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प्रतियोगिता-आधारित मूल्यांकन उचित नहीं-बद्रीप्रसाद खण्डेलवालपूर्व निदेशक, राष्ट्रीय शैक्षिक योजना प्रशासन संस्थान (“नीपा”)प्रश्नपत्र पहले भी “लीक” होते रहे हैं लेकिन इस वर्ष ये घटनाएं बहुत अधिक दिखाई दी हैं। विद्यार्थियों में भविष्य को लेकर बढ़ते हुए दबाव को मैं इसका दोषी मानता हूं। इस कारण प्रतियोगात्मक परिस्थितियां उत्पन्न हुईं जो अद्र्धबाजारीय रुझान कहा जा सकता है। जब अभिभावकों, विद्यार्थियों की अपेक्षाएं बहुत ऊंची हों, जिनकी तृप्ति के लिए किसी भी हद तक जाने की मानसिकता हो तो बाजारीय ताकतें उसमें लाभ तलाशेंगी ही।उन्हीं प्रवेश परीक्षाओं के पर्चे अधिक “लीक” हुए हैं, जिन्हें बहुत ऊंचा और सम्मानित माना जाता है, जैसे पी.एम.टी या आई.आई.एम.। परीक्षा संस्थाओं की प्रबंधन व्यवस्था ऐसी गड़बड़ियों को संभालने में अभी उतनी विकसित नहीं है। व्यवस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। मात्र एक परीक्षा के आधार पर निर्णयात्मक स्थिति तक पहुंचा देने की व्यवस्था पर विचार करना होगा।1952 में राधाकृष्णन समिति ने कहा था कि परीक्षा सुधार एक बहुत बड़ी आवश्यकता है। लेकिन तब से अब तक बातें तो बहुत हुईं, सुधार के निर्णय लिए गए पर समर्थन के अभाव में क्रियान्वित नहीं किए जा सके। श्रेणी (ग्रेड) प्रणाली की मांग उठती रही है। ये छद्म प्रतियोगात्मकता बच्चों के साथ धोखा है। यूं तो 1887 से ही सी.बी.एस.ई. अंकों के साथ श्रेणी भी देती आ रही है। परन्तु आगे चलकर अंकों को धीरे-धीरे हटाकर पूरी तरह श्रेणी व्यवस्था लागू होनी ही चाहिए। प्रतियोगिता आधारित मूल्यांकन उचित नहीं है। क्षमताओं से ज्यादा अपेक्षाएं होना बेवजह का मानसिक तनाव पैदा करता है जिसके कारण असफल रहने के भय से कई विद्यार्थी अंतिम कदम तक उठा लेते हैं। आज रोजगार की परिस्थितियों का भीषण दबाव और अभिभावकों का दबाव बच्चे को असहनीय हो सकता है। यह सर्वविदित है कि समाज में परिवर्तन लाने में शिक्षा की बड़ी भूमिका है। भारतीय शिक्षा पद्धति के अनुसार व्यक्तिगत विकास में मूल्यों की स्थापना की बात की जाती है। संभवत: भविष्य में इसी में से समाधान निकल आए।12
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