकर, सतत रूप से चलते रहने वाली प्रक्रिया है।चुनाव आयोग का कार्य, जहां तक हो सके मानवीय रूप से शीघ्रातिशीघ्र और निष्पक्ष ढंग से चुनाव करवाना है, न कि सभी चीजों के सही होने तक चुनावों को स्थगित करना। आखिर संविधान में यह कहां लिखा है कि मानसून, त्योहारों अथवा परीक्षाओं के कारण चुनाव नहीं करवाने चाहिए?जबकि भारत के कानून में साफ लिखा है कि संसद से स्पष्ट स्वीकृति लिए बिना राष्ट्रपति शासन की अवधि नहीं बढ़ाई जानी चाहिए। जैसा कि चुनाव आयोग स्वयं मानता है कि सात मार्च 2005 को संविधान की धारा 356 के तहत बिहार की नवनिर्वाचित विधानसभा को निलंबित कर दिया गया था। चुनाव आयोग यह भी कहता है कि कुछ राजनीतिक दलों ने छह सितंबर 2005 को राष्ट्रपति शासन की अवधि समाप्त होने से पहले चुनाव करवाने की मांग की थी। तो फिर चुनाव आयोग ने नवंबर में ही चुनाव करवाने का निर्णय क्यों किया?व्यावहारिक रूप से हम सभी इस बात से अवगत हैं कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार संसद में अपने हिसाब से स्वीकृति ले सकती है, पर क्या चुनाव आयोग को इस बात के आकलन का अधिकार है कि सांसद ऐसा ही करेंगे?चुनाव आयोग का दृष्टिकोण इस बात पर आधारित है कि 22-23 मई की रात तक बिहार विधानसभा भंग नहीं की गई थी। (मैं इस बारे में पक्का नहीं हूं क्योंकि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने रविवार (22 मई) की देर शाम इस बाबत फैसला लिया और फिर फैसले पर राष्ट्रपति की मुहर लगने में विलंब हुआ, क्योंकि वे मास्को में थे।)निर्वाचन आयोग ने उच्चतम न्यायालय के सन् 2002 के एक फैसले का हवाला देते हुए इस तारीख का इस्तेमाल किया है। चुनाव आयोग को पहले अवसर पर ही और सदन के तयशुदा समय से पहले, भंग होने की तारीख के छह महीने के भीतर तत्काल कदम उठाकर विधानसभा के गठन की शुरुआत करने की आवश्यकता हैं। पर यह गलत ढंग से की गई एक महत्वपूर्ण व्याख्या है। उच्चतम न्यायालय यह नहीं कह रहा था कि विधानसभा के भंग होने के छह महीने बाद ही चुनाव हो सकते हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने तो अधिकतम स्वीकृत समय की सीमा निश्चित की थी। उच्चतम न्यायालय के निर्णय में यह कहीं भी नहीं कहा गया है कि विधानसभा भंग होने के एक माह के भीतर चुनाव नहीं करवाए जा सकते।बिहार में विधानसभा चुनाव फरवरी, 2005 में हुए थे। आप मतदाता सूचियों में और कितना सुधार करेंगे? जहां तक बाढ़ का सवाल है तो वह केवल भगवान ही जानता है कि बाढ़ कब तक रहेगी और कितनी भयावह होगी? अगर दिसंबर तक भी बाढ़ का असर रहता है तब क्या होगा? तो ऐसे में क्या मानसून के पूर्ण प्रकोप से पहले चुनाव करवाना समझदारी नहीं होगी?उचित ढंग से चुनाव करवाने का प्रयास सराहनीय है। पर हर चीज की एक कीमत होती है और चुनाव आयोग के इरादे की कीमत है बिहार में और छह महीने तक लोकतंत्र कायम न होने देना। यह स्वीकार्य नहीं है। चुनाव आयोग के विरूद्ध लालू प्रसाद यादव के आरोपों को आधारहीन बातों का पुलिंदा कहकर खारिज किया जा सकता है। पर हम ऐसा आभास न दें कि चुनाव आयोग आलोचना से परे है। वह संसद को नहीं हांक सकता और किसी भी तरह से चुनावों को टालने के लिए उच्चतम न्यायालय के फैसले की एक गलत व्याख्या की आड़ नहीं ले सकता।NEWS
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