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आलोक गोस्वामी से बातचीत पर आधारितए.सूर्यप्रकाश, वरिष्ठ विश्लेषकआजादी के बाद 56 वर्षों के कालखण्ड में ज्यादातर समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकारें रही हैं। इस दौरान कांग्रेस ने धारा 356 का जमकर दुरुपयोग किया है। कांग्रेस की परम्परा रही है रातों-रात कैबिनेट की बैठक बुलाकर राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने की। लेकिन जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें होती हैं, वहां किसी तरह की अंदरूनी कलह या दल-बदल के कारण सरकार अगर डगमगाने लगती है, तब भी महज समय लेकर सुधार करने की गरज से भी कांग्रेस ने उन राज्यों में धारा 356 लगाई है। राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्य विधानसभा निलम्बित रहती है और कांग्रेस को जोड़-तोड़कर अपना बहुमत बनाने का मौका मिल जाता था। जब यह हरकत बहुत ज्यादा बढ़ गई और धारा 356 का खुलेआम दुरुपयोग किया जाने लगा तो सर्वोच्च न्यायालय ने बोम्मई मामले में कुछ नियम तय कर दिए। न्यायालय ने कुछ विशेष परिस्थितियों में और जरूरी होने पर ही धारा 356 की अनुशंसा करने का आदेश दिया। साथ ही यह भी कहा कि जिन कारणों की आड़ में राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा उनकी, अगर जरूरत पड़ी तो, न्यायालय पड़ताल कर सकता है। दूसरा, राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए दोनों सदनों का अनुमोदन जरूरी है। तीसरा, विधानसभा भंग करने के कारणों की न्यायालय द्वारा समीक्षा की जा सकती है। और अगर न्यायालय को लगा कि विधानसभा भंग करने के पर्याप्त कारण नहीं थे तो वह उसे पुन: बहाल करने का निर्देश दे सकता है। सर्वोच्च न्यायालय की यह महत्वपूर्ण व्यवस्था पांच सदस्यीय खण्डपीठ ने दी थी। जिस तरह से गत 22 मई की आधी रात बिहार विधानसभा भंग करने का असंवैधानिक निर्णय लिया गया, उसके विरुद्ध अगर कोई व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करता है तो न्यायालय इस पर कार्रवाई करेगा।बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह पिछले कई दिनों से टेलीविजन चैनलों पर कहते आ रहे थे कि विधायकों की खरीद-फरोख्त हो रही थी। पर उन्होंने यह कहीं नहीं बताया कि कौन यह कर रहा था, किसके साथ ऐसा हो रहा था। बूटा सिंह आखिर एक कांग्रेसी ही हैं। और जाहिर है वही करेंगे जो कांग्रेस के हित में होगा। अगर वहां विधायक किसी तरह लोकप्रिय सरकार बनाने की कोशिश कर रहे थे, जो कांग्रेस के हित में नहीं था, उसे वे खरीद-फरोख्त ही तो कह सकते थे। वहां लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के विधायक अपने अध्यक्ष रामविलास पासवान से बहुत नाराज थे, क्योंकि वे बिहार में सरकार बनाने के बारे में गंभीर नहीं थे। चुने गए विधायक खफा थे कि पासवान के कारण विधानसभा ही भंग हो जाने का माहौल बन गया था। 29 में से 20 लोजपा विधायक जद (यू) के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश कर रहे थे। यह दल-बदल विरोधी कानून का मामला कतई नहीं था। न ही इसे खरीद-फरोख्त कहा जा सकता था। इस तरह की गतिविधि देखकर और राजग सरकार बनने की संभावना से तिलमिलाई केन्द्र की संप्रग सरकार ने विधानसभा भंग करने का निर्णय ले लिया। कांग्रेस की यह चाल राजनीतिक और संवैधानिक तौर पर बिल्कुल गलत है।कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब वहां विधानसभा का गठन ही नहीं हुआ था तो भंग कैसे की जा सकती है। मेरा मानना है कि चुनाव के बाद चुनाव आयोग अधिसूचना जारी करता है। इस अधिसूचना के जारी होते ही नई विधानसभा गठित मानी जाती है। किसी विधायक या किसी सांसद ने सदन की सदस्यता की शपथ भले न ली हो, पर सदन का सृजन तो अधिसूचना के साथ हो जाता है।राष्ट्रपति शासन लगने के बावजूद बिहार में परोक्ष रूप से लालू यादव का ही राज चल रहा था। शहाबुद्दीन जैसे दागी सांसद के विरुद्ध कार्रवाई करने वाले जिलाधिकारी का तबादला यह सिद्ध करता है। वहां के प्रशासन पर लालू यादव की पकड़ कसती जा रही थी।दरअसल बिहार की जनता ने 15 वर्ष से जारी लालू यादव सरकार के जंगलराज से मुक्ति का जनादेश दिया था। वहां न संविधान की मर्यादा बची थी, न कानून की। बिहार में लालू यादव ने कानून से बाहर अपना निजी तंत्र बनाया हुआ था। पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी भी ठीक से काम नहीं कर पा रहे थे। धीरे-धीरे बिहार देश के बाकी राज्यों से बहुत पिछड़ गया।केन्द्र सरकार में भी लालू यादव की बहुत ज्यादा दखल दिखाई दे रही है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के ऊपर इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा। लालू यादव के दबाव में आकर बिहार के राज्यपाल से रपट मांगी गई। बिहार के लोग लालू यादव के जंगलराज के विरुद्ध आवाज बुलंद कर रहे थे और जिस तरह की नकारात्मक छवि लालू यादव की बन चुकी है उसका असर अब कांग्रेस के ऊपर दिखने लगा है। हमारे लोकतंत्र और व्यवस्था पर इस व्यक्ति के कारण बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है। जितना जल्दी हो सके इस ओर ध्यान देना चाहिए। मुझे लगता है कि कुछ समझदार कांग्रेसी इस बारे में चिंतित भी हैं। राजद जैसे दलों के साथ मिलकर कांग्रेस की छवि धूमिल हो रही है। देश के नागरिक भी लोकतंत्रीय व्यवस्था पर मंडरा रहे इस खतरे के प्रति चिंतित हैं। बिहार विधानसभा भंग करने के निर्णय पर विदेश प्रवास पर गए राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम से हस्ताक्षर करवाना किसी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि अगर देश मे ंकोई ऊंचे से ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति संविधान के विरुद्ध कोई काम करता है तो इस देश का कोई भी नागरिक सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। हम, इस देश के नागरिक, आज इतने असहाय नहीं हैं। गोवा, झारखण्ड के मामलों में हम न्यायालय की प्रभावी भूमिका देख चुके हैं। अब बिहार में भी “संतों की सरकार” के किसी भी गलत निर्णय के खिलाफ न्यायालय का दरवाजा खुला है।(आलोक गोस्वामी से बातचीत पर आधारित)NEWS
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