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सुमन चन्द्र धीर
विशाल सागर में
भटके पथिकों को राह दिखाता,
हैं कहते राष्ट्र सर्वोपरि
कर्तव्य पथ उनके आलोकित करता,
परम वैभव का लक्ष्य
हर पल ह्मदयों को उद्वेलित करता,
बीत जाते हर क्षण के साथ
मंजिल आ जाती है और समीप।
ऋषिवर तुम कर्तृत्व के नंदा-दीप।।
लोक संग्रह के मूर्त रूप
तुम जन्मे परिवर्तन के पर्याय बनकर,
सहस्रों वीतरागी प्रचारकों में
विचरे तुम जीवन का अभिप्राय बनकर,
अपनी ज्ञान चेतना से
उचरे तुम गीता के अध्याय बनकर,
घर बना रेल का डिब्बा
प्रवास के तुम बन गए प्रतीक।
ऋषिवर तुम कर्तृत्व के नंदा-दीप।।
“राष्ट्राय इदं न मम्”
अपने ही हाथों किया स्वयं का तर्पण,
पुनश्च हरि ओम
“मैं नहीं तू ही”, कैसा अद्भुत था समर्पण,
“वयं पंचाधिकम् शतं”
अहं को नतमस्तक करता था तुम्हारा दर्शन।
स्मारक नहीं बने कभी भी
जलाया हंसकर अपना जीवन दीप।
ऋषिवर तुम कर्तृत्व के नंदा-दीप।।
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