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ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरियाशिव ओम अम्बरशिव ओम अम्बरमैंउस दिन भोपाल से “भारत-भवन” में आयोजित त्रि-दिवसीय “कवि-भारती” में भाग लेकर वापस फर्रुखाबाद आ रहा था। मेरे सह यात्री एक साहित्यकार बन्धु ही थे। मार्ग में ही परिचय हुआ। वह जनवादी लेखक संगठन से बड़ी ही निष्ठा के साथ जुड़े थे और साहित्य को एक विशिष्ट विचारधारा के साथ देखने के पक्षपाती थे। वार्ता के क्रम में उन्होंने अचानक दो व्यक्तियों का नामोल्लेख किया और उनकी वाणी तब सहज श्रद्धा से दीप्त हो उठी। ये नाम थे- सर्वश्री विद्यानिवास मिश्र और आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री। उन्होंने कहा कि जब-जब इन लोगों से मिला हूं, मैं अनायास श्रद्धा से अभिभूत होकर इन्हें प्रणाम करने को झुक गया हूं। इनका लेखन साहित्य की विभूति है, विचारधाराओं के कोष्ठकों से निकलकर एक संवेदनशील पाठक उन्हें पढ़कर जीवन के लिए सहज ऊर्जा प्राप्त करता है। सहयात्री बन्धु कुछ देर बाद अपने गन्तव्य स्टेशन पर उतरे और लगभग उसी समय यह समाचार प्राप्त हुआ कि शास्त्री जी आकस्मिक रूप से हम सबको छोड़कर अनन्त की यात्रा पर प्रस्थान कर गये।अभिव्यक्ति मुद्राएंजीवन एक निबन्ध सा यों पाये विस्तार,पानी ही प्रस्तावना पानी उपसंहार।-अशोक अंजुमसपने घेरे में लिये ज्यों दहशत मुस्तैद,नदी हो गई बांध के भीतर ऐसे कैद।-डा. विनय मिश्रआंखों का पानी मरा हम सबका यूं आज,सूख गये जल स्रोत सब इतनी आई लाज।-गोपालदास नीरजप्यासी है सारी प्रजा प्यासा है सम्राट,हवनकुण्ड से हो गये पानी वाले घाट।-यश मालवीयपानी का हर रूप है जीवन का पर्याय,आंसू-खुशियां – वेदना सब इसके अध्याय।-जय चक्रवर्तीघर आते ही पाया कि नगर के साहित्यानुरागियों का एक समूह मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। हर व्यक्ति को ऐसा महसूस हो रहा था कि वक्त ने उसे व्यक्तिगत आघात दिया है। श्रद्धेय गुरुवर यहां एक दीक्षान्त समारोह को सम्बोधित करने आये थे। उन्होंने स्व. ब्राहृदत्त द्विवेदी की स्मृति से संयुक्त “पाञ्चाल-पर्व” को सम्बोधित किया था और भारती-भारती भवन में स्थापित वागीश्वरी-प्रतिमा के प्रथमार्चन के लिए उपस्थित हुए थे और एक भावपूर्ण प्रवचन दिया था। हर व्यक्ति के पास उनके वत्सल व्यक्तित्व से जुड़ी प्रेरणास्पद स्मृतियों का पावन संभार था और मैं उनकी ओर देखकर इन पंक्तियों के अर्थ को साकार होता पा रहा था-कितनी भारी कमी हो गई,हर नयन में नमी हो गई।एक उसके गुजर जाने से, सबके घर में गमी हो गई।इस अवसर पर पढ़े गये श्रद्धा-प्रपत्र की कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियां हैं- महाष्टमी की तिथि को उनकी पार्थिव देह महाशक्ति की करुणामयी गोद में रही और आज श्री रामनवमी की तिथि को अन्त्येष्टि के अग्नि-रथ पर बैठकर वह अपने राम जी की फैली बांहों में समा गये।उनकी स्वस्तिप्रद स्मृति को प्रणाम करते हुये हम सब प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वह साहित्यानुरागियों के रूप में नगर-नगर, गांव-गांव फैले उनके विराट परिवार को उनके द्वारा जिये गये आदर्शों को आत्मसात् करने की शक्ति दें।आज की इस भावतरल घड़ी में हम श्रद्धेय आचार्य जी की प्रस्तुत पंक्तियों को दोहराते हुए पुन:-पुन: उन्हें नमन करते हैं, उनकी सन्निधि का अनुभव कर रहे हैं-दु:ख की बदली सुख का चन्दा जीवन की सच्चाई दोनों,दु:ख-सुख में यदि सम रह पाएं तो देंगे गहराई दोनों।दुर्बल मन पर थोड़े में ही घबराया इठलाया करता,समझ न पाता प्रभु की भेजी सचमुच हैं अच्छाई दोनों।तथामृत्यु तुम्हारा मुझको क्या भय जब आना हो आओ,जर्जर वस्त्र बदलकर मुझको नया वस्त्र पहनाओ।झेल चुका ये नाते- रिश्ते सुख-दु:ख की छलनाएं,राम-मिलन संभव हो जिसमें ऐसा जन्म दिलाओ।श्री बड़ा बाजार कुमारसभा, कोलकाता ने डा. प्रेमशंकर त्रिपाठी के प्रधान सम्पादकत्व में “विष्णुकान्त शास्त्री अमृत महोत्सव अभिनन्दन ग्रंथ” प्रकाशित कर हिन्दी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की है। श्रद्धेय शास्त्री जी की सारस्वत साधना एवं बहु आयामी सक्रियता का अक्षर अभ्यर्चन करने वाले इस ग्रन्थ के पांच खण्डों में उनके व्यक्तित्व की समग्रता को शब्दायित करने की स्तुत्य चेष्टा की गई है। मुखपृष्ठ पर शास्त्री जी की भुवनमोहिनी मुस्कान वाली दिव्य छवि इस ग्रन्थ की ओर सहज आकृष्ट कर लेती है। आज स्मृति शेष गुरुवर शास्त्री जी के विषय में लिखते समय इस ग्रन्थ में समाहित आलेखों में से कुछ की कतिपय हीरक पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उनके प्रति समग्र साहित्य-जगत् की श्रद्धान्वित प्रणति निवेदित करता हूं। डा. विद्यानिवास मिश्र का कथन है, “आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री प्राचीन से आधुनिक काल के अक्षय स्मृतिकोष हैं। इसके साथ ही मधुर व्यवहार के भी वे अक्षयकोष हैं।” डा. प्रभाकर श्रोत्रिय की अनुभूति है, “अगर मैं कहूं कि शास्त्री जी साक्षात् काव्य रूप हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।”… श्रीमती सुषमा स्वराज की मान्यता है- “महापुरुष बाहर से महान दिखते हैं, जब उनके नजदीक जाओ तो धीरे-धीरे महानता घटती जाती है, लघुता में परिवर्तित होती जाती है। … लेकिन एक ऐसे व्यक्ति को मैंने देखा जिनकी महानता बड़ी से बड़ी होती गई। सिर्फ इसलिए कि उनका लक्ष्य बड़ा था, उनकी तपस्या बड़ी थी, उनकी वाणी मृदु थी लेकिन उनका अहम् बहुत छोटा था जो हर चीज का दोष स्वयं लेता था, श्रेय राम को देता था और ऐसी जिन्दगी का नाम है आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री।”NEWS
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