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मंथन

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Sep 1, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 01 Sep 2005 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूपप्रकृति के सामने असहाय मानवविज्ञान और टेक्नोलाजी के पंख लगाकर सभ्यता के आकाश में मानव ऊंचा और ऊंचा ही उड़ता जा रहा है। उसे दम्भ हो गया है कि उसने काल और दूरी पर विजय पा ली है। उसने आगामी के जन्म पर रोक लगा दी है, जीवित की मृत्यु को पीछे धकेल दिया है। गर्मी-सर्दी के आक्रमण से अपने शरीर को सुरक्षित कर लिया है। बैठे-बैठे वह विश्व के हर कोने की पल-पल की खबर पाने में समर्थ है। वह क्षण भर में कहीं भी पहुंच सकता है। उसका विज्ञान आने वाली आपत्तियों को पहले ही देख सकता है। उसने प्रकृति को पूरी तरह अपने वश में कर लिया है। प्रकृति तो क्या चीज है, वह ब्राह्मा बनकर नई सृष्टि का, कृत्रिम मनुष्य का, कृत्रिम पशुओं का सृजन करने की स्थिति में पहुंच चुका है। अगली छलांग में ईश्वर, अल्लाह या “गॉड” को भी उसके सिंहासन से हटा कर अपना अभिषेक कर लेगा।मानव के इस अहंकार को देखकर केनोपनिषद् की उस कथा का स्मरण हो आता है, जिसमें असुरों पर अपनी विजय को अपनी महिमा मान कर देवता लोग अपनी पीठ ठोंकने, अपना स्तुतिगान करने में निमग्न थे कि यकायक आकाश में एक दिव्य प्रकाशपुंज के प्रगट होने पर वे हतप्रभ और विस्मित हो गए। वे समझ नहीं पाए कि कौन हो सकता है यह प्रकाशपुंज। सर्वप्रथम उन्होंने पृथ्वी स्थानीय देवताओं के अग्रणी अग्निदेव से प्रार्थना की कि हे अग्नि देव! आप जाकर पता लगायें कि यह यक्ष कौन है। गर्व से फूला अग्नि दौड़कर यक्ष के सामने पहुंच गया। यक्ष ने पूछा, “तू कौन है?” अग्नि को यक्ष के अज्ञान पर आश्चर्य हुआ। बोले, “मुझे नहीं जानते?” मैं वहीं हूं जिसे विश्व “जातवेदा” के नाम से जानता है। यक्ष ने पूछा, “तेरा सामथ्र्य क्या है?” अग्नि ने कहा, “मैं इस पृथ्वी पर सब कुछ भस्म कर सकता हूं।” यक्ष ने उसके सामने एक तिनका फेंककर कहा, “इसे जला कर दिखा।” अग्नि अपनी पूरी ताकत से उस तिनके पर टूट पड़ा, पर वह उसे जला नहीं पाया। बेचारा अग्नि सिर झुकाए वापस लौटा और देवताओं को कहा, “मैं नहीं जान सका, यह यक्ष कौन है।” सर्वज्ञानी जातवेदा की इस असफलता पर आश्चर्यचकित देवताओं ने अब अन्तरिक्ष स्थानीय देवताओं के अग्रणी वायु देवता से प्रार्थना की कि आप पता लगाइये, यह यक्ष कौन है। वायु देवता भी उसी तरह कूंदते-फांदते यक्ष के सामने पहुंचे। यक्ष ने वही सवाल पूछा कि तू कौन है? “अरे मुझे नहीं जानते, मैं हूं वही मातरिश्वा, जिसे सब पहचानते हैं।””क्या है तेरा सामथ्र्य?” “मैं इस पृथ्वी पर सब कुछ उड़ा सकता हूं।” “तो उड़ाकर दिखा इस तिनके को।” वायु देवता पूरा जोर लगाकर उस तिनके पर टूट पड़े पर वह तो टस से मस नहीं हुआ। सिर झुकाये वायु देवता लौट आए। मैं नहीं जान सका कि यह यक्ष कौन है। अब देवताओं के सामने अपने राजा, द्यौ-स्थानीय देवताओं के पुरोधा इन्द्र की शरण में जाने के सिवाय उपाय नहीं था। उन्होंने डरते-डरते इन्द्र से प्रार्थना की, “भगवन्! अब आप ही पता लगा सकते हैं कि यह यक्ष कौन है।” इन्द्र गये, उनकी गरिमा की रक्षा के लिए यक्ष अन्तर्धान हो गया। इन्द्र उमा हेमवती की शरण में गए। उमा ने बताया कि यही तो वे हैं जिन्होंने तुम्हें असुरों पर विजय दिलायी थी, पर जिनकी महिमा को तुम अपनी मान बैठे थे। और, तब देवताओं को पहली बार अनुभव हुआ कि इन्द्र के आगे भी कुछ और है। सृष्टि का ज्ञान इन्द्र पर ही जाकर समाप्त नहीं हो जाता, सृष्टि का रहस्य उसके परे है।प्रकृति की छींकपिछले रविवार को प्रात: केनोपनिषद् की यह कथा दोहरायी गई। हिन्द महासागर में स्थित सुमात्रा द्वीप के निकट समुद्र के भीतर 24,000 फुट की गहराई पर प्रकृति ने हल्की सी छींक मारी कि पृथ्वी अपनी धुरी पर डगमगाने लगी। कई द्वीप अपने-अपने स्थान से 60-60 फुट दूर खिसक गए। प्रकृति की इस छींक से उद्वेलित समुद्र की अथाह जल राशि उत्ताल लहरें बनकर इधर से उधर दौड़ने लगी और कुछ ही घंटों के भीतर उसने इन्डोनेशिया से लेकर श्रीलंका, भारत के पूर्वी समुद्रतट और पश्चिम में अफ्रीका के पूर्वी तट तक मानव निर्मित सभ्यता के ताने-बाने को ध्वस्त कर दिया, जीविकार्जन और पर्यटन के आमोद-प्रमोद में मस्त लाखों मनुष्यों को जिन्दा ही अपने उदर में लील लिया, भगवद्गीता में विश्वात्मा के महाकाल रूप दर्शन की एक झलक दिखाते हुए। मनुष्य ने प्रकृति के सामने अपने को पूरी तरह असहाय पाया। उसके मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, उसकी कारें-हेलीकाप्टर विमान सब कुछ महाकाल के सामने बेकार हो गए। उसके पास ईश्वर से प्रार्थना के अलावा कुछ भी शेष नहीं रह गया। पर, उस प्रार्थना को सुनता कौन? जिसे सुनना था उसी ने तो मानव को उसकी क्षुद्रता का, उसकी असहायता का बोध कराने के लिए महाकाल का रूप धारण किया था- “कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त: (गीता, 11: 32)”मैं महाकाल इस समय लोकों का नाश करने के लिए आगे बढ़ा हूं। इस लोक का अंत करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं।”प्रकृति के एक छोटे से झटके से कितना विनाश हुआ, कितनी मानव हानि हुई, इसके अंतिम आंकड़े आना अभी बाकी हैं। संख्या लाख को पार कर चुकी है, लाशें लगातार मिल रही हैं, लापताओं की गिनती हो रही है, जो जिन्दा हैं, उन्हें महामारी ने घेर लिया है, वे चारों ओर समुद्र की विशाल जलराशि से घिरे होने पर भी प्यासे तरस रहे हैं। प्रकृति की विध्वंसलीला उनके चारों ओर बिखरी पड़ी है। कल की ऊंची अट्टालिकाएं गायब हो गई हैं, पॉप संगीत अब मृत्यु राग में बदल गया है। आकाश से गिर रहे भोजन के पैकेट को पाने के लिए अनेक भूखे प्राणों में छीना-झपटी मच गई है। मनुष्य सभ्यता के कृत्रिम वस्त्रों को फेंककर अपने वास्तविक आदिम रूप में पहुंच गया है। प्रकृति का यह ताण्डव भले ही पृथ्वी के एक कोने में हिन्द महासागर तक सीमित हो पर उसका सन्देश, उसकी चेतावनी पूरी मानव जाति के लिए है। क्या मानव सचमुच इस चेतावनी को सुनेगा, उसके मर्म को पहचानेगा?मानव का अहंकारउसकी अब तक की प्रतिक्रिया से तो ऐसा नहीं लगता। अमरीका गर्वोक्ति कर रहा है कि हमने तो इस संकट की पूर्व चेतावनी दी थी पर एशियाई देशों ने हमारी चेतावनी को सुना ही नहीं। एक-दूसरे पर दोषारोपण किया जा रहा है कि पूर्व-चेतावनी इन तक पहुंच गई किन्तु इन्होंने उसे दबा लिया आगे बढ़ाया ही नहीं। थाईलैंड के बारे में तो बताया गया कि वहां के मौसम विभाग के उच्च अधिकारियों ने समुद्र गर्भ में भूकम्प की चेतावनी मिलने पर एक उच्चस्तरीय बैठक में उस पर चर्चा की और निष्कर्ष निकाला कि यदि हमने इस चेतावनी को प्रसारित किया तो आये हुए पर्यटक भाग जाएंगे, आने वाले पर्यटक नहीं आयेंगे, जिससे थाईलैंड को भारी आर्थिक हानि होगी, अत: चुप रहना ही उचित है। अर्थात् सभ्यता की आर्थिक प्रेरणा ही उन पर हावी रही। पर, दोषारोपण का यह खेल सब जगह चल रहा है। इस आपदा में भी मानवी-राजनीति अपने लिए अवसर ढूंढ रही है। भारत में कहा जा रहा है कि चेन्नै को पूर्व-चेतावनी मिल चुकी थी पर सरकार सोयी रही। सरकार कह रही है कि हमारे यहां सुनामी का चेतावनी संयंत्र था ही नहीं तो हम चेतावनी सुनते कैसे? और हमारे यहां यह संयंत्र होता ही क्यों? यह बीमारी तो पैसिफिक महासागर तक सीमित थी, वहीं से इसे जापानी भाषा का “सुनामी” नाम मिला। कौन सोच सकता था कि यह हिन्द महासागर में भी घुस जायेगी तो अब हम सुनामी चेतावनी सयंत्र लगायेंगे। भविष्य को सुरक्षित करेंगे। पूर्व चेतावनी मिलने पर आप क्या करते इसका रिहर्सल कल (30 दिसम्बर) हमारे पूर्वीतट पर दिखाई दिया, जब हमारी सरकार ने किसी फैक्स सूचना से घबड़ाकर चेतावनी दे डाली और पूरे पूर्वी तट पर भगदड़ मच गई। मनुष्य अपने भविष्य की किलेबंदी करता रहा है और प्रकृति उसको एक प्रहार से ध्वस्त करती रही है। किन्तु मानव ने अपनी क्षुद्रता को, अपनी सीमाओं को पहचानने की कोशिश नहीं की।क्षुद्रता का बोधसभ्य मानव को उसकी क्षुद्रता का बोध कराया अंदमान-निकोबार द्वीप समूहों में बचे रह गए उन मुट्ठी भर आदिमजन समूहों ने, जिन्हें सभ्य मानव ने जिन्दा अजायबघर बना रखा है, यह दिखाने के लिए कि मनुष्य किस जंगली अवस्था से आज की सभ्य स्थिति पर पहुंची है। इनमें शोम्पेनो की संख्या मात्र 150-200 है, जारवा 266-270, ओगीज 98-100, स्टेनेलीज भी 100-150 और 40-45 की संख्या में वे हैं जिन्हें ग्रेट अंदमानी कहा जाता है। जिस सभ्य मानव ने अमरीकी महाद्वीप में प्राचीन सभ्यताओं को नेस्तनाबूद कर दिया उसी ने इन आदिम जन समूहों को इतनी अल्प संख्या तक सीमित कर दिया। उनका अस्तित्व वह बचाये रखना चाहता है इसलिए नहीं कि उसे इनसे कुछ सीखना है या उनकी कोई उपयोगिता है बल्कि इसलिए कि वे इसके अहंकार की प्रदर्शनी है। इसलिए सुनामी का कहर ढहने पर दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विज्ञान और कोलकाता में एन्थ्रापालिकल सर्वे आफ इंडिया के अधिकारीगण बड़े चिन्तित थे कि ये आदिम मानव अवशेष बचे कि नहीं। अपनी आरामगाहों में बैठकर उन्होंने अपनी चिन्ता प्रचार-माध्यमों में उड़ेल दी, भारत सरकार को हड़काया कि वह जल्दी से जल्दी पता लगाये कि वह आदिम मानव-प्रदर्शनी अभी बची है कि नहीं। भारत सरकार ने अपने खोजी दल दौड़ा दिये। पता चला कि सुनामी लहर के पहले थपेड़े में ही निकोबार की संचार व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी, वहां का हवाई अड्डा नक्शे से गायब हो गया, हजारों मनुष्य मर गए, हजारों गायब हो गए पर ये मुट्ठी भर आदिम मनुष्य बचे रह गए। प्रकृति ने उन्हें क्यों छोड़ दिया? वे कैसे बच गए? कल प्रात: दक्षिण अंदमान के एक स्वास्थ्य केन्द्र पर पायनियर के संवाददाता राजीव राय को एक जारवा लड़का दिखाई दिया, उसने अपनी भाषा में बताया कि हम लोगों को सुनामी तूफान का पूर्वाभास हो गया था इसलिए हम लोग घने जंगलों में भाग गए और उन जंगलों ने हमारी रक्षा की। उसका उत्तर हमारी सभ्यता के गाल पर तमाचा है, हमने अपनी गगनचुम्बी अट्टालिकाओं, कार-सड़कों और विमानपत्तनों के लिए जंगल काट डाले, अपने और प्रकृति के बीच सभ्यता की कृत्रिम दीवार खड़ी कर दी। इसलिए प्रकृति से तादात्म्य के कारण जो कुछ ये आदिम लोग सूंघ लेते हैं, उसे सभ्य मानव नहीं सूंघ पाता। श्रीलंका में राहत कार्य में लगे लोग यह देखकर चकित रह गए कि उन्हें हजारों मानव-शव तो मिल रहे हैं पर पशु-शव अब तक एक नहीं मिला। कहां गए सब पशु? क्या उन्हें भी वह छठवीं इन्द्रिय प्राप्त है जो आगत को सूंघ लेती है? क्या इस सबको देखकर मनुष्य को अपनी सभ्यता की यात्रा के बारे में पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?प्रकृति के चमत्कारप्रकृति ने अनेक चमत्कारों के द्वारा मनुष्य को उसकी लघुता का बोध कराने की कोशिश की है। कैसा अद्भुत चमत्कार है। इंडोनेशिया के बातू नामक स्थान पर सब कुछ नष्ट हो गया है पर केवल बीस दिन की एक कोमल अबोध शिशु कन्या एक चटाई पर आराम से उस जल प्लावन पर तैर रही है मानो क्षीर सागर में लेटे भगवान विष्णु हों। कार निकोबार में एक भारतीय वायु सेना अधिकारी की तेरह वर्षीया पुत्री मेघना राजशेखर एक टूटे दरवाजे के सहारे 48 घंटे तक लहरों के साथ तैरती-उतराती रही, वही लहरें उस तट से दूर ले गईं और वही लहरें उसे तट पर वापस ले आयीं। ऐसा ही चमत्कार पोर्ट ब्लेयर में एक अन्य वायु सेनाधिकारी संजीव राघव की पुत्री माया के साथ हुआ। इंग्लैंड के एक पर्यटक दम्पत्ति ने थाईलैंड के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल फुकेत जाने के लिए स्टीमर के टिकट खरीदे, किन्तु स्टीमर यात्रियों से लबालब भर जाने पर उन्हें छोड़ गया। चमत्कार यह कि स्टीमर सब यात्रियों के साथ जलमग्न हो गया और ये बच गए। ऐसी चमत्कार-गाथाएं अनेक हैं किन्तु सबका निष्कर्ष एक ही है। इधर कन्याकुमारी में समुद्र के बीच स्थित विवेकानन्द शिला स्मारक और तिरुवल्लुवर की प्रतिमा से टकराकर समुद्र की लहरें वापस लौट गर्इं और सैकड़ों पर्यटकों की प्राण रक्षा हो गई। समुद्र से घिरा होने पर भी रामेश्वर का मंदिर अक्षुण्ण रहा। महाबलीपुरम् के समुद्र तट पर केवल 70 वर्ष पूर्व निर्मित पत्थर की दीवार तो एक ही थपेड़े में धराशायी हो गई पर सातवीं शताब्दी में निर्मित मंदिर सिर ऊंचा किए खड़ा है। इतना ही नहीं तो सुनामी लहर ने पीछे लौटते समय समुद्र के भीतर छिपे पुराने मंदिर-अवशेषों की झलक भी दिखा दी। प्रकृति और सभ्यता के इस संघर्ष में निहित सन्देश को समझने में ही मानव का कल्याण संभव है। (31-12-04)NEWS

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