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..माया महा ठगिनी हम जानी….बचपन में अगर किसी बात को लेकर भ्रम होता है, तो चिन्ता की कोई बात नहीं, क्योंकि पूरी युवावस्था सामने है। उस समय पग-पग पर टूटते हुए भ्रम का आघात सहने की ताकत भी रहती है। लेकिन यही भ्रम यदि बुढ़ापे में आ धमके तो बड़ा खतरनाक है।और मेरे साथ यही हो रहा है।अब, इस उम्र में मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं मनुवादी रहूं या मायावादी। दरअसल, मुझे इन दोनों वादों का गहन-ज्ञान है भी नहीं। लेकिन कानून कहता है कि अज्ञान को बहाना नहीं बनाया जा सकता। इसलिए मुझे ठीक-ठीक जानकारी ले ही लेनी होगी। समय कम है, संसार से प्रयाण करने से पहले मुझे अपने लिए खेमा निर्धारित कर लेना जरूरी है। इससे भगवान को भी सुविधा होगी।कुलीन कुल की कन्या के रूप में जन्म पाने के लिए मुझे दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह साजिश भगवान की थी। उन्होंने ही मुझे ऐसे झमेले में डाल दिया कि आज मुझ पर मनुवादी होने का आरोप लगाया जा रहा है। अब इस संकट का सामना कैसे करूं!लेकिन इस तरह अगर “विषाद योग” में पड़ कर अपने हाथ से गांडीव जाने दूंगी तो भगवान श्रीकृष्ण को ही कष्ट होगा। अब वे मेरे जैसे दुग्गी-तिग्गी मनुवादियों के लिए कितनी बार गीता बांचेंगे! भगवान को याद कर मुझे स्वयं अपने पुरुषार्थ का प्रयोग करना चाहिए।मैंने तय कर लिया कि अपने माथे से मनुवादी होने का कलंक मिटा कर ही रहूंगी। दूसरा विकल्प जब सामने है ही, तब सोचना क्या! मेरा एकहत्तरवां जन्मदिन आने वाला है। मैंने योजना बना ली। दरअसल, मुझे योजना बनानी नहीं पड़ी। मैंने जो कुछ देखा था, उसी कार्यक्रम को अपने ऊपर लागू करना चाहा। इसके लिए मैंने किसी अभियोजक से बात की। उसे समझा दिया कि मुझे मनुवाद से निकल कर अपना नया संस्कार करना है। और इसके लिए जरूरी है कि नए कुल की रीति के अनुसार सारा आयोजन हो। इसके लिए अगर सारे पांडिचेरी को नीले-पीले रंग से रंग देना पड़े तब भी कोई हर्ज नहीं। अब तक मेरे जन्मदिन पर कभी केक नहीं कटा था, लेकिन वह मनुवादिता भी मुझे छोड़ देनी है। मैंने केक का जो आकार-प्रकार बताया उसे समुद्र तट के सिवा और कहीं नहीं रखा जा सकता था। मैंने उसकी स्वीकृति भी दे दी । मेरे हाव-भाव से अभिकर्ता अभिभूत था। उसे ऐसा असामी आज तक नहीं मिला था जिसके हाथ में सारी कानून-व्यवस्था हो, जो समुद्र तट को भी अपनी निजी बैठक बना सकता हो, जिसके पास इतनी सम्पत्ति हो कि सारे नगर को खिलाने की बात कर रहा हो। वह मुझे कभी माताजी, कभी अम्मा और आंटी कह कर सम्मान जता रहा था। सारी बातें समझने के बाद उसने खर्च का आकलन प्रस्तुत किया। “क्या!””नब्बे लाख?”-मैं आश्चर्य से उसे देखने लगी।”जी मैडम!”-उसके और मेरे बीच दूरी बन गयी।”क्यों?””हमने तो आपको वरिष्ठ नागरिक वाली छूट भी दी है…” “लेकिन बेटे! मेरा बजट तो एक सौ एक रुपए का है!”अब उसे बेहोशी का दौरा पड़ने वाला था, लेकिन उसने अपने को संभाला और ब्राीफकेस बन्द कर बिना दुआ-सलाम के चलता बना।मुझे मनुवादी खेमे से निकलकर मायावादी खेमे में आने का अपना इरादा भी त्याग देना पड़ा, क्योंकि यह नया वाद तो बड़ा खर्चीला है।वहां से सीधे मैं आलम की दुकान पर गयी और अपनी पोशाक का “आर्डर” रद्द किया-“नहीं बनाना उसे।”वह भी खुश नजर आया। उसने दबी जबान में कहा- “वह पोशाक कुछ ज्यादा भड़कीली भी हो जाती… आपके लिए; वह गुलाबी रंग, वह झालर, कसीदे और विदेशी रेशम, अम्माजी! आपके ऊपर अच्छी नहीं लगती….। आप सादा-सा बनवा लेतीं ?””जरूरत नहीं है।”- राहत की सांस निकली; ओह! बच गयी ठगाने से। सुधा27
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