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मंथन

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Sep 5, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Sep 2004 00:00:00

इतिहास के दोराहे पर खड़ा भारतीय मुसलमानदेवेन्द्र स्वरूपयह 24 अक्तूबर, 1947 की बात है। शुक्रवार का दिन था। दिल्ली की जामा मस्जिद में जुम्मे की नमाज के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु इकट्ठा हुए थे। देश विभाजन की रक्तरंजित छाया आसमान पर छायी थी। उनके चेहरों भय और मायूसी की लकीरें साफ दिखाई दे रहीं थीं। जिन नेताओं के इशारों पर उन्होंने नारे लगाए थे “पाकिस्तान बनकर रहेगा, हिन्दुस्तान बंटकर रहेगा”, वे नेता उन्हें उनके हाल पर छोड़कर अपने पाकिस्तानी स्वर्ग के लिए रवाना हो चुके थे। ये बेचारे अनाथ की तरह यहां उन नेताओं के कर्मों की कीमत चुकाने के लिए पीछे रह गए थे। विभाजन की त्रासदी से आहत लाखों आंखें गुस्से से उन्हें घूर रही थीं। उन आंखों के सामने वे अपने को भारतमाता के विभाजन के अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रहे थे। दहशत के उस माहौल में उन्होंने अपने को घर की चारदीवारी में बंद कर लिया था। मगर, आज वे हिम्मत बटोरकर जामा मस्जिद की ओर खिंचे चले आए। क्योंकि आज मौलाना अबुल कलाम आजाद, जिनकी आवाज सुनना तो दूर, शक्ल से भी कौम को नफरत हो गयी थी, आज नमाज के बाद खुतबा (भाषण) करने वाले थे। लम्बे समय के बाद मौलाना साहब को जामा मस्जिद में आने का न्योैता मिला था। वे आए। सामने बैठे हाजरीनों को देखा। उनके घायल दिल का दर्द उनके चेहरे पर उभर आया। दर्दभरी आवाज में बोले “अजीजों, अब आप मुझसे क्या उम्मीद रखते हैं। जब मैंने आपको आवाज दी, आपने मेरी जीभ काट ली। जब मैंने कलम उठानी चाही, आपने मेरा हाथ काट दिया। जब मैंने पीठ घुमानी चाही आपने मेरी कमर तोड़ दी।”मौलाना का दर्दमौलाना कहते जा रहे थे “पिछले सात सालों में (यानी मुस्लिम लीग के 1940 के पाकिस्तान प्रस्ताव के समय से) मैंने आपको नफरत की कड़वी राजनीति के प्रति आगाह कराना चाहा तो आपने मुझे हिकारत की नजरों से देखा। आज आप उन्हीं खतरों से घिर गए हैं, जिनसे बचने के लिए आपने मेरे बताए सीधे रास्ते (सिरात-उल-मुस्तकीम) पर चलने से इनकार कर दिया था। अब आप मुझसे क्या उम्मीद रखते हैं। उन्होंने कहा, “जिन खम्भों पर आपने अपने सपनों का महल खड़ा करने की उम्मीद की थी, वे खम्भे अब ढह रहे हैं।” अपने दिल का दर्द उड़ेलने के बाद मौलना साहब ने कौम के भविष्य के लिए मन्त्र दिया “आओ, आज हम सब मिलकर कसम खाएं कि यह मुल्क हमारा है और हम इसके हैं। इस मुल्क की तकदीर बनाने वाला कोई भी अहम फैसला हमारी आवाज के बिना अधूरा रहेगा।” हमने मौलाना आजाद के उस ऐतिहासिक भाषण को विस्तार से देना उचित समझा है, क्योंकि उस समय देश के विभाजन ने भारत के मुस्लिम समाज को इतिहास के दोराहे पर खड़ा कर दिया था। विभाजन की त्रासदी के दस साल पहले, 1937 में उसके सामने यह सवाल खड़ा हो गया था कि वह मौलाना आजाद के पीछे चले या मि. मिन्ना के बताए रास्ते पर बढ़े।मौलाना आजाद पक्के मुसलमान थे, पांचों वक्त की नमाज पढ़ने वाले, कुरान के अधिकारी व्याख्याकार, उर्दू के सर्वश्रेष्ठ लेखक व वक्ता, वेशभूषा में ऊपर से नीचे तक मुसलमान। उनके मुकाबले में मि. जिन्ना थे, जिनकी जिन्दगी में इस्लाम का कोई लक्षण नहीं था, नमाज यदि उन्होंने कभी पढ़ी भी तो सिर्फ आपद् धर्म के रूप में, मुस्लिम समाज को दिखाने के लिए। कुरान कभी उन्होंने पढ़ी नहीं थी, उर्दू भाषा उन्हें आती नहीं थी। रहन-सहन में, वेशभूषा में वे पूरी तरह अंग्रेज थे, उन्हें सुअर का मांस खाने में भी कोई परहेज नहीं था। पर इतिहास का यह बहुत बड़ा प्रश्न है कि 1937 के बाद मुस्लिम समाज ने मौलाना आजाद को ठुकरा कर मि. जिन्ना के पीछे चलना क्यों पसन्द किया? केवल तीन वर्ष के भीतर ही उन्हें “कायदे आजम” की उपाधि से क्यों विभूषित किया? उन्हें भारतीय मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि और प्रवक्ता घोषित करने की स्थिति क्यों पैदा हुई?जिन्ना की सोच में बदलाव1937 के पहले तक मि. जिन्ना राष्ट्रवाद की भाषा बोलते थे, मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन का विरोध करते थे। राजनीति में मजहब के हस्तक्षेप को अनुचित बताते थे। उदारवादी हिन्दू नेता गोखले को अपना आदर्श मानते थे। सरोजनी नायडू को मि. जिन्ना हिन्दू-मुस्लिम एकता के राजदूत दिखाई देते थे। पर 1937 के बाद वही मि. जिन्ना पृथकतावाद के रास्ते पर क्यों चल पड़े? उनके परिवर्तन की कहानी शुरू होती है 1937 के विधानसभा चुनाव परिणामों से। इन चुनाव परिणामों ने एक ओर कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को चौंकाया कि कांग्रेस को केवल हिन्दूबहुल प्रान्तों में ही सफलता मिली है, मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन कांग्रेस को नहीं मिला। दूसरी ओर मि. जिन्ना यह देखकर सकते में आ गए कि उनकी जी-तोड़ कोशिश के बाद भी मुस्लिम लीग को कहीं बहुमत नहीं मिल पाया और मुस्लिम मतदाता अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग गैरमुस्लिम लीगी नेताओं के पीछे चले गए। इससे मि. जिन्ना की महत्वाकांक्षा अधर में लटकी रह गयी। वे उसे पूरा करने के लिए नया रास्ता खोजने लगे। कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने अपने कम्युनिस्ट मित्रों की सलाह पर मुस्लिम समाज से व्यापक जनसम्पर्क करने की योजना बनायी। 25 मार्च, 1937 को सब प्रान्तीय कांग्रेस समीतियां के नाम प्रपत्र निकाला कि मुस्लिम जनसम्पर्क कार्यक्रम में पूरी ताकत झोंक दें और उन तक पहुंचने के लिए अपना पूरा प्रचार साहित्य उर्दू भाषा में छापें।मुस्लिम नेतृत्व पं. नेहरू के इस अभियान का स्वागत करने की बजाय उससे घबरा गया। अल्लामा इकबाल ने मि. जिन्ना के साथ गुप्त पत्र व्यवहार प्रारंभ किया। तुरंत कांग्रेस के इस अभियान की काट करने का सुझाव दिया। मि. जिन्ना को समझाया कि मुस्लिम समाज को इस समय प्रभावी नेता चाहिए और तुम्हें अनुयायी चाहिएं। दोनों मिल जाएं तो काम बन जाएगा। इकबाल की सलाह जिन्ना को जंच गई। उन्होंने अक्तूबर, 1937 में लखनऊ में मुस्लिम लीग का अधिवेशन बुलाया। गांधी को हिन्दू पुनरुत्थानवादी घोषित किया, सात प्रान्तों में कांग्रेसी शासन को “हिन्दू राज्य” बताया, मुसलमानों को हिन्दू राज्य के विरुद्ध लामबंद होने का आह्वान दिया, वन्देमातरम् का बहिष्कार करने का आदेश दिया, द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त गढ़ा, उर्दू को मुस्लिम अस्मिता की पहचान बताया, मुस्लिम समाज को पृथकतावाद के रास्ते पर धकेलने का संकल्प लिया। तीन वर्षों में ही वे “कायदे आजम” बन गए, मुस्लिम “होमलैंड” का प्रस्ताव पारित हो गया। नेहरू जी के मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान की हवा निकल गयी। हालत यहां तक हुई कि सितम्बर, 1938 में मुस्लिम जनसम्पर्क कार्यक्रम के मुखिया डा. के.एम. अशरफ ने पं. नेहरू को पत्र द्वारा सूचित कर दिया कि अ.भा. कांग्रेस कमेटी कार्यालय में मुस्लिम कार्यक्रम को औपचारिक रूप में बंद कर दिया गया है। दो वर्ष के कांग्रेसी शासन को मि. जिन्ना मुस्लिमविरोधी छवि देने में सफल हो गए। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र को देशभर में मुसलमानों ने “मुक्ति दिवस” के रूप में मनाया।नफरत की जड़प्रश्न यह है कि गांधी, नेहरू और आजाद जैसे श्रेष्ठ “सेकुलर” नेताओं के रहते कांग्रेस मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित क्यों नहीं कर पायी? मि. जिन्ना उसे “हिन्दू कांग्रेस” की छवि देने में क्यों सफल रहे? क्यों मुस्लिम समाज ने मौलाना आजाद जैसे पक्के मुसलमान को “हिन्दुओं का पिट्ठू” और “गद्दार” घोषित कर दिया? उन्हें सब प्रकार से अपमानित ओर लांछित किया गया। 30 जून, 1945 को मुस्लिम लीग के मुखपत्र “डान” ने आजाद को “सुअर” और “हिन्दुओं का लौंडा” जैसे अपशब्द लिखे। कश्मीर यात्रा के समय मौलाना आजाद के स्वागत में आयोजित नौका जुलूस पर दोनों तरफ से पथराव हुआ, जिसमें कई लोग मारे गए। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्रों ने अलीगढ़ यात्रा के समय उनके मुंह पर कालिख पोत दी। उनकी दाढ़ी काटने का प्रयास किया। मौलाना आजाद का क्या कसूर था कि उन्हें इस कदर अपमानित और लांछित किया गया?इसकी जड़ में नफरत और पृथकता का वह जहर था, जो 1857 की क्रांति के बाद मुस्लिम मानस में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और सर सैयद अहमद खान, बंगाल के अमीर अवीव अब्दुल लतीफ जैसे नेताओं के द्वारा भरा गया था। भारतीय मुसलमानों को विश्वास दिलाया गया कि तुम विदेशी आक्रमणकारियों और शासकों के वंशज हो, तुमने हिन्दुओं पर राज किया। अगर 1885 में स्थापित राष्ट्रीय कांग्रेस का लोकतंत्र का सपना पूरा हो गया तो हिन्दू बहुसंख्या मुसलमानों पर राज करेगी। हिन्दुओं की ताकत संख्याबल में है तो मुसलमानों की ताकत उनकी तलवार में है। सर सैयद ने कहा कि हम संख्या से नहीं, तलवार से फैसला करेंगे। ऐसे में राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संग्राम के साथ खड़े होने के अपराध में मौलाना आजाद जैसे श्रेष्ठ मुसलमान को भी मुस्लिम समाज ने ठुकरा दिया।वोट बैंक राजनीति का परिणामइस आत्मघाती राजनीति की परिणति भारत विभाजन और लाखों निरपराधों की हत्या और करोड़ों लोगों के घर उजड़ने में हुई। विभाजन वह ऐतिहासिक मोड़ था जिसका उपयोग भारत में रह गया मुस्लिम समाज आत्मालोचन करने और एकता के रास्ते पर बढ़ने के लिए कर सकता था। ऐसे ही ऐतिहासिक क्षण में मौलाना आजाद ने उसे देशभक्ति का मंत्र देने की कोशिश की थी। किन्तु मुस्लिम समाज में आत्मालोचन की यह प्रक्रिया आरम्भ होने से पहले ही ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के अन्तर्गत विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सत्ता पाने की होड़ प्रारंभ हो गयी। 1952 के चुनाव से ही वोट बैंक राजनीति के तहत पं. नेहरू ने अपने प्रतिस्पद्र्धी दल भारतीय जनसंघ के विरुद्ध मुसलमानों के मन में घृणा और विद्वेष का जहर भरना आरम्भ कर दिया। आगे चलकर एक ओर तो हिन्दू समाज को जाति और क्षेत्रवाद के आधार पर विखंडित किया गया और दूसरी ओर मुस्लिम समाज के सामने हिन्दू बहुसंख्या का हौवा खड़ा करके उनकी मजहबी भावनाओं को उभारकर मजहबी वोट बैंक के रूप में एकजुट करने का प्रयास चला। पहले राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का काम ब्रिटिश साम्राज्यवादी कर रहा था अब उसका सूत्र सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों ने पकड़ लिया। इस विघटनकारी राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक सबसे बड़ा बनकर उभरा और सभी राजनीतिक दलों में इस सबसे बड़े वोट बैंक को रिझाने की होड़ लग गयी। इस प्रतिस्पद्र्धा के फलस्वरूप मुस्लिम समाज के भीतर कट्टरवादी नेतृत्व का भाव बढ़ गया और उदारवादी तत्व पीछे चले गए। मुस्लिम मानस में जो छवि विभाजन के पूर्व गांधी, नेहरू की कांग्रेस की बनी थी, वही छवि स्वाधीन भारत में भारतीय जनसंघ और उसके अवतार भारतीय जनता पार्टी पर चिपकायी गयी। पिछले 50 वर्षों में बोये गए इस जहर का ही परिणाम है कि भारतीय जनता पार्टी से जुड़ने वाला प्रत्येक मुसलमान नेता चाहे वह स्व. सिकन्दर बख्त हों, चाहे मुख्तार अब्बास नकवी, चाहे शाहनवाज हुसैन चाहे आरिफ मुहम्मद खान-मौलाना आजाद की तरह “हिन्दुओं का एजेन्ट” और “गद्दार” घोषित कर दिया जाता है।सोच में बदलाव का ऐतिहासिक क्षणयह प्रसन्नता की बात है कि नजमा हेपतुल्ला, आरिफ मुहम्मद खान, अम्मार रिजवी, सीमा मुस्तफा, एम.जे. अकबर, सईद नकवी जैसे प्रबुद्ध मुस्लिम नेता और विचारक इस वोट बैंक राजनीति से आगे सोचने लगे हैं। सबसे बड़ा परिवर्तन आया है जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी में। उन्होंने मुसलमानों से अपील की है कि वे इस बार भाजपा का समर्थन करें। इमाम बुखारी का तर्क है कि मुसलमानों के सामने तीन विकल्प हैं-जिहाद, हिजरात या सुलह। उनका कहना है कि पहले दोनों विकल्प अब बंद हो चुके हैं। इसलिए तीसरा विकल्प बचता है-सुलह का। सुलह का रास्ता संघ परिवार और भाजपा के सहयोग से ही खुल सकता है, क्योंकि वे ही हिन्दू समाज का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं। राष्ट्रनेता अटल बिहारी वाजपेयी ने मुस्लिम समाज को एकता का न्योता देकर सुलह का रास्ता खोल दिया है। उनके इस आह्वान का स्वागत करते हुए कुछ मुस्लिम नेताओं ने अटल हिमायत कमेटी का गठन कर लिया है। एकता के इस वातावरण से वे सेकुलर दल जो नफरत की राजनीति पर ही जिन्दा थे, और वह कट्टरवादी मुस्लिम नेतृत्व जिसने अपने संकुचित स्वार्थों के लिए मुस्लिम समाज को नफरत और पृथकतावाद के रास्ते पर धकेला, इमाम बुखारी की अपील से बौखला गया है और उन पर तरह-तरह के आरोप लगा रहा है। वह बार-बार बाबरी ढांचे की विध्वंस और गुजरात के दंगों का राग अलाप रहा है, मानो भारत के पिछले बारह सौ साल के इतिहास में ये दो घटनाएं ही अपने ढंग की अकेली हों और इनके लिए केवल हिन्दू समाज और भाजपा ही जिम्मेदार हो। इमाम बुखारी ने इस तोता रटन्त के उत्तर में स्मरण दिलाया कि बाबरी ढांचे के विध्वंस को रोकने के लिए केन्द्र के कांग्रेसी शासन ने कुछ भी नहीं किया। कांग्रेस के राज में दंगों की लम्बी फेहरिश्त में से मलियाना और मुरादाबाद के मुसलमानों पर इन्दिरा सरकार ने जो जुल्म ढाया, वह क्या गुजरात से कम था। मुस्लिम प्रश्न केवल भारत तक सीमित नहीं है। 11 सितम्बर के बाद जिहाद की विचारधारा के विरुद्ध वैश्विक ध्रुवीकरण हो गया है। जिहाद विरोधी शक्तियां इतनी प्रबल हैं कि कट्टरवादी जिहादी तत्व अब अपने को पूरी तरह असुरक्षित पा रहे हैं। भारत के प्रबुद्ध मुस्लिम विचारक व नेता इस परिवर्तन के प्रति पूरी तरह जागरूक लगते हैं। स्वाभाविक ही, भारत के मुस्लिम समाज के सामने इतिहास का वह महत्वपूर्ण मोड़ दोबारा उपस्थित हुआ है जिसे वह देश विभाजन के बाद चूक गया था। लगता है इस बार वह चूकने वाला नहीं है। (30-4-2004)37

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