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राष्ट्रीयता और संघ का प्रवाह-प्रतिनिधिलोकार्पण कार्यक्रम में पुस्तक प्रदर्शित करते हुए (बाएं से) श्री देवेन्द्र स्वरूप, श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री अटल बिहारी वाजपेयी व श्री कुप्.सी. सुदर्शनछाया : पाञ्चजन्य/हेमराज गुप्ताजिस कार्यक्रम में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन, पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी और सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं वरिष्ठ स्तम्भकार श्री देवेन्द्र स्वरूप उपस्थित हों, उसमें देश और काल का सामयिक चिंतन होना स्वाभाविक ही था। और इन सभी विभूतियों का एक ही मंच पर आना संभव हुआ देवेन्द्र जी की चार पुस्तकों के लोकार्पण कार्यक्रम के बहाने। 21 दिसम्बर को राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय सभागार में प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित चार पुस्तकों- संघ : बीज से वृक्ष; संघ : राजनीति और मीडिया; अयोध्या का सच और जाति-विहीन समाज का सपना- का लोकार्पण किया अटल जी ने।इससे पूर्व इन पुस्तकों के रचयिता श्री देवेन्द्र स्वरूप ने पुस्तकों का परिचय तो दिया ही, पत्रकारिता में अपने “भटकाव” की पृष्ठभूमि भी बताई। उन्होंने कहा कि न तो वे व्यावसायिक लेखक हैं और न ही लेखन क्षेत्र में आने का उनका सपना ही था। इस क्षेत्र में उनका प्रवेश 1948 में अटल जी के सान्निध्य और मार्गदर्शन में हुआ। उस समय देवेन्द्र जी पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में संघ प्रचारक थे और अनायास भाऊराव जी का आदेश प्राप्त हुआ कि काशी से चेतना साप्ताहिक के सम्पादकीय विभाग का काम देखो। भाऊराव ने हिम्मत बढ़ाई तो विज्ञान के छात्र रहे देवेन्द्र जी काशी पहुंच गए। 2 अक्तूबर, 1948 को चेतना का पहला अंक निकला और 9 दिसम्बर, 1948 को इसके संपादक राजाराम जी गिरफ्तार कर लिए गए। चेतना निकालने की जिम्मेदारी देवेन्द्र जी पर आ गई। लेकिन अभी दो ही अंक निकले थे कि सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया।देवेन्द्र जी ने बिना संकोच कहा कि अटल जी मेरे प्रारम्भिक गुरु हैं। उन्होंने बताया कि सन् 1948 में संघ ने देशभर में विभिन्न प्रांतों से अनेक भाषाओं में साप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन शुरू किया था। एक पत्रकार के गुण की व्याख्या करते हुए देवेन्द्र जी ने कहा कि अंत:करण में वेदना और निष्ठा के बूते लेखनी चलती है।बहरहाल, 1968 में स्व. केवल रतन मलकानी, जो उस समय आर्गेनाइजर साप्ताहिक के संपादक थे, ने देवेन्द्र जी से लखनऊ से दिल्ली स्थानान्तिरत हुए पाञ्चजन्य का संपादन करने का आग्रह किया। तत्कालीन सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने उन्हें विधिवत् संपादक का पदभार सौंपा था। अटल जी को पाञ्चजन्य के गरिमामय स्तर की सदा चिंता रही और इसी कारण, देवेन्द्र जी ने बताया, एक बार कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्ता का अरुचिकर कार्टून प्रकाशित होने पर अटल जी ने आगे ऐसा न करने की सलाह दी थी। उनका आग्रह था कि संयम रखते हुए पत्रकारिता की जाए।देवेन्द्र जी ने इस अवसर पर उल्लेख किया कि प्रस्तुत पुस्तकें मुख्यत: पाञ्चजन्य, मंथन और नवभारत टाइम्स में समय-समय पर विभिन्न विषयों पर लिखे उनके 1450 लेखों में से चुनिंदा लेखों के वर्गीकृत संग्रह से गुंथी हुई हैं। उन्होंने पाञ्चजन्य के पूर्व संपादकों -श्री तिलक सिंह परमार, श्री यादव राव देशमुख, श्री प्रबाल मैत्र, सहित वर्तमान संपादक श्री तरुण विजय, मंथन के पूर्व संपादक डा. महेश चंद्र शर्मा और नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक श्री सूर्यकांत बाली के प्रति कृतज्ञता प्रकट की कि इन्हीं के कारण वे ये लेख लिख पाए थे।रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन ने एक गंभीर विषय पर विस्तृत चिंतन प्रस्तुत करते हुए इन पुस्तकों में बसे आत्म तत्व का विश्लेषण किया। उन्होंने अपने उद्बोधन की शुरुआत संस्कृत के एक सूत्र से की-“शस्त्रेव हता न हता भवन्ति….”।इसका अभिप्राय है- शस्त्र से अगर किसी को मारा जाए तो वह नहीं मरता, लेकिन उसकी प्रज्ञा पर आघात करो तो वह मर जाता है। श्री सुदर्शन ने कहा कि अंग्रेजों ने भारत की मूल प्रज्ञा को समाप्त करने का कार्य किया। “फूट-डालो-राज करो” नीति पर चलते हुए उन्होंने राष्ट्रीय समाज में जाति, भाषा, पंथ, वेश आदि जाने कितने ही भेदों को उकसाकर फूट डाली। देश में राष्ट्रीयता को लेकर संभ्रम पैदा किया गया। आजादी के 56 वर्ष बाद भी इस बात पर संभ्रम है कि भारत की राष्ट्रीयता क्या है। जो लोग राष्ट्रीयता को हिन्दू कहते हैं उन्हें साम्प्रदायिक कहा जाता है और जो कहते हैं यह सेकुलर है, उन्हें प्रगतिवादी माना जाता है। श्री सुदर्शन ने प्रश्न किया कि “स्टेट” यानी राज्य और “नेशन” यानी राष्ट्र में कोई फर्क है कि नहीं? उन्होंने स्पष्ट किया कि राज्य सेकुलर (पंथनिरपेक्ष) होता है और यह राजनीतिक अवधारणा है जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक अवधारणा है। राष्ट्र जीवन के अखण्ड प्रवाह के आधार पर किसी राष्ट्र की राष्ट्रीयता का आकलन होता है।श्री सुदर्शन ने कहा कि पश्चिम ने आत्म तत्व को कभी नहीं स्वीकारा। लेकिन भारत में आत्म तत्व के साक्षात्कार के आधार पर एक इन्सान का मूल्य आंका जाता है। वह हम सबको आपस में जोड़ता है, क्योंकि सबमें वही एक आत्म तत्व है। इसी के आधार पर उत्तरोत्तर परबह्म परमात्मा के साथ तादात्म्य करना ही जीवन का लक्ष्य माना जाता है। इसी जीवन सिद्धान्त के आधार पर हमने सारे विश्व को अपनाया है।देवेन्द्र जी की पुस्तकों की प्रशंसा करते हुए श्री सुदर्शन ने कहा कि हिन्दू चिंतन पर आधारित इन पुस्तकों ने इसी अधिष्ठान को प्रस्तुत किया है। अपने वक्तव्य के अंत में सरसंघचालक ने ये पंक्तियां पढ़ीं-“पूर्व प्रखरतम उज्ज्वल रवि सम,हिन्दू राष्ट्र का कार्य सबल हो……।”कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे भाजपा अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी ने पुस्तक के लेखक देवेन्द्र जी और प्रभात प्रकाशन के स्वामी श्री श्याम सुन्दर की प्रशंसा की। उन्होंने कहा, रा.स्व.संघ के बारे में देवेन्द्र जी ने अपने अब तक के लिखे को संकलित करके समाज की बड़ी सेवा की है। संघ का आंदोलन 20वीं सदी का भारत का महानतम आंदोलन है।कम्युनिस्ट विचारधारा के सिकुड़ते जाने की चर्चा करते हुए श्री आडवाणी ने उल्लेख किया कि भारत में 1924 में साम्यवादी आंदोलन शुरू हुआ था और 1925 में रा.स्व.संघ। आज दुनिया से साम्यवादी आंदोलन तो लुप्त हो गया, लेकिन संघ ऐसा आंदोलन रहा है जिसने लाखों के जीवन को प्रभावित किया, उन्हें बदला।उन्होंने कहा, संघ संस्थापक डा. हेडगेवार ने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए हर तरह से अपना सहयोग दिया, कई रास्ते अपनाए। श्री आडवाणी ने बताया कि एक बार विपक्ष ने अपनी ओर से आर.एस.पी. के श्री प्रतीक चौधरी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था। श्री चौधरी ने उनसे कहा था कि वे संघ का सम्मान करते हैं क्योंकि वे जब कोलकाता में अनुशीलन समिति से जुड़े थे और तब डा. हेडगेवार, जो उस समय समिति के सदस्य थे, से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके प्रति एक आदर सहज ही पैदा हुआ था। श्री आडवाणी ने कहा कि 20वीं और 21वीं शताब्दी के भारत के इतिहास में अगर रा.स्व.संघ का उल्लेख नहीं होगा तो वह अधूरा ही होगा।कार्यक्रम में अंतिम वक्ता के रूप में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत चिरपरिचित शैली में करते हुए कहा- देवेन्द्र स्वरूप जी द्वारा पिछले 40 वर्ष में पाञ्चजन्य व अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लिखे लेखों के संग्रह हमारे सामने हैं। इस उम्र में उनकी चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। मेरी तो इतनी पुस्तकें प्रकाशित ही नहीं हुर्इं। देवेन्द्र जी और मुझमें उम्र का ज्यादा फासला नहीं है। हमने साथ-साथ काम किया है। देवेन्द्र जी इतिहासकार, पत्रकार हैं, सामयिक घटनाओं पर पैनी नजर रखते हैं और पूरी तैयारी से तर्क रखते हैं। मैं भी अगर राजनीति में नहीं आया होता तो कुछ ज्यादा रचनात्मक कार्य करता।श्री वाजपेयी ने कहा कि आज सूचना-तकनीक प्रधान युग है। सूचना और तकनीक विचार विहीन होते हैं। इसलिए ज्यों-ज्यों इनकी प्रधानता बढ़ती है, विचारों की प्रधानता घटती है। विचारों की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से किसी को शिकायत नहीं होती, लेकिन कई विचारधाराओं के अनुयायी सब पर अपनी विचारधारा थोपते हैं तो संघर्ष होता है।श्री वाजपेयी अब देश-काल पर गंभीर मंथन की मुद्रा में थे। इसी मन:स्थिति में उन्होंने आगे कहा, रा.स्व.संघ राष्ट्रवादी विचारधारा का आंदोलन है। इस चुनौतिपूर्ण वेला में देवेन्द्र जी की पुस्तकें सही मार्ग दर्शाने में सफल होंगी। ये पुस्तकें वैचारिक संघर्ष में विरोधियों के लिए सहायक सिद्ध होंगी। हमें अपने संघ से जुड़े होने पर गर्व है।संघ की व्यापकता का उल्लेख करते हुए वाजपेयी जी ने कहा कि संघ के संस्कारित स्वयंसेवक आज दुनियाभर में छाए हुए हैं। एक छोटा सा बीज आज एक वृक्ष बन गया है। इसमें लाखों जीवन अपनी आहुति दे चुके हैं। लेकिन अब भी संघ का विरोध किया जाता है। क्यों? इस पर विचार करना चाहिए। अगर कहीं कमियां हैं तो उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए। संघ का विरोध करने वाले इसका सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यांकन करें, संघ से बड़ा व प्रभावशाली संगठन खड़ा करके दिखाएं। संघ के विरोधियों को दो तरह से चुनौती दी जा सकती है, एक, संगठन की ताकत बढ़ाकर और दो, बौद्धिक पक्ष को प्रखरता से रखकर। हम हर कसौटी पर खरे उतरते आए हैं और आगे भी खरे उतरेंगे। इस कार्यक्रम से अगर यह पहल होती है तो यह सार्थक होगा।इस गरिमामय कार्यक्रम की विशेषता यह रही कि वक्ताओं ने जहां देवेन्द्र जी के इस प्रयास की, लेखन की सराहना की तो वहीं प्रभात प्रकाशन को भी सराहा। सही भी है, क्योंकि व्यावसायिकता के इस दौर में चटपटी, मसालेदार सामग्री छापकर उससे पैसा कमाने की चाह का परित्याग करते हुए प्रभात प्रकाशन ने इस बौद्धिक अनुष्ठान में अपना योगदान दिया है। कार्यक्रम का सुंदर संचालन किया प्रभात प्रकाशन के श्री प्रभात कुमार ने।NEWS
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