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टी.वी.आर शेनाय

by
Jun 6, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2004 00:00:00

खूब हुई कवायद सरकार बनाने मेंकहते हैं “अच्छी शुरुआत यानी आधा काम सम्पन्न”। लेकिन अगर शुरूआत ही मंगलमय न हो तो क्या होता है? दिल्ली में कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल डा. मनमोहन सिंह द्वारा नियंत्रित हो रहा है। जबकि डा. सिंह ने एक स्पष्ट छवि वाले नेता के नाते पदभार सम्भाला है, एक ऐसे व्यक्ति जो समझौता करने की बजाय कुर्सी छोड़ देने वाले माने जाते हैं। पर क्या वास्तव में ऐसा ही है?केन्द्रीय गृह मंत्रालय सरकार के प्रमुख विभागों में से एक है। इस विभाग की कमान शिवराज पाटिल को सौंपी गई है, हालांकि वे हाल ही में लातूर के मतदाताओं के हाथों पराजित होकर दिल्ली आए हैं। पूर्व सांसद पाटिल एक अत्यंत शालीन व्यक्ति हैं, पर सरकार बनते ही उन्हें सरदार पटेल की कुर्सी की पर बैठाना शायद जल्दबाजी थी।केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री पी.एम. सईद मेरे पुराने मित्र हैं। वे लक्षद्वीप से लगातार 10 बार चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचते रहे हैं। (37 वर्ष पूर्व वे 1967 में पहली बार संसद में पहुंचे थे; गौर कीजिए लोकसभा के सबसे युवा सांसद सचिन पायलट अभी मात्र 26 साल के हैं!) लेकिन तथ्य यही है कि सईद 2004 में चुनाव हारे हैं। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में उनको स्थान देना मतदाताओं का अपमान जैसा है।यही बात केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल पर भी लागू होती है जो भण्डारा (महाराष्ट्र) से चुनाव हारे हैं; आखिर शिवराज पाटिल, प्रफुल्ल पटेल और पी.एम. सईद को अभी शपथ दिलाने की इतनी आतुरता क्या थी?यह भी सही है कि महज चुनाव जीतना ही एक व्यक्ति को मंत्री बनने की योग्यता नहीं प्रदान करता। सबूत चाहिए तो केवल लालू प्रसाद यादव, तस्लीमुद्दीन और उनके सहयोगियों को देख लेना ही पर्याप्त है। 1996 में जब देवगौड़ा ने तस्लीमुद्दीन को गृह मंत्रालय में राज्यमंत्री बनाया था तब माकपा ने जोर-शोर से उसका विरोध किया था। आज कम्युनिस्ट चुप क्यों हैं?तीसरी बात, द्रमुक भी करुणानिधि के निर्देशन में तमाशेबाजी पर उतारू थी। मैं द्रमुक नेता को दोष नहीं देता, कांग्रेस ने तो लिखकर गारंटी दी थी कि अगर द्रमुक सरकार में शामिल होती है तो उसे राजस्व और जहाजरानी सहित फलां-फलां विभाग दिए जाएंगे। करुणानिधि को मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए खूब मनाया गया था।इस नौटंकी से दिल्ली का अत्यंत गुप्त रखा गया एक रहस्य जगजाहिर हो गया, कि विभागों का निर्धारण प्रधानमंत्री नहीं, सोनिया गांधी के द्वारा किया जा रहा है। अंतत: श्रीमती गांधी ने ही द्रमुक मंत्रियों को इच्छित विभाग देकर अवरोध दूर किए। अटकलें लगाई जा रही थीं कि जयललिता को सबक सिखाने के लिए करुणानिधि राजस्व विभाग को अपनी मुट्ठी में करना चाहते थे। मुझे तो लगता है कि वे बेलाग केन्द्रीय वित्त मंत्री को भी काबू में रखना चाहते थे। द्रमुक नेता निश्चित रूप से इस बात से अनमने थे कि पी. चिदम्बरम तमिलनाडु से सबसे ऊंचे दर्जे के मंत्री बने हैं….चौथी बात, संतोष मोहन देव का मामला भी बड़ा चौंकाने वाला है। उन्हें राज्यमंत्री के दर्जे सहित भारी उद्योगों और सार्वजनिक उपक्रमों का स्वतंत्र प्रभार दिया गया था। अजीब बात है कि उपरोक्त तस्लीमुद्दीन को भी उसी मंत्रालय में जगह दे दी गई और राज्यमंत्री का दर्जा भी (स्वतंत्र प्रभार सहित नहीं)। इस मूर्खता के लिए कौन जिम्मेदार था? (हालांकि ताजा जानकारी के अनुसार तस्लीमुद्दीन को इस विभाग की जगह कृषि, खाद्य व नागरिक आपूर्ति विभाग की जिम्मेदारी दी गई है।)पांचवी बात, अनेक प्रमुख राज्यों को मंत्रिमंडल में स्थान न देकर अनदेखा किए जाने का किसी ने भी विरोध क्यों नहीं किया? बीजू जनता दल-भाजपा गठबंधन को अधिकांश सीटें देने का अपराध करने वाला उड़ीसा पूरी तरह अनुपस्थित है। न ही कर्नाटक से कोई केन्द्रीय स्तर का मंत्री है। और केन्द्रीय मंत्रिमंडल में केरल के प्रतिनिधि के रूप में केवल मुस्लिम लीग के ई.अहमद को ही ढूंढ पाने में कामयाब हुए चापलूसों की समझ को क्या कहिएगा? यह सही है कि केरल से कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता है। लेकिन केरल से राज्यसभा में तीन वरिष्ठ सांसद हैं- करुणाकरन, वायलार रवि और टी. बालकृष्ण पिल्लै। करुणाकरन पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केन्द्रीय मंत्री हैं। रवि केरल के गृहमंत्री रहे हैं। पिल्लै केरल प्रदेश कांग्रेस समिति के पूर्व अध्यक्ष हैं। क्या उनमें से एक भी मंत्री बनने के काबिल नहीं था? आम चुनावों में केरल में कांग्रेस का निराशाजनक प्रदर्शन देखते हुए हालांकि इनमें से कोई भी बदले की भावना रखते हुए एंटोनी सरकार को उखाड़ फेंकने का खतरा मोल नहीं लेगा। लेकिन वे इस “अपमान” को यूं ही भूलेंगे नहीं (जैसा कि एक समर्थक ने मुझे बताया), और इसके दूरगामी परिणाम होंगे।कोई भी यह नहीं मानता कि डा. मनमोहन सिंह कहने को प्रधानमंत्री के बढ़कर कुछ और हैं। (यहां तक कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने सीधे सोनिया गांधी से ही वार्ता की पेशकश की!) लेकिन आखिर ये सरकार इतिहास के पन्नों में मनमोहन सिंह सरकार के रूप में ही दर्ज की जाएगी। क्या डा. सिंह को अपनी छवि की परवाह नहीं है? (25.5.04)30

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