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खण्डित भारत में भी पांच पाकिस्तान?देवेन्द्र स्वरूपदेवेन्द्र स्वरूपजमाते इस्लामी के अंग्रेजी साप्ताहिक मुखपत्र “रेडियंस” के 30 जनवरी के अंक में उमर खालिदी के लेख को पढ़कर देश में जो चिन्ता पैदा होनी चाहिए थी, वह क्यों नहीं है? उमर खालिदी को सामान्य मदरसायी कट्टरपंथी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। 1956 में भारत के हैदराबाद शहर में जन्मे खालिदी 21 साल की उम्र में 1977 में अमरीका चले गए। वहां विख्यात हार्वर्ड विश्वविद्यालय से उन्होंने 1991 में एम.ए. की डिग्री पायी। फिर ब्रिटेन के वेल्स विश्वविद्यालय से 1994 में “भारतीय मुसलमानों में राजनीतिक प्रक्रिया” विषय पर पीएच.डी. ली और आजकल अमरीका के अति प्रतिष्ठित शिक्षा केन्द्र मैसाचुसेट्स इन्स्टीटूट आफ टेक्नालाजी में इस्लामी वास्तुकला पर आगाखान कार्यक्रम के स्टाफ पर हैं। अमरीका के खुले वातावरण में 27 वर्ष बिताने और आधुनिक शिक्षा प्रणाली की सर्वोच्च डिग्रियां पाने के बाद भी उमर खालिदी को गर्व है कि भारतीय मुसलमान उनकी चेतना में गहरे समाये हुए हैं और इसीलिए वे भारतीय मुसलमानों की आर्थिक दशा पर एक पुस्तक तैयार करने में जुटे हुए हैं। इसी पुस्तक के सिलसिले में वे भारत आए। जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में एक मुस्लिम संस्था “इंडियन आब्जेक्टिव सोसायटी” के तत्वावधान में उन्होंने भाषण दिया, जिसमें सैयद शहाबुद्दीन जैसे मुस्लिम नेता भी उपस्थित थे। इसी यात्रा के दौरान उनका सिकन्दर आजम से जो वार्तालाप हुआ उसके कुछ अंश “रेडियंस” के उपरोक्त अंक में प्रकाशित हुए।पश्चिम के खुले वातावरण में पढ़े-बढ़े इस आधुनिक भारतीय मूल के मुस्लिम की सोच क्या है? खालिदी ने भारत में पांच ऐसे क्षेत्रों की पहचान की है जहां मुस्लिम संख्या बहुमत में पहुंच चुकी है या पहुंचने के निकट है। खालिदी का कहना है कि भारत के नए क्षेत्रीय पुनर्गठन की आवश्यकता है ताकि मुस्लिम प्रभाव के क्षेत्र स्वतंत्र जिले बन सकें। खालिदी की दृष्टि में ये क्षेत्र हैं- 1. प. बंगाल का मुर्शिदाबाद जिला, जहां मुसलमान बहुसंख्यक बन चुके हैं। 2. बिहार के पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार जिले, जहां मुस्लिम जनसंख्या पूर्ण बहुमत के निकट पहुंच रही है। 3. आन्ध्र में रंगारेड्डी जिला और उसके पड़ोस में कर्नाटक के गुलबर्गा व बीदर जिले। 4. हरियाणा के गुड़गांव और फरीदाबाद जिले तथा उनसे सटा राजस्थान का अलवर जिला, और 50 पश्चिमी उत्तरप्रदेश में रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, बरेली और पीलीभीत नामक जिलों को मिलाकर एक क्षेत्र।क्या है अधूरा एजेंडा?इस क्षेत्रीय पुनर्गठन के पक्ष में खालिदी का तर्क है कि 1. इससे वहां रहने वाले मुसलमान अपने को सुरक्षित अनुभव करेंगे, 2. उन्हें सांस्कृतिक स्वतंत्रता का वातावरण मिलेगा, और 3. विधानसभा व संसद में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ सकेगा। मुस्लिम प्रभाव के क्षेत्रों के पुनर्गठन की इस मांग के प्रति विभाजन की चोट खाए राष्ट्रवादी मन को चिन्ता मुक्त करने के लिए खालिदी तर्क देते हैं कि स्वाधीन भारत में क्षेत्रीय पुनर्गठन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रही है, 1953 में भाषावार राज्य बने, 1956 में तेलंगाना को आन्ध्र प्रदेश में मिलाया गया, 1960 में महाराष्ट्र और गुजरात राज्य बने, 2000 में उत्तरांचल, झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य बने। यदि यह कहें कि इन सब पुनर्गठनों के पीछे मजहबी आधार नहीं था तो खालिदी स्मरण दिलाते हैं कि आपने ही 1969 में केरल में मुस्लिम बहुसंख्या वाले जिले को अलग करके मलप्पुरम नाम दिया था। इसलिए उनकी क्षेत्रीय पुनर्गठन की मांग को सहज रूप से लिया जाना चाहिए। खालिदी कहते हैं कि यदि मुसलमानों को केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में शिक्षा व नौकरियों में आरक्षण का अधिकार दिया जा सकता है तो उनके लिए अलग क्षेत्र बनाने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए।खालिदी की सब लीपापोती के बावजूद इस मांग के पीछे विद्यमान मजहबी पृथकतावाद की भावना बहुत स्पष्ट है और उसमें भारत के नए विभाजन अथवा विघटन के बीज साफ दिखाई दे रहे हैं। कुछ सतर्क राष्ट्रवादी मस्तिष्कों का ध्यान इस पर गया और उन्होंने देश का ध्यान इस ओर आकर्षित करने का प्रयास किया। दीनानाथ मिश्र ने अपने साप्ताहिक स्तंभ में इसका उल्लेख किया और पांचजन्य ने “रेडियंस” में प्रकाशित लेख का पुनप्र्रकाशन करके पाठकों को इस खतरे के प्रति सचेत करने की कोशिश की। राष्ट्रवादी क्षेत्रों में इससे अधिक हलचल की कोई जानकारी मेरे ध्यान में नहीं आई। इससे भारत की एकता-अखण्डता में आस्था रखने वाला समाज भले ही चिन्तित न हुआ हो, पर सैयद शहाबुद्दीन जैसे पृथकतावादी मस्तिष्क अवश्य चौकन्ने हो गए।रेडियंस के ताजे अंक (24-30 अप्रैल) में सैयद शहाबुद्दीन ने खालिदी को फटकार लगाई है कि उन्होंने “एक अधूरे एजेंडे को उघाड़ कर राष्ट्रवादियों को चौकन्ना क्यों कर दिया।” ऊपर से शहाबुद्दीन खालिदी से मतभेद बता रहे हैं, किन्तु उनका पूरा लेख इस “अधूरे एजेंडे” को पूरा करने के लिए लालायित दिखता है। केवल वे उसके जनसंख्यात्मक एवं भौगोलिक यथार्थ को रेखांकित करके आगे बढ़ने के नए उपाय खोज रहे हैं। शहाबुद्दीन बताते हैं कि “प. बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में मुस्लिम जनसंख्या 63.67 प्रतिशत पहुंच चुकी है और वह बंगलादेश से मिला हुआ है। इसलिए वहां स्थिति बहुत अनुकूल है। किन्तु फिर भी वहां अब तक कोई पृथकतावादी आंदोलन नहीं उभरा है। और जब तक बंगाल में हिन्दू कट्टरवादियों की सरकार न बने, तब तक नहीं उभरेगा।” बिहार में खालिदी ने तीन जिले गिनाए थे। शहाबुद्दीन ने उसमें अररिया नामक जिले को भी जोड़ दिया है। वे प्रत्येक जिले की कुल जनसंख्या में मुस्लिम जनसंख्या के आंकड़े देकर मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात बताते हैं-पूर्णिया 36.76 प्रतिशत, किशनगंज 67.58, कटिहार 42.53 और अररिया 41.14। इन चारों जिलों को मिलाकर मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 44.29 प्रतिशत बैठता है। शहाबुद्दीन कहते हैं कि इतना भारी अनुपात होने पर भी इस क्षेत्र की सीमा बंगलादेश से नहीं लगती है। अब वे आते हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। वहां मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात रामपुर में 49.14 प्रतिशत, मुरादाबाद में 45.54, बिजनौर में 41.71, बरेली में 33.89 और पीलीभीत में 23.75 और पूरे क्षेत्र का मिलाकर 39.66 प्रतिशत है। सैयद शहाबुद्दीन की चिन्ता है कि इस क्षेत्र की सीमा न पाकिस्तान से लगती है और न बंगलादेश से। चौथे, मेवात क्षेत्र के गुड़गांव जिले में मुस्लिम अनुपात 37.22 प्रतिशत, फरीदाबाद 11.27 और अलवर में 12.81, कुल मिलाकर 18.23 प्रतिशत बैठता है। अत: यह क्षेत्र मुस्लिम जनसंख्या की दृष्टि से अभी काफी पीछे है। इसी प्रकार आन्ध्र के रंगारेड्डी जिले में मुस्लिम अनुपात 11.42 प्रतिशत है, कर्नाटक के बीदर में 19.69 और गुलबर्गा में 17.60 प्रतिशत है। इस पूरे क्षेत्र में मुस्लिम अनुपात 15.29 पहुंचता है और यह क्षेत्र भारत के मध्य में स्थित है। मुस्लिम जनसंख्या के आंकड़ों के प्रति मुस्लिम बुद्धिजीवियों एवं राजनीतिज्ञों की यह जागरूकता स्वयं में उनकी मानसिकता और सोच का बोलता प्रमाण है। इससे उनकी रणनीति की दिशा को समझने में भी सहायता मिल जाती है। सैयद शहाबुद्दीन की चिन्ता है कि आन्ध्र और कर्नाटक के जिलों को मिलाकर बनने वाला “दक्कन प्रान्त” चारों तरफ गैर मुस्लिम बहुसंख्या से घिरा है। वही स्थिति मेवात की है। रामपुर क्षेत्र और पाकिस्तान के बीच मुस्लिम शून्य पंजाब है। शायद इसीलिए इस समय पाकिस्तान अपना पूरा ध्यान सिखों पर केन्द्रित कर रहा है। पाकिस्तानी पंजाब और भारतीय पंजाब के बीच सम्बंधों का भावुक वातावरण पैदा किया जा रहा है। पाकिस्तान की इस रणनीति की ओर भारत ने गहरा ध्यान नहीं दिया गया है और उसमें निहित खतरनाक संभावनाओं का कोई विश्लेषण मेरे ध्यान में नहीं आया है।सैयद शहाबुद्दीन को उमर खालिदी से यह शिकायत तो है ही कि उन्होंने इन अधूरे एजेंडों पर से पर्दा हटा कर राष्ट्रवादियों को चौकन्ना कर दिया है, बड़ी शिकायत यह है कि खालिदी द्वारा 5-6 “लघु पाकिस्तानों” में कुल मुस्लिम जनसंख्या का केवल 11.26 प्रतिशत भाग समाहित होता है अर्थात् 88 प्रतिशत मुसलमान बाहर रह जाते हैं। उनका क्या होगा? इसलिए उनका सुझाव है विधानमंडलों एवं संसद के प्रतिनिधित्व का आधार जनसंख्या होना चाहिए। साथ ही, सत्ता का निचले स्तर तक विकेन्द्रीकरण होना चाहिए ताकि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से सत्ता सहज रूप से मुस्लिम हाथों में पहुंच जाए। शहाबुद्दीन जैसे मुस्लिम विचारक बार-बार कहते रहे हैं कि मुसलमानों को अपना स्वतंत्र राजनीतिक दल न बनाकर सेकुलर हिन्दू पार्टियों के मध्य से ही अपनी मांगों को आगे बढ़ाना चाहिए ताकि जाति, क्षेत्र, भाषा और अनेक राजनीतिक दलों में विभाजित हिन्दू नेतृत्व पूरी तरह संगठित मुस्लिम वोटों पर निर्भर हो और इसलिए मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लिए उनमें तीव्र प्रतिस्पर्धा बनी रहे।मुस्लिम वोट बैंक की होड़यह प्रतिस्पर्धा कैसे काम करती है, इसका दृश्य हमारी आंखों के सामने है। बिहार में स्वयं को मुस्लिम समाज का हमदर्द दिखाने के लिए लालू और रामविलास पासवान में गलाकाट होड़ लगी हुई है। लालू गुजरात के दंगों के लिए मोदी को राक्षस दिखाकर मुसलमानों को रिझा रहे हैं तो रामविलास पासवान दलित-मुस्लिम गठबंधन का राग अलाप रहे हैं और अपनी पार्टी के टिकट पर एक भी मुसलमान को न जिता पाने पर भी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाने का शोर मचा रहे हैं। राष्ट्रवादी राजनीतिक प्रक्रिया में से मुसलमानों के विधायक या मुख्यमंत्री बनने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है, यह बात भारतीय जनता पार्टी से खुला गठबंधन करने वाली जनता दल (यू) के टिकट पर चार मुस्लिम विधायकों के निर्वाचन और 1970 के दशक में कांग्रेसी नेता अब्दुल गफूर के मुख्यमंत्री बनने से प्रमाणित है। पर सत्ता के लोभ में मुसलमानों में मजहबी और पृथकतावादी भावनाओं को उभाड़ने की जो होड़ इस समय मिथ्या सेकुलरों में लगी है उसके परिणाम क्या निकलेंगे, यह स्वाधीनता संघर्ष के दौरान कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच मुस्लिम प्रश्न पर प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप देश विभाजन की त्रासदी से बहुत स्पष्ट है। वही इतिहास पुन: दोहराया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस दोनों के बीच मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की होड़ लगी है। इस होड़ में से उर्दू विश्वविद्यालय, गाजियाबाद में गैरकानूनी ढंग से हज हाउस का विरोध और अन्तरराष्ट्रीय विरासत का दर्जा पाने वाले ताजमहल को मुसलमानों की मजहबी सम्पत्ति घोषित करने के लिए मुलायम सिंह के खास सिपहसालार मोहम्मद आजम खां की कोशिशें पैदा हुई हैं। इन पृथकतावादी मजहबी मांगों के रास्ते में राज्यपाल टी.वी. राजेश्वर को रोड़ा पाकर आजम खां ने राज्यपाल को जिस प्रकार सार्वजनिक मंचों से भद्दी-भद्दी गालियां दीं उससे स्पष्ट है कि विभाजन के बाद भी मुस्लिम नेतृत्व शक्ति प्रदर्शन की उसी भाषा में सोच रहा है जिसका प्रदर्शन उसने विभाजन के पूर्व कलकत्ता और नोआखली के नरमेध के रूप में किया था। राजनीति में शालीनता की सब मर्यादाएं ढह गई हैं। लालू यादव लाठी रैली बुलाते हैं, सार्वजनिक मंच पर लाठी भांजते हैं, आडवाणी जैसे शीर्षस्थ नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को चूहा, कुत्ता, गुंडा, नपुसंक जैसी अशोभनीय गालियां टेलीविजन स्क्रीन पर देकर अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हैं। साबरमती एक्सप्रेस की दुर्घटना में मारे गए बीसों मृतकों और सैकड़ों घायलों के प्रति संवेदना के दो आंसु उनके पास नहीं। उनकी पूरी ताकत गुजरात, गोधरा और नरेन्द्र मोदी को गालियां देकर मुस्लिम वोट बटोरने की है,सीवान के शहाबुद्दीन और किशनगंज के तस्लीमुद्दीन के सब अपराध कर्मों पर पर्दा डालकर उन्हें मंत्री पद दिलाना ही उनकी राजनीति का एकमात्र लक्ष्य है।सेकुलर नीतियांस्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाली सोनिया पार्टी भी विभाजन के इतिहास से कोई शिक्षा न लेकर मुस्लिम पृथकतावाद को उभाड़ने में लगी है। दिल्ली में मुस्लिम काल के मकबरों, दरगाहों एवं अन्य स्मारकों के रखरखाव और सुरक्षा पर राष्ट्रीय कोष से अपार धनराशि खर्च की जा रही है, मीडिया उनके वर्णन से भरा रहता है, किन्तु बहुसंख्यक हिन्दू समाज के धन से संरक्षित इन स्मारकों पर मुस्लिम समाज अपना मजहबी अधिकार जमा लेता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित स्मारकों में मुसलमानों ने तमाम कानूनों का उल्लंघन करके जबर्दस्ती नमाज पढ़नी शुरू कर दी और सरकार चुपचाप देखती रह गई। दिल्ली उच्च न्यायालय में लम्बे समय से एक जनहित याचिका विचाराधीन है कि जामा मस्जिद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए उसे संरक्षित स्मारक घोषित कर के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को सौंप दिया जाना चाहिए। किन्तु मामला विचाराधीन होते हुए भी केन्द्र में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के सत्तारूढ़ होते ही 20 अक्तूबर, 2004 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने संस्कृति मंत्रालय को लिखित आदेश दिया कि एक निश्चित अवधि के भीतर पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के द्वारा जामा मस्जिद की पूरी मरम्मत राजकोष से कराई जाए। साथ ही, संस्कृति मंत्रालय ने मुसलमानों के दबाव में आकर निर्णय ले लिया कि जामा मस्जिद को पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अन्तर्गत संरक्षित स्मारक घोषित नहीं किया जाएगा और उस पर मुसलमानों के वक्फ का अधिकार रहेगा। इन दो परस्पर विरोधी निर्देशों से क्षुब्ध होकर उच्च न्यायालय ने पूछा कि यदि जामा मस्जिद को संरक्षित स्मारकों की श्रेणी से बाहर रखा गया है तो उसकी मरम्मत और रख-रखाव पर जनता का पैसा क्यों खर्च किया जा रहा है? मुख्य न्यायाधीश बी.सी. पटेल और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की खंडपीठ ने सरकार से पूछा कि “क्या आप किसी डरते हैं? आप बतायें कि कितने स्मारकों के सम्बन्ध में आपने ऐसे परस्पर विरोधी निर्देश जारी किये हैं?” किन्तु वोट बैंक राजनीति के सामने न्यायपालिका की कौन सुनता है।इस देश में बहुसंख्यक समाज की आर्थिक दुर्दशा और बेरोजगारी की कोई चिन्ता नहीं है, रात-दिन मुसलमानों के ही आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का राग अलापा जा रहा है। जबकि जमीनी स्थिति इसके एक विपरीत है। मुसलमानों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने का रास्ता साफ करने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने मानवाधिकारवादी और मुस्लिमपरस्त पूर्व न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय कमेटी बनायी है जो मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति पर जून, 2006 तक अपनी रपट देगी। यदि देशभर में बिखरे मुसलमानों का गांव व नगरश: सर्वेक्षण कराया जाय तो अब तक के अनुभव से कहना होगा कि यह कार्य जून, 2006 तक कदापि पूरा नहीं हो सकेगा, किन्तु निष्कर्ष और आंकड़े पहले से तय हों तो रिपोर्ट बनाना मात्र औपचारिकता रह जाती है। पाञ्चजन्य के माध्यम से मैं समिति का आह्वान करता हूं कि मुरादाबाद जिले के जिन तीन-चार कस्बों से मेरा सम्पर्क है वहां का सर्वेक्षण कराने में समिति को मदद मिल सकती है। किन्तु मुझे विश्वास है कि यह समिति महज एक खानापूरी है। अगले चुनावों के पूर्व मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की एक चाल मात्र है। भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखकर कभी-कभी लगता है कि अब देश पुन: विभाजन पूर्व की स्थिति में पहुंच गया है। इस स्थिति की मांग है कि राष्ट्रवादी शक्तियां अपने आपसी मतभेदों को भूला कर एक संयुक्त रणनीति तैयार करें, विभाजन पूर्व इतिहास का गहरा अध्ययन करें। अन्यथा, भावी पीढ़ी से उन्हें क्षमा नहीं करेगी।NEWS
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