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मंथन

by
Feb 10, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Feb 2005 00:00:00

हिन्दू नेतृत्व के सामने यक्ष-प्रश्नदेवेन्द्र स्वरूपयह कैसा “सेकुलरिज्म” है जो वृद्धजनों की देखभाल में भी मजहब के आधार पर भेद करता है? जो पैतृक सम्पत्ति के बंटवारे में भी मुस्लिम महिलाओं की चिन्ता नहीं करता? सब कानून हिन्दुओं पर ही क्यों थोपे जाते हैं? कैसी विचित्र स्थिति है कि जिस समय भारत और विदेशों में बिखरा लगभग प्रत्येक हिन्दू परिवार आश्विन कृष्ण एकम् (18 सितम्बर, 2005) से आरम्भ हुए श्राद्ध पक्ष में अपने पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण-तर्पण कर रहा है, उस समय पश्चिम की दृष्टि से भारत को देखने वाले और सरकारी व विदेशी धन पाने के लिए व्याकुल गैर सरकारी संस्थाओं के उकसावे में आकर सरकारी समाज सुधारकों ने एक कानून बनाने का निर्णय लिया जिसके अन्तर्गत अपने बूढ़े माता-पिता का भरण-पोषण न करने वाली सन्तान को कानून दंडित कर सकेगा। आश्चर्य है कि यह कानून केवल हिन्दू समाज पर लागू होगा। मुस्लिम और ईसाई समाजों को उसकी परिधि से बाहर रखा गया है। क्या मुस्लिम या ईसाई समाजों के वृद्धजनों के प्रति राज्य का कोई दायित्व नहीं है? क्या हम यह मान लें कि केवल हिन्दू समाज ही अपने वृद्ध माता-पिताओं की उपेक्षा करता है और बाकी सब समाज अपने वृद्धों की पूरी तरह सेवा- सुश्रुषा करते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर हम यहां नहीं देंगे। पाश्चात्य आधुनिकीकरण के तमाम विकृत प्रभावों के बावजूद आज भी लगभग पूरा हिन्दू समाज कुछेक अपवादों को छोड़कर अपने कुल धर्म के रूप में आज भी पितृयज्ञ कराता है, दारिद्रय में भी श्रवण बनने की चेष्टा करता है, अमरीका में जाकर भी अपने वृद्ध माता-पिता को वहां बुलाकर एक छत के नीचे तीन पीढ़ियों के इकट्ठा रहने का उदाहरण प्रस्तुत करके अमरीकी समाज को चमत्कृत करता है। इस सबका विस्तृत विवेचन हम आगे के लिए छोड़ दें। इस लेख को हम केवल सेकुलरिज्म के दोगले और राष्ट्रीय एकता विरोधी चेहरे पर केन्द्रित करना चाहते हैं।क्या कारण है कि संविधान और सेकुलरिज्म के प्रति रात-दिन कसमें खाने वाला राजनीतिक नेतृत्व संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना करके भी भारत के सभी नागरिकों के लिए भेदभाव रहित समान नागरिक संहिता को लागू करने का साहस नहीं जुटा पाता? वह फतवों पर आधारित समानान्तर शरीयती न्यायप्रणाली को बर्दाश्त करता है? क्यों वह गुड़िया, इमराना और सानिया के विरुद्ध अमानवीय फतवों की निर्लज्ज वकालत करता है? क्यों सेकुलर भारत में किसी देवबन्दी दारुल उलूम को यह फतवा जारी करने का साहस होता है कि कोई भी मुस्लिम महिला बे-बुर्का होकर चुनाव नहीं लड़ेगी? क्यों सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष ऐसे फतवे देने वाले मौलवियों के साथ फोटो खिंचाकर उसके अधिकाधिक प्रचार के लिए लालायित रहती हैं? सेकुलरिज्म का यह कैसा चेहरा है कि रामकृष्ण मिशन के स्वामी जितात्मानंद को यह विलाप करना पड़ता है कि जब मैं अपने छात्रों को ऋग्वेद का एक वाक्य “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” (अर्थात्, सत्य एक है, विद्वान लोग उसे अनेक नामों से पुकारते हैं) पढ़ाता हूं तो मुझे साम्प्रदायिक घोषित कर दिया जाता है, सेकुलरिस्टों द्वारा मेरा घेराव किया जाता है, मुझे मजबूर होकर न्यायालय में रामकृष्ण मिशन को “अल्पसंख्यक वर्ग” घोषित करने के लिए गुहार लगानी पड़ती है, किन्तु जब किसी मदरसे में किसी एक मजहब को सच्चा, अन्तिम और एकमात्र मार्ग बताया जाता है, उसे न मानने वालों के विरुद्ध घृणा और हिंसा का पाठ पढ़ाया जाता है तो उसे संवैधानिक और सेकुलर करार दिया जाता है?विभाजनकारी राजनीतियह कैसी विडम्बना है कि जो राजनीतिक नेतृत्व दिन-रात सेकुलरिज्म का राग अलापता है वह संविधान की सेकुलरिज्म विसंगतियों को हटाकर उसे शुद्ध सेकुलर चरित्र देने और इस दिशा में न्यायपालिका के निर्णयों का आदर करने को भी तैयार नहीं है? उसने शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को संसद में राजनीतिक बहुमत से निरस्त करके रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। वह अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक भेद को मिटाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के 8 अगस्त, 2005 के निर्णय पर चुप्पी साध गया है? क्यों सर्वोच्च न्यायालय को फतवा जारी करने वाले शरीयत केन्द्रों, दारुल उलूमों को नोटिस जारी करना पड़ रहा है कि वे बतायें कि किसी सेकुलर देश में भारतीय संविधान के बाहर उन्हें फतवे जारी करने और फैसले का अधिकार किसने दिया है? विदेशी घुसपैठ को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय असम के आई.एम.डी.टी. एक्ट को निरस्त करे पर वहां की कांग्रेस सरकार अपने क्षुद्र सत्ता स्वार्थ के लिए उस पर अमल न करे, इसका अर्थ क्या होता? अब यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सेकुलरिज्म के सवाल पर न्यायपालिका और राजनीतिक नेतृत्व आमने-सामने खड़े हैं और यह भी बिल्कुल साफ है कि राजनीतिक नेतृत्व की दृष्टि में “सेकुलरिज्म” का एक ही अर्थ है – अल्पसंख्यक समाजों, विशेषकर मुस्लिम समाज में पृथकतावादी प्रवृत्तियों को भड़काना, उन्हें राष्ट्रीयता के प्रवाह के साथ एकरूप होने से रोकना।यह विभाजनकारी राजनीति कितनी आगे बढ़ चुकी है, इसका ताजा उदाहरण है बिहार के आने वाले विधानसभा चुनाव। वहां सेकुलर दलों के बीच “सेकुलरिज्म” की दौड़ लग गई है। अब तक लालू यादव मुस्लिम-यादव गठबंधन की राजनीति कर रहे थे, मुसलमानों के सामने अपने को “सेकुलर योद्धा” सिद्ध करने के लिए भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को “हीरो से जीरो” बनाने की गर्वोक्ति हांक रहे थे, गोधरा में 54 रामसेवकों को जिन्दा जलाने की बर्बर घटना की लीपा पोती कर रहे थे, भाजपा और संघ को कुचलने की भाषा बोल रहे थे तो सेकुलरिज्म की दौड़ में उन्हें पीछे छोड़ने के इरादे से राम विलास पासवान ने दलित-मुस्लिम गठबंधन का नारा देकर मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने का दांव फेंका है। अब इन दोनों के सेकुलरिज्म की काट कांग्रेस कैसे करे? तो उसने मुसलमानों के लिए आरक्षण का पत्ता चला और कहा कि हम केवल कहते ही नहीं, करते भी हैं। हमने आंध्र प्रदेश में मुसलमानों को आरक्षण देकर दिखा दिया है। स्पष्ट है कि जाति के आधार पर विभाजित हिन्दू समाज में मुस्लिम वोटों के बिना कोई दल सत्ता में नहीं आ सकता इसलिए “साम्प्रदायिक” भाजपा के कन्धों पर सवार होकर मुख्यमंत्री पद पाने के आकांक्षी नितीश कुमार को भी कहना पड़ रहा है कि मत परिवर्तन के आधार पर किसी वर्ग को आरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता। यदि कोई उन्हें बतलाये कि 1937 के भारत एक्ट में आरक्षण की सुविधा केवल हिन्दू समाज की अनुसूचित जाति के लिए सीमित की गई थी और मतान्तरितों के लिए इस सुविधा का पूर्णत: निषेध किया गया था, तो वे कहेंगे कि अपना मुंह बंद रखो, तुम साम्प्रदायिकता की भाषा बोल रहे हो। वस्तुत: वे चाहते हैं कि कोई उनकी बात का विरोध करे ताकि उन्हें मुस्लिम मतदाताओं के मन में अपनी सेकुलर अर्थात् हिन्दू विरोधी छवि बैठाने का मौका मिल सके।अब स्थिति यह है कि जिस हिन्दू बहुसंख्या की बात की जाती है वह तो जाति और क्षेत्र के आधार पर पूरी तरह विभाजित है। इसलिए मुलायम सिंह और लालू यादव को मुस्लिम-यादव गठबंधन की, अजीत सिंह को जाट-मुस्लिम गठबंधन की, मायावती और पासवान को दलित-मुस्लिम गठबंधन की बात करनी पड़ रही है। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और करुणानिधि की द्रमुक के बीच मुस्लिम वोटों के लिए होड़ लगी है। आंध्र में कांग्रेस ने आरक्षण के सहारे मुस्लिम वोटों को रिझा कर तेलुगूदेशम पार्टी को सत्ता से बाहर निकाल दिया और अब तेदेपा को सत्ता में वापस आने के लिए मुस्लिम वोटों को रिझाने की मजबूरी दिखाई दे रही है। भाजपा का साथ छोड़ते ही अब कम्युनिस्ट उन्हें “सेकुलर खेमे” में लाने के लिए उत्सुक हो गए हैं। कम्युनिस्टों की रणनीति बहुत साफ है। उन्होंने सेकुलरिज्म की लड़ाई को संघ-परिवार और भाजपा के विरुद्ध केन्द्रित करके जो दल जब तक भाजपा के साथ तब तक “सेकुलर विरोधी” और जब तक भाजपा से दूर तब तक “सेकुलर”, यह सरल निकष अपना लिया है। सत्ता की दौड़ में लगे दर्जनों “सेकुलर” दलों ने सस्ता फार्मूला पकड़ रखा है कि किसी एक जाति के साथ मुस्लिम गठबंधन बनाकर, पांच-सात सीटें जीत कर गठबंधन धर्म के नाम पर एक दो मंत्री पदों के लिए सौदेबाजी करना। इसलिए सब दलों के बीच मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए जबर्दस्त स्पर्धा लगी है। इस स्पर्धा में एक ओर मुस्लिम मांगों को पूरा करने की होड़ है। स्वाभाविक ही आज की जातिवादी और क्षेत्रवादी राजनीति के वातावरण में राष्ट्रीय एकता की भाषा बोलने और पृथकतावाद का विरोध करने का पूरा भार केवल संघ परिवार पर आ पड़ा है। अत: प्रत्येक जातिवादी और क्षेत्रवादी नेता मुस्लिम वोटों को पाने के लिए संघ परिवार और भाजपा को गाली देना अपना धर्म समझता है। बाबरी ढांचे के विध्वंस और गुजरात के दंगों का राग अलापना उसकी मजबूरी बन गई है। अपने प्रतिस्पर्धी पर संघ की भाषा बोलना या भाजपा समर्थक होने का ठप्पा लगाना उसके लिए आवश्यक हो गया है। उत्तर प्रदेश में मुलायम और कांग्रेस के बीच जो मुस्लिम वोट बैंक के लिए घमासान मचा है उसमें दोनों दल अपने विपक्षी भाजपा से सांठ-गांठ का आरोप लगा रहे हैं। वस्तुत: प्रत्येक सेकुलर नेता जानता है कि उस पर “मुस्लिम तुष्टीकरण”, “पृथकतावादी” या “राष्ट्रीय एकता विरोधी” होने का आरोप उसके राजनीतिक स्वार्थ के विरुद्ध नहीं, पक्ष में जाता है, क्योंकि जाति और क्षेत्र में विभाजित हिन्दू समाज का कोई हिन्दू वोट बैंक बन नहीं सकता, जबकि इस प्रचार से उसका मुस्लिम वोट बैंक और पक्का होता है।हिन्दुत्व की भाषा अपराध!अत: पचपन वर्ष की यात्रा के बाद हिन्दू समाज आज जिस बिन्दु पर खड़ा है उसमें हिन्दुत्व की भाषा बोलना अपराध बन गया है, यह भाषा कम से कम वोट राजनीति में विघटनवाद और पृथकतावाद के पक्ष में जाती है। अब तो मुस्लिम कट्टरपंथी भी अपने को सेकुलर और संघ व भाजपा को “कम्युनल” कहते-लिखते हैं। इस त्रासदी की जड़ कहां है? स्वाधीन भारत के लिए हमने जिस संवैधानिक रचना को स्वीकार किया, क्या उसमें मजहबी अल्पसंख्यकों की एकता और हिन्दू समाज का जाति व क्षेत्र के आधार पर विभाजन पूर्व निहित नहीं था? क्या उस संविधानिक रचना के ब्रिटिश प्रवर्तकों ने इन परिणामों को पहले से नहीं देख लिया था? क्या यह साक्ष्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं है? यदि हम समझते हैं कि इस औद्योगिक सभ्यता के युग में राजसत्ता का अधिकार क्षेत्र बहुत व्यापक और प्रभावी हो गया है अत: राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में राजसत्ता की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता इसलिए राजसत्ता का सही हाथों में पहुंचना आवश्यक है, तो जब तक यह संविधानिक रचना विद्यमान है तब तक उसी के भीतर सत्ता में आने का प्रयास करना होगा और उसका अंग बनते ही आप वोट-गणित व वोट-बैंक राजनीति की दलदल में फंस जाते हैं।अपने वर्तमान विघटन और दुर्दशा के लिए हिन्दू समाज स्वयं उत्तरदायी है। उसे अपने इतिहास और वर्तमान का यथार्थवादी अध्ययन करने की आवश्यकता है। यह स्वीकार करना ही होगा कि आठवीं शताब्दी में इस्लाम जैसे केन्द्रित, विस्तारवादी और एकरूपतावादी आक्रामक विचारधारा के पूर्व तक भारत का ऐतिहासिक विकास जाति और जनपद आधारित था। जाति और जनपद चेतनाओं को स्वीकार करते हुए हमने उसके उन्नयन के लिए एक सांस्कृतिक प्रक्रिया प्रारंभ की थी, जिसे हम आज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम से पुकारते हैं। सम्भवत: छत्रपति शिवाजी ने पहली बार हिन्दू शब्द को राजनीतिक अर्थों में अखिल भारतीय आयाम प्रदान किया था और हिन्दवी स्वराज का लक्ष्य घोषित किया था। उनके इसी स्वर को पूरा करने के लिए पेशवा बाजीराव प्रथम (1720-1740) ने कटक (उड़ीसा) से अटक (सिन्धु पार) तक भगवा ध्वज फहराने का नारा दिया था। सन् 1759 में जब पेशवा बालाजी बाजीराव के छोटे भाई राघोबा ने पंजाब को मुस्लिम दासता से मुक्त करके अटक पर भगवा ध्वज फहराया था तो अनेक महाराष्ट्रीय बौद्धिकों ने उसमें युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की पुनरावृत्ति देखी थी। उस समय के समकालीन उद्गार पढ़ने लायक हैं। लगता था कि पूरे भारत में हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना का लक्ष्य अब पूर्ति के निकट है। किन्तु 1761 में पानीपत के मैदान पर जब मराठा सेनाओं ने अपने को अकेला पाया, एक ओर अहमद शाह अब्दाली के पीछे सब मुस्लिम शासक अपने मतभेदों को भुलाकर इकट्ठे थे, वहीं भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्षरत मराठों को भोजन पकाने वाले रसोइये भी महाराष्ट्र से लाने पड़े थे। उत्तर भारत की कोई हिन्दू शक्ति पानीपत के मैदान पर उनके साथ खड़ी नहीं हुई। मराठा सेनाओं के लिए खाद्यान्न की व्यवस्था करने का भार भी गोविन्द बुन्देले को अकेला ढोना पड़ा। इस मराठा त्रासदी का बहुत गहरा विवेचन विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक “हिन्दू पद पादशाही” नामक पुस्तक में किया है। उनका निष्कर्ष है कि उन्होंने हिन्दवी स्वराज्य के लक्ष्य से प्रेरित होकर लगभग पूरे भारत पर अपनी सैनिक विजय की पताका फहरा दी, किन्तु वे हिन्दू समाज में व्याप्त जाति और क्षेत्र के अभिनिवेश का शमन नहीं कर सके।सांस्कृतिक चेतना का स्वरइतिहास की इस शिक्षा को डा. हेडगेवार ने ह्मदयंगम किया। उन्होंने अपनी राष्ट्रभक्ति की तड़प को अनेक युवा अंत:करणों में उतारा। हिन्दू एकता के लक्ष्य से अनुप्राणित होकर महाराष्ट्र के सहस्रों युवा अपने भविष्य को ठोकर मारकर, भारत के दूर-दूर के अनजाने क्षेत्रों में जाकर बीज बनकर बो गए। उनकी आत्मविलोपी और आत्मत्याग की साधना में से पहली बार भारत की धरती पर इतना विशाल और तेजस्वी हिन्दू संगठन विकसित हुआ। मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्रतिज्ञाबद्ध यह संगठन डाक्टर जी के जीवन काल में “याचि देही याचि डोला”, “रजत जयन्ती नहीं मनाना है”, “क्लब या पाठशाला के समान अनंतकाल तक जीवित नहीं रहना है”, “महान पुरुषों के समान अल्पकाल में ही अपने लक्ष्य को पूरा कर विलीन हो जाना है”, जैसे मंत्रों का जाप कराता था। किन्तु अध्यात्मपुरुष श्री गुरु जी के नेतृत्व में उसने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक चरित्रवान, स्वावलम्बी, स्वाभिमानी राष्ट्र जीवन को खड़ा करने के लिए एकान्तिक सांस्कृतिक साधना अपनाने का संकल्प लिया। लम्बे समय तक अन्तर्बाह्र दबावों के विरुद्ध स्वयं को राजनीति की दलदल से अलग रखा। किन्तु जब परिस्थितियों ने राष्ट्रहित में उसे राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए विवश ही कर दिया तब भी उसने अपने और राजनीतिक क्षेत्र के बीच अनेक विधि-निषेधों की दीवार खड़ी करके स्वयं को राजनीति से अलिप्त रखा। किन्तु आज उसके सामने अनेक यक्ष प्रश्न खड़े हैं- 80 वर्ष लम्बी संगठन साधना के बाद भी आज हिन्दू समाज 1925 की अपेक्षा अधिक विभाजित क्यों दिखता हैं? उसका चारित्रिक स्तर तब की अपेक्षा इतना अधिक गिरा हुआ क्यों है? राष्ट्र निर्माण के लिए राजसत्ता को पाने की प्रक्रिया में संघ के पुराने और निष्ठावान स्वयंसेवकों को समझौते क्यों करने पड़ रहे हैं? क्या उनका व्यक्तिगत पतन हुआ है या वे राजनीतिक प्रणाली की सीमाओं और विवशताओं के असहाय बन्दी बन गए हैं? बाहर से दिखाई देने वाले उनके वैचारिक भटकाव को उनका व्यक्तिगत स्खलन माना जाए या वर्तमान राजनीतिक प्रणाली का दोष? यह क्यों होता है कि विशाल संघ-परिवार पांच वर्ष तक राष्ट्रीय एकता भाव का जो जल भारत रूपी हौज में भरता है, उसे एक पंचवर्षीय चुनाव एक झटके में ही खाली कर देता है? क्या इस राजनीतिक प्रणाली के भीतर राष्ट्रीय एकता और नैतिक समाज जीवन का निर्माण संभव है? 50 वर्ष लम्बे अनुभव के अलोक में वह समय आ गया है जब श्री गुरुजी के इस उद्घोष को कि, “राजनीति में हमारा प्रयोग गाजर की पुंगी के समान हो जो बजी तो बजी नहीं तो खा जायेंगे”, को क्रियान्वित किया जाय और चुनावी राजनीति को उसके भाग्य पर छोड़कर राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना को पुष्ट किया जाय।(23 सितम्बर, 2005)NEWS

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