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गुरुभक्त उपमन्युवह विकट परीक्षा-हो.वे. शेषाद्रि,अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख, रा.स्व.संघमहाभारत काल की एक प्रेरक कथा है। महर्षि आयादधौम्य अपनी विद्या, तपस्या और उदारता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। वे ऊपर से तो अपने शिष्यों से बहुत कठोर व्यवहार करते प्रतीत होते थे, किन्तु भीतर से शिष्यों पर उनका अपार स्नेह था। वे अपने शिष्यों को अत्यन्त सुयोग्य बनाना चाहते थे। इसलिए जो सच्चे जिज्ञासु थे, वे महर्षि के पास बड़ी श्रद्धा से रहते थे। महर्षि के शिष्यों में से एक बालक का नाम था उपमन्यु। गुरुदेव ने उपमन्यु को आश्रम की गायें चराने का काम दे रखा था। उपमन्यु दिनभर जंगल में गायें चराते और सायंकाल आश्रम में लौट आया करते। एक दिन गुरुदेव ने पूछा- “बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?”उपमन्यु ने नम्रतापूर्वक कहा- “भगवन्! मैं भिक्षा मांगकर अपना काम चला लेता हूं।”महर्षि बोले- “वत्स! ब्राह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा में मिला अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा मांगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दे दें तो ही उसे ग्रहण करना चाहिए।”उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा शिरोधार्य की। अब भिक्षा मांगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य के भीतर श्रद्धाभाव को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सब अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा – “उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?” तब उपमन्यु ने बताया, “मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपने लिए भिक्षा मांग लाता हूं।” महर्षि ने कहा- “दुबारा भिक्षा मांगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और भिक्षा मांगने वाले अन्य लोगों को भी संकोच होगा। तुम दूसरी बार भिक्षा मांगने मत जाया करो।”उपमन्यु ने कहा- “जो आज्ञा”! बाद में पुन: गुरुदेव द्वारा पूछने पर उपमन्यु ने बताया- “गाय का दूध पीकर भूख मिटाता हूं।” गुरुदेव द्वारा वह भी पीने से मना करने के बाद वह बछड़े के मुंह से निकलने वाले झाग को उदरस्थ कर अपनी क्षुधा शांत करने लगा। पर गुरु महाराज ने कोई न कोई कारण बताकर उपमन्यु को भोजन के हर प्रकार से वंचित कर दिया। खाली पेट रहकर 2-3 दिन बीतने के बाद एक दिन दोपहर की कड़ी धूप में भूख से बेहाल होकर उपमन्यु गिर पड़ा और भूख के शमन के लिए पास में लगे आक के चार-छह पत्ते खा लिए। उन पत्तों के विष के प्रभाव से उपमन्यु की आंखों की रोशनी चली गई। परन्तु उस स्थिति में भी जब उपमन्यु अनुमान से ही आश्रम की ओर चलने लगा तो एक छोटे-सूखे कुंए में गिर गया और वहीं से “गुरुदेव, गुरुदेव” बोलते हुए गुरु महाराज को पुकारने लगा। शाम को सारी गायें तो नित्य क्रमानुसार आश्रम आ गईं परन्तु उपमन्यु नहीं दिखाई दिया। धौम्य ऋषि घबराकर जंगल की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने वहां शिष्य की आर्तनाद सुनकर उसको अश्विनी देवताओं के आह्वान हेतु ऋग्वेदीय मंत्र जाप का उपदेश दिया। उपमन्यु श्रद्धापूर्वक उस महामंत्र का जाप करने लगा। अंतत: अश्विनी कुमारों ने प्रकट होकर उपमन्यु के नेत्रों को अच्छा कर दिया और उसे प्रसाद दिया। लेकिन उपमन्यु ने गुरु महाराज को समर्पित किए बिना उस प्रसाद को खाने से मना कर दिया। उस समय अश्विनी देवताओं ने उपमन्यु को एक कठिन मानसिक द्वंद्व में डालने वाली बात बताई। उन्होंने कहा, “देखो, इससे पहले एक बार तुम्हारे गुरु महाराज ने भी हमारे द्वारा दिये गए प्रसाद को अपने गुरु को समर्पित किए बिना ही खा लिया था। इसलिए तुम्हें भी ऐसा करने में क्या आपत्ति है?” उपमन्यु ने उत्तर दिया, “मेरे गुरु महाराज ने बाल्यावस्था में क्या किया या क्या नहीं किया, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। उन्होंने जो कुछ मुझे बताया है उसके अनुसार चलना ही मेरा धर्म है।” उपमन्यु का यह उत्तर सुनकर देवतागण स्तंभित रह गये और उन्होंने उपमन्यु की गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर उसे समस्त विद्याएं प्राप्त हो जाने का आशीर्वाद दिया। उपमन्यु जब कुंए से बाहर निकला तो महर्षि आयोदधौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को ह्मदय से लगा लिया और गुरुभक्त बालक उपमन्यु धौम्य महर्षि के पूर्ण अनुग्रह के पात्र बनकर सभी विद्याओं में पारंगत हुए। (क्रमश:)19
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