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केरल की जेलों मेंमाकपा के नारे-प्रदीप कुमारकेरल की जेलों में खुलेआम माक्र्सवाद का पाठ पढ़ाया जा रहा ह

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Sep 5, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2004 00:00:00

केरल की जेलों मेंमाकपा के नारे-प्रदीप कुमारकेरल की जेलों में खुलेआम माक्र्सवाद का पाठ पढ़ाया जा रहा है। इसके लिए जेलों में बाकायदा कक्षाएं लगायी जाती हैं, कैदियों को साहित्य, पत्रकों और प्रपत्रों के माध्यम से माकर््सवादी सिद्धांतों की घुट्टी पिलायी जाती है। इस कारण जेलों में बंद विरोधी विचारधारा वाले कैदियों में हिंसक झड़पें होती हैं। कई बार यह हिंसा इतना उग्र रूप ले लेती है कि घायल कैदियों को अस्पताल तक पहुंचाना पड़ता है और किसी-किसी की मौत भी हो जाती है। कण्णूर जेल माकपा का किला बनती जा रही है। माकपा जब सत्ता में थी, तब उसने जेलों में अपने विचार वाले अधिकारियों की नियुक्तियां की थीं जिसके कारण संघ और भाजपा समर्थक कैदियों को अक्सर भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। माकपाई अपराधियों के लिए जेल की ऊंची-ऊंची दीवारें भी कोई मायने नहीं रखतीं। उन पर कोई रोक-टोक नहीं है, क्योंकि उन्हें राजनीतिक समर्थन और पैसा- दोनों प्राप्त हैं।पिछले कई महीनों से मार्कसवादी असहिष्णुता के कारण जेल में हिंसक झड़पों की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। गत 6 अप्रैल को कण्णूर के केन्द्रीय कारागार में जमकर हिंसा हुई, जिसमें रवीन्द्रन नामक एक माकपा कार्यकर्ता की मृत्यु हो गयी। माक्र्सवाद समर्थक कैदी किसी दूसरी विचारधारा के कैदी को तनिक भी बर्दाश्त नहीं करते। जेल में कैद संघ-भाजपा समर्थक कैदियों के पास माकपाई कैदियों की हिंसा के प्रतिकार के अलावा कोई चारा नहीं बचता।राज्य में माकपा और संघ-भाजपा समर्थकों के बीच बढ़ती झड़पों के कारण जेलों में अप्रत्याशित रूप से माकपा समर्थक अपराधियों की बाढ़- सी आ गई है। इस कारण जेल के विभिन्न खंडों में उनका दबदबा साफ दिखाई भी देने लगा है। कई खंडों में पार्टी के चिन्ह और नारे लिखे दिखाई देने लगे हैं। मार्कसवादी विचारधारा से भिन्न विचारधारा के व्यक्ति को जेल में प्रवेश के लिए स्थानीय माकपा नेताओं से अनुमति लेनी पड़ती है। उल्लेखनीय है कि एक साल पहले संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने जब जेल का दौरा करना चाहा तो उन्हें अनुमति नहीं दी गई। इतना ही नहीं, कुछ महीने पहले जेल अधिकारियों द्वारा कुछ कैदियों को कण्णूर जेल से राज्य की अन्य जेलों में भेजने की कार्रवाई को भी माकपा के बड़े नेताओं द्वारा षडंत्रपूर्वक रोक दिया गया था।जेल अधिकारियों के अनुसार इस समय कण्णूर जेल में कैदियों की कुल संख्या 1600 है, जिनमें से लगभग 650 कैदी विचाराधीन हैं। जेल कर्मचारी जेल के सामान्य कार्यों की ठीक से देखभाल नहीं कर पाते। 87 निरीक्षकों में से 50 प्रतिशत अस्थायी नियुक्ति पर हैं, जिन्हें माकपा द्वारा रोजगार कार्यालयों के माध्यम से भेजा गया है। जब भी माकपा समर्थक कैदी हिंसक रुख अपनाते हैं तो ये निरीक्षक खामोशी से सब देखते रहते हैं। जेल के बाहर तो माकपा अपराधियों को खुली छूट है ही, जेल में भी उन पर माकपा नेताओं का वरदहस्त रहता है।1997 में कण्णूर केन्द्रीय कारागार में हुई हिंसक झड़पों की जांच करने वाले पूर्व उपमहानिरीक्षक के.एम. सुलेमान कुंजू कहते हैं, “मेरे द्वारा दी गई रपट की सिफारिशों की पूरी तरह अनदेखी की गई, क्योंकि उसमें मैंने जेल के माकपा समर्थक अधिकारियों की करतूतों के विरोध में लिखा था।” बाद की सरकारें भी माकपा नेताओं के खिलाफ टिप्पणियों के कारण इस रपट की अनदेखी करती रहीं। रपट में स्पष्ट बताया गया था कि किस प्रकार जेल अधिकारियों द्वारा माकपा कैदियों के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है।पिछले सात वर्षों में कण्णूर की जेल में इस प्रकार की 18 हिंसक झड़पें हुई हैं और आश्चर्य की बात यह है कि इनमें से एक भी घटना पर कार्रवाई नहीं हुई। उदाहरण के लिए, कण्णूर सेन्ट्रल जेल में माकपा समर्थक कैदियों के लिए पार्टी सिद्धान्तों के अध्ययन की पूरी व्यवस्था की गई, जबकि संघ समर्थक कैदियों को शाखा लगाने की अनुमति नहीं दी गई। कण्णूर जेल माकपाई गुंडागर्दी का प्रतीक बन गई है। वहां जो भी माक्र्सवादी सिद्धान्तों का विरोध करता हैं उसे जान से मारने की धमकी दी जाती है।माकपा द्वारा जहां जेल में बंद कैदियों के लिए कक्षाएं लगाई जाती हैं, वहीं पुलिसकर्मियों को भी माकपाई सिद्धान्तों का पाठ पढ़ाया जाता है। विरोध का एक भी स्वर जेल अधीक्षकों द्वारा पार्टी के वरिष्ठ नेताओं तक पहुंचा दिया जाता है। विरोध करने वाले अधिकारियों या कैदियों और उनके परिजनों को जान से मारने तथा उनके घरों पर हमले की धमकियां दी जाती हैं।कण्णूर जेल के 60 प्रतिशत अधिकारी माकपा समर्थक हैं। वे माकपाई कैदियों को शराब, खाना, पैसा और दूसरा सामान भी उपलब्ध कराते हैं। हाल ही में हत्या के अपराध में सजा काट रहे माक्र्सवादी पार्टी के क्षेत्रीय सचिव को जेल में मोबाइल फोन उपलब्ध कराया गया था। यह भी विडम्बना है कि पुलिस अधीक्षक मनोज अब्राहम की कण्णूर जेल में होने वाली संभावित हिंसक घटनाओं के बारे में भेजी गई रपट को एन्टनी सरकार द्वारा भी नजरन्दाज कर दिया गया। यदि इस प्रकार जेलों के प्रबन्धन में माक्र्सवादी पार्टी का दखल होता रहा तो आशंका है कि जो अभी केवल कण्णूर सेन्ट्रल जेल में हो रहा है, वह राज्य की अन्य जेलों में भी हो सकता है।35

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