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कविता के दर्पण मेंगांधी जी और गांधीवादीशिव ओम अम्बरपराधीन भारत में स्वातंत्र्य-चेतना को जगाने का ऐतिहासिक कार्य अपने ढंग से गांधी जी ने भी सम्पन्न किया और अमर कीर्ति के अधिकारी बने। जहां क्रान्तिकारियों को समग्र राष्ट्र ने आत्मगौरव का प्रतीक माना वहीं गांधी जी को बापू और महात्मा जी के सम्बोधन प्रदान कर उनकी सात्विकता के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की। स्वतंत्र भारत में 2 अक्तूबर राष्ट्रीय पर्व घोषित किया गया और इस बहाने हर वर्ष कम-से-कम एक बार गांधी जी के स्मरण की परिपाटी प्रचलित हो उठी। कविता के दर्पण में गांधी जी के छवि-चित्र अत्यन्त ह्मदयग्राही और श्रद्धामयी तूलिका के संस्पर्शों से युक्त हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है -गांधी मिट्टी का नहीं, न प्रस्तर का तन है,गांधी अशरीरी है दृढ़ संकल्पी मन है।गांधी विचार है नवजीवन का दर्शन है,गांधी निर्बल का बल है निर्धन का धन है।- सोहनलाल द्विवेदीगांधी जी को भव में नव मानवता का सफल सृजन मानने वाले द्विवेदी जी की भांति कविवर सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी जी, भवानीप्रसाद मिश्र आदि अनेकानेक प्राचीन-अर्वाचीन रचनाकारों ने कविताओं में समग्र श्रद्धा के साथ गांधी जी को शब्दों का मधुपर्क अर्पित किया, भावना का अघ्र्य चढ़ाया और यह क्रम आज तक निर्बाध गति से चल रहा है।किन्तु गांधीवादी कविता की दृष्टि में प्रारम्भ से ही आक्रोश के पात्र रहे। स्वतंत्रता के बाद स्वप्नभंग की त्रासदी को जी रहे आम आदमी की नजर उन शिखर-पुरुषों की तरफ जाती थी, जो स्वयं को गांधी जी का अनुयायी घोषित करते नहीं अघाते थे और तब उसके सीने में कराह जाग उठती थी -पौ फटते ही ग्रहण लग गयाउग्रह होते शाम हो गई,जबसे मरा भगीरथ गंगाघड़ियालों के नाम हो गई।गांधी जी के सीने में लगी गोली से बहे रक्त की धारा ने सारी संवेदना को उस श्रद्धान्वित प्रणाम में बदल दिया, जो किसी व्यक्तित्व का विश्लेषण नहीं करता, मात्र पुष्पार्चन करता है। अच्छा होता यदि हम गांधी जी को एक देवता नहीं बनाते, एक महनीय पुरुष के रूप में ही देखते। उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा प्राप्त करते, उनकी त्रुटियों का आकलन करते और उन्हें न दोहराने का संकल्प लेते। गांधी जी के जन्म-दिवस को एक राष्ट्रीय चिन्तन-पर्व के रूप में मनाया जाना अपेक्षित है। उनके प्रति गहन श्रद्धा रखते हुए भी हमें राष्ट्रीय हित के परिप्रेक्ष्य में उनके समग्र कर्तृत्व को कसौटी पर पुन: कसना होगा और सम्यक् निर्णय लेने होंगे। हमारे युग की कविता यह कार्य अपने ढंग से कर रही है -वो जिसके हाथ में छाले हैं पांवों में बिवाई है,उसी के दम से रौनक आपके बंगलों में आई है।इधर लोगों की आमदनी का औसत है चवन्नी का,उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।- अदम गोंडवीये तथाकथित गांधीवादी समस्त आदर्शवादिता के विकृत रूप में जब समाज के समक्ष उपस्थित होते हैं, कवि के अवचेतन में दबा हुआ आक्रोश प्रहारक पंक्तियों के रूप में प्रकट होता है और वह उन्हें पशुता के प्रतिनिधि की संज्ञा प्रदान कर देता है -गांधी जी भले आदमी थेआजादी की फसल उगाई और मर गये।और फिर उनके बादउनके ही पाले हुए जानवरखेतों में घुसेतथा सारी फसल चर गये।- विद्यासागर वर्माअभिव्यक्ति-मुद्राएंचढ़ा है नीम पे और मीठी-मीठी बात करता है,सियासत की महक आने लगी है उस करेले में।- ज्योति शेखरएक साहूकार की ऊंची हवेली क्या बनी,धूप अब दीवार से नीचे उतरती ही नहीं।- संजय मिश्रा शौकन जाने ढूंढता रहता है क्या अक्सर किताबों में,मेरा दस साल का बच्चा शरारत क्यों नहीं करता।- अशोक रावतये अपनी हद से जो गुजरे तबाह कर देंगे,समन्दरों को न छेड़ो हदों में रहने दो।- अतुल अजनबीइक दर्द की कराह से उभरे नहीं थे हम,इक और दर्द अपने मुकद्दर में आ गया।- गोविन्द गुलशनवतन का लाल2 अक्तूबर के दूसरे महानायक श्री लालबहादुर शास्त्री के प्रति भी जन-सामान्य के चित्त में गहन आदर भाव है। वह भारतीय विजय ध्वज के वाहक रहे हैं, गांधीवादी आदर्शों के एक ईमानदान हस्ताक्षर भी, किन्तु अन्तत: विजित भूमि को लौटाने का उनका निर्णय राष्ट्र को एक कड़वे घूंट की तरह निगलना पड़ा। उनके असामयिक अवसान के कारण कविता आक्रोश का स्वर न बनकर अवसाद की नि:श्वास हो गई -चीन छीन देश का गुलाब ले गया,ताशकन्द में वतन का लाल सो गया।हम सुलह की शक्ल ही संवारते रहे,जीतने के बाद बाजी हारते रहे।- आत्मप्रकाश शुक्लगांधी जयन्ती पर जब भी गांधी जी के विषय में विचार करने बैठता हूं, मेरी स्थिति एक बड़े परिवार के उस कनिष्ठ सदस्य जैसी होती है जो परिवार के महनीय पितृ-पुरुष के प्रति श्रद्धा से भी भरा है, विक्षोभ से भी। उनके चरणों में हार्दिक वन्दन के हरसिंगार भी अर्पित करना चाहता हूं और यह भी कहना चाहता हूं कि बापू! तुम्हारी बहुत-सी गलतियों का दण्ड भोगना आने वाली पीढ़ियों की विवशता है! तुष्टीकरण की नीति के प्राथमिक पुरस्कर्ता तुम ही थे और इस महादेश के विभाजन की तुम्हारी मूक स्वीकृति अब धीरे-धीरे पुन: एक और विभाजन की मानसिकता उत्पन्न कर रही है।मैं जानता हूं कि मेरा यह प्रश्नचिन्ह लगाना छोटे मुंह बड़ी बात माना जा सकता है, किन्तु अपने इस व्याकुल चित्त का क्या करूं, जो बेहद लगाव से बापू की समाधि पे सर नवाता है, अपने भावलोक में उनके चरणों में जा बैठता है लेकिन बार-बार उनकी तरफ देखकर कहता है- बापू! तुम्हारे बहुत से निर्णय राष्ट्र के लिए घातक रहे हैं। हर 2 अक्तूबर को होने वाले राजकीय कर्मकाण्डों को देखकर मेरे चित्त में आता है -जैकारा लगाना है माला भी चढ़ानी है,फिर धूल जरा झाड़ो तस्वीर से गांधी कीजलसे में सभापति को इक रस्म निभानी है।NEWS
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