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संस्कार मुक्त, परिवार संयुक्त- अनुपमा श्रीवास्तवधारावाहिक काव्याञ्जलि में काव्य और अञ्जलिअभी कुछ बरस पहले की ही बात है जब महानगरों की देखा-देखी छोटे शहरों और कस्बों में भी एकल परिवारों का चलन बढ़ने लगा। नतीजा यह निकला कि संयुक्त परिवार टूटने लगे। युवाओं को माता-पिता, भाई-बहन से भरे-पूरे परिवार की जिम्मेदारियां बोझ लगने लगीं। फिल्मों, धारावाहिकों में भी एकल परिवार के आदर्श को आधुनिक प्रगतिशील मानक के रूप में दिखाया जाने लगा। हालांकि भागती-दौड़ती महानगरीय जीवन शैली में संयुक्त परिवार की जरूरत एक बार फिर महसूस की जा रही है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में, हर आदमी ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की दौड़ में लगा है। व्यावसायिक सम्बंधों के आगे मित्रता गौण हो गयी है। पड़ोसी-पड़ोसी के लिए बेगाना बन गया है। ऐसे में याद आई अपनों की, उनके सहारे की। टेलीविजन चैनलों ने इस भावुकता को फार्मूले के साथ जोड़कर कई धारावाहिक चला डाले जिनमें आंसू और मुस्कान का निरुपा राय किस्म का मेल था। सालों से खिंच रहे “सास भी कभी बहू थी” और “कहानी घर घर की” का अब तक कोई अंत होता दिख नहीं रहा है! इधर “बा-बहू और बेबी” जैसे नए-नए धारावाहिक शुरू होते जा रहे हैं, जिनकी कहानी संयुक्त परिवार के इर्द-गिर्द रची गयी है। जिसमें एक ही छत के नीचे माता-पिता के साथ कई-कई भाइयों-भाभियों-देवरों और ननदों का मिलकर रहना खासा लुभा रहा है।”बा, बहू और बेबी” में बा की बहुएंदरअसल संयुक्त परिवार का सबसे मजबूत पक्ष है ऐसे परिवारों में सदस्यों का भावनात्मक रिश्ता, जो मुश्किल घड़ी में एक-दूसरे का सहारा और संबल तो बनता ही है, साथ ही रोजाना की जिंदगी में परिवार के सदस्य एक-दूसरे की जिम्मेदारियां भी बांटते हैं। एक भाई आर्थिक रुप से कमजोर है तो बाकी भाई उसकी भरपाई करते हैं। एक बहू कामकाजी है तो दूसरी बहुएं या घर की बुजुर्ग महिलाएं कामकाजी बहू के बच्चों और उसके परिवार की जिम्मेदारियां उठाती हैं। इसीलिए लोगों को संयुक्त परिवार अच्छे लगने लगे हैं।एक जमाने में धारावाहिक साप्ताहिक हुआ करते थे- यानी सप्ताह में एक दिन। पर लोगों की जिंदगी में टीवी के बढ़ते दखल का असर हुआ कि धारावाहिक दैनिक हो गये और इन संयुक्त परिवार वाले धारावाहिकों के पात्र मानो हमारी रोजाना की जिंदगी का हिस्सा बन गये। जिस तरह रोज सुबह-शाम हम अपने पिता, मां और भाई-बहन से मिलते हैं वैसे ही दिन में एक बार तुलसी, पार्वती, मिहिर और ओम से मुलाकात करना भी आदत-सी बन गयी। लेकिन अचानक हंसते-खेलते संयुक्त परिवार में प्रवेश होता है-एक मोहिनी, कोमोलिका या पल्लवी का, जो हर वक्त कोई न कोई षडंत्र रचती नजर आती है। ऐसा नहीं है कि वास्तविक जीवन में परिवारों में घर तोड़ू और बुरे स्वभाव के सदस्य नहीं होते, लेकिन छोटे पर्दे पर दिखाई दे रहे ये पात्र षडंत्र रचने की तमाम सीमाएं लांघ रहे हैं। करोड़ों का गबन और हत्या तक इनके लिए मामूली सी बात है। यानी कहीं न कहीं अब ऐसे धारावाहिकों में मसाला मिलाया जा रहा है। पर कहते हैं कि नमक हो या मसाला, अच्छा उतना ही लगता है जितने से स्वाद बना रहे। ज्यादा नमक और मसाला मुंह का जायका खराब कर देता है। इन पारिवारिक धारावाहिकों में आजकल यही हो रहा है।”तुलसी” के रूप में आदर्शबहू की छविकाव्यांजलि धारावाहिक में मां बनी अमृता सिंह अपने बेटे को ही मारने-पागल बनाने की साजिश रच रही है। “सास भी कभी बहू थी” में मंदिरा मर-मर कर जी उठती है, चेहरा बदलती है और बदलती है षडंत्र करने के तरीके। लेकिन मंदिरा के षडंत्र जैसे नाकाफी थे, इसलिए तुलसी के परिवार में भी कुटिल बहू मोहिनी आ गयी, जो परिवार की पूरी सम्पत्ति, पूरा व्यवसाय हड़प लेना चाहती है। उधर “कहानी घर-घर की” की पल्लवी का भी यही हाल है। पति ने छोड़ दिया, बेटे ने ठुकरा दिया पर पल्लवी की षडंत्र रचने की आदतें छूटती ही नहीं। “कसौटी जिंदगी की” धारावाहिक को ही लीजिए- प्रेरणा कभी बजाज से शादी कर लेती है तो कभी अनुराग से। अब तो उसने अपने पति बजाज का ही खून कर दिया। जहां तक कोमोलिका की बात है, उसने तो षडंत्र की सारी हदें पार कर ली हैं। सवाल यह है कि यह सब कुछ दिखाकर क्या आदर्श परोसे जा रहे हैं? किसी वास्तविक संयुक्त परिवार के सदस्य से पूछिए तो वह यही कहेगा कि छोटे पर्दे के परिवार और उसके परिवार में कोई समानता नहीं। और जिस युवक या युवती ने संयुक्त परिवार वास्तविक जीवन में न देखा हो वह टीवी के इन संयुक्त परिवारों को देखकर यही कहेगा कि अगर संयुक्त परिवार ऐसा ही होता है जहां मां बेटे के खिलाफ, बहू सास के खिलाफ चौबीसों घंटे साजिशें ही रचती रहती है, देवर भाभी के अवैध संबंध होते हैं, तो ऐसे परिवार से भगवान बचाए। वस्तुत: इन धारावाहिकों से अपने परिवारों को बचाने की सख्त जरूरत है।NEWS
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