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एक परिचर्चाराज्यपालों की बर्खास्तगी उचित या उनका बने रहना?23 मई, 2004 को कांग्रेस-वामपंथी गठबंधन सरकार ने शपथ ली और शुरू कर दी अपनी दुर्भाग्यपूर्ण राजनीति। अपनी मुहिम में उसने राज्यपाल जैसे संवैधानिक गरिमामय पद को भी निशाना बनाया। अभी सरकार में आए कांग्रेस और वामपंथियों को चालीस दिन भी नहीं हुए थे कि 2 जुलाई को उन्होंने चार राज्यों के राज्यपालों को बर्खास्त कर दिया, सिर्फ इसलिए कि उनका संबंध संघ- विचारधारा से था। उनकी बर्खास्तगी उचित थी या अनुचित? इस प्रश्न के साथ-साथ राज्यपाल पद के औचित्य पर भी चर्चा शुरू हो गई।राजनीतिक दलों, बौद्धिक मंचों पर इस विषय में जो कुछ कहा गया, वह सबने देखा-सुना। लेकिन आम जन इस बारे में क्या सोचता है? उसका मत जानने के लिए पाञ्चजन्य ने अपने 18 जुलाई के अंक में एक परिचर्चा की घोषणा की थी, विषय था-“राज्यपालों की बर्खास्तगी उचित या उनका जमे रहना?” इस परिचर्चा में देश के कोने-कोने से पाठक शामिल हुए। इतनी अधिक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं कि उनमें से कुछ का चयन करना मुश्किल था। निर्णायक मंडल ने सभी के विचार पढ़े और एक सर्वश्रेष्ठ तथा दो अन्य प्रशंसनीय प्रविष्टियों का चयन किया। इसके अतिरिक्त पांच और पाठकों की प्रविष्टियों में व्यक्त विचार प्रकाशनार्थ छांटे गए। परिचर्चा में भाग लेने वाले सभी पाठकों के प्रति आभार प्रकट करते हुए हम यहां उन चुनिंदा पत्रों के अंश प्रकाशित कर रहे हैं।-सं. सर्वश्रेष्ठपद की गरिमा बनी रहे तो बेहतरपिछले दो-तीन दशकों में राज्यपालों की राज्य के प्रति भूमिका बिल्कुल निष्क्रिय रही है। राज्यों की प्रगति से उनका कोई सरोकार ही नहीं है, ऐसा लगता रहा है। यह सही है कि राज्यपालों का राज्यों की प्रगति से सीधा सम्बंध नहीं होता, लेकिन जब भी राज्यों पर संवैधानिक संकट के बादल मंडराए, राज्यपाल अपने पद की गरिमा बनाये रखने में असमर्थ व लाचार दिखे।भारत जैसे विकासशील राष्ट्र जहां गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, बीमारी, कुपोषण, जनसंख्या वृद्धि जैसे अहम मुद्दे हों, वहां राज्यपाल जैसे वैभवशाली पदों को तुरंत समाप्त करना देश की आवश्यकता है। महीने में करोड़ों रुपए, भारत सरकार आज राज्यपालों पर खर्च कर रही है, लेकिन जनहित में इस पैसे व पद का कोई लाभ नहीं दिख रहा।पिछली राजग सरकार के कार्यकाल के दौरान रहे राज्यपालों को वर्तमान में कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने जिस तरह बर्खास्त किया, वह असंवैधानिक है। इन पर न तो किसी घोटाले का आरोप था, न ही किसी पार्टी विशेष के हित में कार्य करने का और न ही राज्य में कोई संवैधानिक संकट खड़ा करने का। राजनीतिक दलों ने इस पद की गरिमा का मजाक उड़ाया है। अपने चहेते को राज्यपाल बना देना, रूठे को मनाने के लिए यह पद रेवड़ी की तरह बांटना, फिर पद का दुरुपयोग करना सभी दलों का नियम बन गया है।आज इस विषय पर इतनी चर्चा या चिन्तन इसलिए नहीं हो रहा कि राज्यपालों पर शाही खर्चा हो रहा है, बल्कि इसलिए है कि इस महत्वपूर्ण पद का दुरुपयोग हमारे संविधान बनाने व बचाने वाले लोग ही कर रहे हैं। अगर मामला ईमानदारी से शाही खर्च करने को लेकर है तो देश में कोई भी भ्रष्ट व्यक्ति, नौकरशाह, राजनेता शाही खर्च करने में किसी से तनिक भी पीछे नहीं है। अत: सभी दलों को ईमानदारी से यह तय करना है कि इस पद को बनाए रखना है या फिर इसका मजाक बनाना है। यदि वास्तव में इस पद की जरूरत है तो खर्चों पर नियंत्रण पाया जा सकता है, लेकिन अगर यह पद रेवड़ी की तरह बांटना है तो इसे तुरन्त समाप्त किया जाना चाहिए।-निर्मल रावत461-ए, इन्दिरा नगर, पो.आ.-न्यू फारेस्ट,देहरादून-248006 (उत्तराञ्चल)प्रशंसनीयओछी राजनीति का शिकार क्यों?प्रदेशों में राज्यपालों की नियुक्ति का मूल उद्देश्य केन्द्र व राज्यों के अंतर-सम्बंधों को सामान्य व सुदृढ़ बनाना है। राज्यपाल केन्द्र की नीतियों को प्रदेश में अमल में लाने और राज्य की समस्याओं/स्थानीय आवश्यकताओं के प्रति केन्द्र के साथ आपसी सौहार्द व समन्वय बनाये रखने में सेतु का काम करते हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रत्येक संवैधानिक पद का अपना महत्व है। राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों ही देश के लिए आवश्यक हैं। संविधान की मर्यादा के तहत शासन की रीति-नीति को सुचारू रूप से चलाने, शासक व शासित के बीच लोकतांत्रिक तरीके से नियंत्रण बनाये रखने में इन गरिमापूर्ण पदों का महत्व सर्वविदित है। जैसे पूर्व में राजगुरुओं की अग्रणी भूमिका होती थी, ठीक उसी के अनुरूप इन पदों का सृजन किया गया है। अतएव जब इन पदों पर किसी व्यक्ति की नियुक्ति हो जाती है और यदि वह अपनी भूमिका का निर्वाह बगैर किसी पक्षपात के कर रहा होता है तो मात्र सरकारें बदलने से उन्हें तत्काल पदच्युत कर देना नि:संदेह अभद्र, अनुचित और संविधान के सर्वथा विपरीत है। देशहित से अधिक व्यक्ति व पार्टी की ओछी महत्वाकांक्षा व स्वार्थ-प्रेरित कार्रवाई है। यदि देश से बड़ा व्यक्ति और उसकी महत्वाकांक्षा हो जाए तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण नहीं है। ऐसे में इन गरिमापूर्ण पदों का औचित्य क्या है? उन्हें इस तरह पदों से हटा देना उस पद का ही अपमान करने के समान है। वस्तुत: इन पदों को ओछी राजनीति की भेंट चढ़ने से रोकना ही आज की सबसे बड़ी चुनौती है।-गजानन पाण्डेयम.न. 2-4-936, निम्बोली अड्डा, हैदराबाद-500027(आन्ध्र प्रदेश)राज्यपाल पद समाप्त कर दिया जाए!भारत का संविधान स्पष्ट कहता है कि राज्यपाल राष्ट्रपति की कृपा पर पदासीन रह सकेगा। इसलिए अवधि पूर्ण किए बिना किसी राज्यपाल को अकारण हटाया जाना अनैतिक है। राज्यपाल की नियुक्ति राज्य-सरकारों पर एक संवैधानिक प्रहरी के रूप में ही की जाती है। बिना इसके सरकार के निरंकुश होने की शंका बनी रहती है। किन्तु सत्ता-लोलुप राजनीति ने इसे एक दिहाड़ी मजदूर बना डाला है। जब राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों के सभी न्यायाधीश तथा महालेखा परीक्षक तक के कार्यकाल की सुनिश्चित व्यवस्थाएं हैं तो राज्यपाल की क्यों नहीं? स्वतंत्रता के पश्चात् से ही केन्द्र सरकार ने इस पद को निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। सरकारिया आयोग की रपट में विशेष रूप से कहा गया है कि किसी भी राज्यपाल को पांच वर्ष की अवधि से पूर्व न हटाया जाए, जब तक कि कोई बाध्यकारी स्थिति उत्पन्न न हो जाए। उसे एक से दूसरे राज्य में स्थानांतरित न किया जाए। किन्तु इसकी संस्तुतियों की अनदेखी करके सभी सरकारें निजी राजनीतिक-स्वार्थ साधती रहीं। संप्रग सरकार ने राजग सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को संघ विचार परिवार से सम्बद्ध होने का आरोप लगाकर बिना किसी अन्य ठोस आधार के बर्खास्त कर दिया। क्या न्यायपालिका ने कभी कोई ऐसा दिशा-निर्देश एवं आदेश दिया है कि संघ विचार परिवार से सम्बंधित व्यक्ति राज्यपाल जैसे पद पर आसीन नहीं हो सकता? यह पद राजनीति से ऊपर होता है। अब यदि उपराष्ट्रपति तथा राष्ट्रपति के पद भी राजनीतिक हो जाएं तो यह देश के लिए घातक स्थिति होगी। इस वैभवशाली पद की प्रतिष्ठा की अवमानना होने से बेहतर है कि इसे समाप्त ही कर दिया जाए।-राम सहाय जोशी28, अहलूवालिया बिÏल्डग,अम्बाला छावनी (हरियाणा)एकदम अनुचित कदमकेन्द्र में कांग्रेसनीत सरकार ने अगर वैचारिक मतभेद के कारण राज्यपालों को हटाया है तो उपराष्ट्रपति भैरोंसिह शेखावत के बारे में उनका क्या विचार है? राष्ट्रपति के “प्रसाद पर्यन्त” का तात्पर्य है कि अगर राज्यपाल अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन न कर रहा हो तो उस समय राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह राज्यपाल को पदच्युत कर दें। संप्रग सरकार बताए कि पदच्युत किए गए राज्यपालों ने किन संवैधानिक कर्तव्यों को नहीं निभाया? केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण राज्यपाल को हटाना किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं ठहराया जा सकता।-शक्तिरमण कुमार प्रसादश्रीकृष्णानगर, पथ संख्या-17, पटना (बिहार)-800009राज्यपाल-पद नहीं, परम्परा हैराज्यपाल पद की आवश्यकता वर्षों पहले स्वीकार की जा चुकी है। राज्यपाल पद की परम्परा अंग्रेजों के शासनकाल से ही हमारे देश में चली आ रही है।राज्यपाल किसी भी राज्य का सर्वोच्च पदाधिकारी होता है। समस्त अधिकारी तथा मंत्रिमंडल इनके अधीन होता है। किसी भी राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति महामहिम राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा इनकी पदावधि भी राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करती है, हालांकि सामान्य रूप से राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल को भी वित्तीय, विधायी तथा कार्यपालिका सम्बंधी शक्तियां प्राप्त हैं। जिस पद को हमारे संविधान में इतना महत्व दिया गया है, उस पद की आवश्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाना अनुचित ही नहीं, उसकी अवहेलना करने जैसा है। राज्यपाल का पद सिर्फ पद न होकर एक परंपरा बन गई है और इसे तोड़ना किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं हो सकता।-कु. कीर्ति ठाकुर693, रशीदगंज, मढ़ाताल,जबलपुर-482002 (म.प्र.)यह कौन सा नियम?पिछले दिनों चार राज्यपालों को यह कहकर बर्खास्त किया गया कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बंधित हैं। ऐसा कोई सरकारी नियम नहीं है कि संघ का स्वयंसेवक सरकार के किसी संवैधानिक पद एवं सरकारी सेवा में नहीं रह सकता। यदि ऐसा होता तो देश के शीर्ष पदों पर संघ के स्वयंसेवक सुशोभित न हो पाते।-राम शंकर श्रीवास्तवसी-1373, राजाजीपुरम, लखनऊ (उ.प्र.)षडंत्रों का साधन न बने यह पदइस पूरे घटनाक्रम में कांग्रेस को जवाब देना होगा कि रा.स्व.संघ से जुड़ा व्यक्ति जब मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री तथा उपराष्ट्रपति बन सकता है, तो राज्यपाल क्यों नहीं? राज्यपालों के संघ से जुड़े होने पर किस संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन हो रहा था? इस पूरे घटनाक्रम में कांग्रेस को संघ पर लांछन लगाने के बजाय स्पष्ट कर देना चाहिए था कि चूंकि वह राजभवनों में अपने एजेंट बिठाना चाहती है, इसलिए राज्यपालों को हटाया। राज्यपाल का पद सत्तारूढ़ पार्टी के थके-मांदे नेताओं को उपकृत करने तथा विरोधियों के खिलाफ षडंत्रों का साधन नहीं बनाना चाहिए।-अंकुश शर्मार्गांव एवं डाकघर-पनोह,जिला एवं तह. ऊना,हिमाचल प्रदेश-174303बर्खास्तगी अनुचितपिछले दिनों हटाए गए राज्यपालों के आचरण के बारे में राष्ट्रपति ने कभी भी अप्रसन्नता व्यक्त नहीं की थी और न ही उन राज्यपालों ने संविधान के प्रतिकूल कोई निर्णय लिए थे। बर्खास्त किए गए राज्यपालों को सक्षम होते हुए भी सिर्फ इस कारण राजभवन से हटाना कि वे सभी रा.स्व.संघ के स्वयंसेवक हैं, अनुचित है। लेकिन यह भी सच है कि जनता की कमाई का भारी-भरकम हिस्सा राजभवन के मद पर प्रतिमाह खर्च होता है। वर्तमान में राज्यपाल नामक संस्था खर्चीली और अनावश्यक विवाद बनी है। अत: राज्यपालों का राजभवन में जमे रहना अवांछित है।-रामचंद्र शौचे12, जवाहर नगर (बी), रामकृष्ण आश्रम के सामनेरतलाम-457001 (म.प्र.)32
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