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मा.गो वैधआरक्षण का आधार मजहब क्यों?आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार द्वारा मुसलमानों को पांच प्रतिशत आरक्षण देने के निर्णय को आंध्र के उच्च न्यायालय ने स्थगित करके ठीक ही किया। मजहब के आधार पर आरक्षण को न्यायालय ने अवैध घोषित किया है, फिर भी राज्य सरकार नया कानून बनाकर उसको अमल में ला सकती है। वैसे न्यायालयों के निर्णयों की अनदेखी करने की कांग्रेसी परम्परा सदैव से चलती आ रही है।शाहबानो मामले में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार ने यही किया, कानून बना दिया और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को कचरे की टोकरी में फेंक दिया।शाहबानो मामला कोई अपवाद नहीं है। 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार देने वाला निर्णय दिया था। इंदिरा जी ने क्या इस निर्णय का सम्मान किया? उनके वकील न्यायालय में साफ झूठ बोल गए। सत्तारूढ़ दल को अपना नया नेता चुनना है, इस बहाने उन्होंने 21 दिनों का समय मांगा और न्यायालय ने उतना समय भी दिया। इन 3 हफ्तों में न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध कांग्रेस दल द्वारा आयोजित अनेक प्रदर्शन क्या इंदिरा जी से बिना पूछे हुए थे? इंदिरा जी ने तीन हफ्तों के भीतर आपातकाल की घोषणा कर दी, कानून बनाकर अपना निर्वाचन वैध करवा लिया और न्यायालयीन निर्णय की धज्जियां उड़ा दीं। न्यायालय के निर्णय का सम्मान करने की यह कांग्रेसी पद्धति है।एक और उदाहरण देखिए सर्वोच्च न्यायालय ने सतलज-यमुना जोड़ नहर के सम्बंध में निर्णय दिया, जो पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान के बीच 1981 में हुए जल-वितरण समझौते पर आधारित है। उस समय (1981) इंदिराजी ही प्रधानमंत्री थीं। पंजाब सरकार को यदि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय अन्यायपूर्ण लगता था तो उसे केन्द्र सरकार के पास जाना चाहिए था, केन्द्र इस बारे में कोई रास्ता अवश्य निकालता। पर पंजाब की कांग्रेस सरकार ने एक नया कानून बनाकर न्यायालय के निर्णय का अपमान किया। सोनिया जी भी इस बारे में चुप्पी साधे हुए हैं।तात्पर्य यह है कि सोनिया जी के समर्थन में आंध्र प्रदेश सरकार भी राज्य उच्च न्यायालय के इस निर्णय का अनादर करते हुए कानून बनाकर अपना उल्लू सीधा करेगी, जिसका सभी की ओर से- कांग्रेसियों सहित- निषेध होना आवश्यक है। हैदराबाद के श्री नरेन्द्र फिलहाल केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य हैं। नरेन्द्र एक दमदार और निर्भय नेता के रूप में जाने जाते हैं। उन्हें चाहिए कि वे वामपंथियों की गीदड़ भभकियों से न डरकर मजहबी आधार पर आरक्षण का विरोध करें और जरूरत पड़ने पर मंत्रिमंडल भी त्याग दें। निजामशाही में तो चपरासी से लेकर मंत्रिपद तक सभी ओहदों पर मुसलमान ही थे। सही आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं पर 85 प्रतिशत हिन्दुओं की संख्या वाले उस राज्य में राज्य के 10 प्रतिशत पदों पर ही हिन्दू थे और 90 प्रतिशत ओहदे 15 प्रतिशत वाले मुसलमानों के हिस्से में आते थे। तो क्या केवल गत 50 वर्षों में मुसलमान समाज इतना पिछड़ गया कि उन्हें आरक्षण देने की नौबत आ गई?वह साझा षडंत्रअंग्रेज और मुसलमानों के संयुक्त षडंत्र की बात एकदम सत्य है। 1857 के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच काफी सौहार्द निर्मित हो गया था जो अंग्रेजों को खटका। इसके कुछ उदाहरण भी हैं। बंग-भंग, जो हिन्दु-मुसलमानों में भेद करने हेतु रचा गया था, अंग्रेजों को रद्द करना पड़ा। बंग-भंग विरोधी आंदोलन तो लाल-बाल-पाल के नेतृत्व में चला और सफल हुआ था। अंग्रेज चुप नहीं बैठे। 1906 की 1 अक्तूबर को 35 मुसलमानों का एक शिष्टमंडल तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो से मिला था, इसका नेतृत्व सर आगा खान ने किया था। इस शिष्टमंडल ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग की तथा पृथकता का आधार जनसंख्या की बजाय उनके राजनीतिक महत्व को मानने की मांग की गई थी। अंग्रेजों ने इस मांग को तरजीह दी तथा शिष्टमंडल के समक्ष भाषण देते हुए लार्ड मिंटो ने दुहराया कि “मुसलमान विजयी शासक वंश के उत्तराधिकारी हैं। मुसलमानों का राजनीतिक महत्व तथा ब्रिटिश साम्राज्य को दिए उनके समर्थन को हमेशा ध्यान रखा जायेगा।” इस भेंट के तीन महीनों के अंदर ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।5
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