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साहित्य-भारती का नागरी गजल विशेषांकएक विडम्बना!शिव ओम अम्बरशिव ओम अम्बरउत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने समकालीन हिन्दी गजल के महत्व को रेखांकित करने के लिए अपनी त्रैमासिक पत्रिका “साहित्य भारती” का एक पूरा अंक युवा रचनाकार अशोक रावत के सम्पादन में “नागरी गजल विशेषांक” के रूप में प्रकाशित किया है। इसकी परिकल्पना संस्थान के उपाध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार सोम ठाकुर की है। उन्होंने ही हिन्दी गजल को लिपि के आधार पर नागरी गजल की संज्ञा से अभिहित किया है और माना है कि इस नाम के साथ वह सभी वर्गों के लिए और अधिक स्वीकार्य बनेगी। दुष्यन्त कुमार की “साये में धूप” की लोकप्रियता ने परम्परागत गजल से अलग हटकर अपने व्यक्तित्व की तेजस्विता को प्रतिष्ठित किया था। आपातकालीन परिवेश में रची गई ये गजलें तत्कालीन राजसत्ता के प्रति विक्षोभ की प्रकाशिका और विद्रोह की कारिका अग्नि-शिखाओं की तरह सहृदयों को प्रतीत हुईं और दुष्यन्त “सल्तनत के नाम बगावत का बयान” प्रस्तुत करने वाले गजलगो के रूप में अभिवन्दित हुए। चूंकि उस समय उर्दू में लिखी जा रही गजलों में परम्परा से चले आ रहे पिष्टपेषित विषयों और प्रतीकों का ही प्राधान्य था, देवनागरी लिपि (जो हिन्दी के पर्याय-सी है) में सामने आई इन गजलों को सहज भाव से हिन्दी गजल कहकर पुकारा गया। कुछ समय के बाद पद्मश्री गोपालदास नीरज ने हिन्दी गजल को गीतिका कहकर पुकारा तो श्री चन्द्रसेन विराट ने उसका नाम मुक्तिका रखा। डा. मोहन अवस्थी के अनुसार वह अनुगीत है तो उसकी अग्निधर्मा प्रकृति के कारण श्री रमेश राज उसे तेवरी कहते हैं। सभी विद्वानों ने अपने-अपने द्वारा दी गई संज्ञा का तार्किक विश्लेषण करते हुए उसकी अर्थवत्ता प्रमाणित करने का प्रयास किया है और चाहा है कि उनकी अवधारणा सभी को ग्राह्र हो। अब हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष के आसन से कविवर सोम ठाकुर हिन्दी गजल को नागरी गजल बताकर अपील कर रहे हैं, “नागरी गजल साझा तहजीब की हिफाजत के लिए उर्दू गजल के साथ जंग में उतरे”। पत्रिका में दिये गये अपने साक्षात्कार में उन्होंने नागरी गजल के भविष्य को स्वर्णिम बनाने के लिए पर्याप्त वैचारिक सूत्र दिये हैं। उनकी मान्यता है, “हमारी दृष्टि से अघोषित रूप से सहमत होने के कारण उूर्द के आज के शीर्षस्थ रचनाकार निदा फाजली, बशीर बद्र और मुनव्वर राना जैसे खुले दिल-दिमाग के लोग अपने संग्रह नागरी लिपि में प्रकाशित करा रहे हैं।” सोम जी घोषित करते हैं- “नागरी गजल मांगे के तामझाम से युक्त चमक-झमकमय सिंहासन पर नहीं मुक्ताकाश के नीचे सूर्यालोक से दीप्त मृगछाला पर अवस्थित होगी जिसे कोई इन्द्र भी चुनौती नहीं दे सकेगा।”पूरी पत्रिका सोम जी की स्वप्नदर्शी चेतना और अशोक रावत के श्रम का साक्ष्य देती है। समकालीन हिन्दी गजल के अधिकांश प्रतिनिधि हस्ताक्षरों को उनकी गजलों, आलेखों और साक्षात्कारों के साथ सुरुचिपूर्ण ढंग से सामने लाने में भी पत्रिका सफल रही है। किन्तु मेरे चित्त को इस अंक में प्रकाशित एक शोर बेतरह विक्षुब्ध कर रहा है- किसी सुस्वादु खीर में पड़ी हुई जहरीली कंकड़ी की तरह! जिन रचनाकारों की चार-चार गजलें प्रकाशित कर सम्पादकीय दृष्टि ने जिन्हें सर्वाधिक महत्व प्राप्ति का अधिकारी माना है उन्हीं में से एक (अयाज झांसवी जी) की एक गजल का अन्तिम शोर जिस आकांक्षा को प्रतिध्वनित कर रहा है वह सोम जी के ऊपर उद्धृत बयानों का निर्मम उपहास करती प्रतीत होती है। यह किस साझा तहजीब की मंगल-कामना है कि हे प्रभु! जिस तरह तू एक धूलि-कण को प्रकाशमान सूर्य की गरिमा दे देता है, एक जलबिन्दु को विराट नदी के प्रवाह की गत्यात्मकता दे देता है उसी प्रकार मेरे शरीर पर महमूद गजनवी के लिबास को सुशोभित करा दे-दिया है जर्रे को खुर्शीद कतरे को दरिया,अयाज को भी दे महमूद गजनवी का लिबास।अभिव्यक्ति-मुद्राएंरोज बढ़ते रहते हैं कुछ मकान बस्ती में,रोज घटता रहता है आसमान बस्ती में-हरजीत सिंहढूंढ़ रहे हो गांव-गांव में जाकर किस सच्चाई को,सच तो सिर्फ वही होता है जो दिल्ली दरबार कहे।-बालस्वरूप राहीहैं हवाएं पूछती फिरतीं सभी से आजकल,तितलियों के नाम से खुशबू चुराता कौन है?-माहेश्वर तिवारीक्यों आप चढ़ रहे हैं सभी की निगाह में,सबके दिलों में आप उतर क्यों नहीं जाते।-कृष्णानन्द चौबेकोई पत्ता भी तोड़े शाख से तो दिल लरजता है,वो कैसे लोग हैं बच्चों के दिल जो तोड़ देते हैं।-मासूम गाजियाबादी”मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर” लिखने वाले रचनाकार के संरक्षण में निकली पत्रिका में एक निर्मम आक्रान्त को महिमामण्डित करने वाली उक्ति का सम्मान के साथ प्रकाशित होना कितनी बड़ी विडम्बना है!मीरा पंचशती और तथाकथित स्त्री-विमर्शमीरा शब्द का उच्चारण करते ही मन में आद्र्र मौसम में पृथ्वी से आकाश तक खिंचे भक्तिकाव्य के इन्द्रधनुष की सप्तवर्णी रेखा का बिम्ब उभरता है। पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण की शारीरिक उपस्थिति की सन्निधि में न जाने कितनी भाव-वृत्तियां रागारुण हुईं किन्तु आज से पांच सौ वर्ष पूर्व अपनी भावमयी आत्मशक्ति के बल पर कृष्ण का साक्षात्कार करने में और उनके साथ माधुर्य की रेशम-डोरी से जुड़ जाने में केवल मीरा ही सफल हो सकीं। उनकी कविता उनके कृष्णार्पित चित्त की नृत्यभंगिमाओं का शब्दांकन ही है- उसे गाकर, गुनगुनाकर हर सहृदय अनायास श्रीकृष्ण- मन्दिर में हो रही मंगला-आरती की स्वर लहरी से संयुक्त हो जाता है। किन्तु मीरा पंचशती वर्ष में हमारी प्रगतिशील कही जाने वाली तथाकथित जनवादी चेतना ने मीरा के साथ स्त्री-विमर्श की जिस अत्याधुनिक चिन्तन-दृष्टि को जोड़ा है वह चौंकाती ही नहीं भावप्रवण कलेजे को चाक भी करती है। “फिलहाल” तथा “जनमत” नामक पत्रिकाओं में अपने वैदुष्य को प्रकट करने वाली अनुराधा जी के एक वृहत् आलेख की कुछ निष्पत्तियां इस प्रकार हैं-मीरा के प्रेम पर अलौकिकता का आवरण आग्रही समीक्षकों ने चढ़ाया है, वस्तुत: वह गिरिधर नामक एक व्यक्ति के प्रेम में थीं जो राज-परिवार से अलग निम्न जाति का था।चूंकि वह व्यक्ति राजसत्ता से टकरा नहीं सका अत: पलायन कर साधु हो गया। मीरा उसे युद्ध छोड़कर जाने वाला (रणछोड़ दास) कहने लगीं।अपने अनेक पदों में मीरा उसी को जोगी कहकर पुकारती हैं।उसी जोगी की खोज में वह जंगल-जंगल भटकती हैं और साधुओं से उसका पता पूछती हैं।इसी सन्दर्भ में उनकी बदनामी राजसत्ता को क्रुद्ध कर देती है।मीरा विद्रोहिणी स्त्री हैं, स्त्री-विमुक्ति की आदि संघर्ष-कत्र्री।तथाकथित स्त्री-विमर्श के इन क्रान्तिकारी निष्कर्षों को पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया हूं!NEWS
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