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परिवारों में बढ़तासत्ता-संघर्ष-डा. अजित गुप्तापीहर से आते हुए मेरी मां की मुट्ठी में मेरे मामा चंद रु

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Jun 6, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2004 00:00:00

परिवारों में बढ़तासत्ता-संघर्ष-डा. अजित गुप्तापीहर से आते हुए मेरी मां की मुट्ठी में मेरे मामा चंद रुपए रख देते थे। इसे अनमोल खजाना समझ वह फूली नहीं समाती थीं। घर आते ही सहजता और गर्व मिश्रित भाव से पिताजी को बता देतीं कि भाई ने क्या दिया है। पिताजी कुछ क्षण चुप रहते लेकिन दूसरे ही क्षण फरमान जारी कर देते, जितना पैसा है मुझे दे दो। मां समझ नहीं पाती कि मुट्ठीभर पैसा भी मुझे अपने पास रखने का अधिकार क्यों नहीं है? जीत अंत में पिताजी की ही होती थी। घर में क्लेश न हो, मां के मान का यही भाव बना रहता था। तब की एक पीढ़ी गुजर गई, दूसरी पीढ़ी भी जाने की तैयारी में है, लेकिन मुट्ठी में पैसा रखने की मानसिकता नहीं बदली। हां, समर्पण की भावना बदल गई, साथ ही एक बहस शुरू हो गई। पुरुष और स्त्री के अधिकारों की बहस।आज सत्ता को अपने हाथ में रखने की खींचतान परिवारों में भी नजर आ रही है। मेरे पिताजी की पीढ़ी में पिता के हाथ में सत्ता थी और मां के पास समर्पण भाव। लेकिन उस समय की ओर गौर से देखें और सोचें कि क्या यह सहज प्रक्रिया थी? मेरी मां की पीढ़ी चंद जमात पढ़ी हुई, पति को ही सर्वस्व मानने वाले सदियों के संस्कार, एक जन्म नहीं सात जन्मों का बंधन मानने वाली अर्थात पत्नी का सहज समर्पण। फिर भी चंद रुपए उसके हाथ में नहीं रह सकते, पिता की पीढ़ी का यह भाव क्या संकेत देता है? यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो लगता है यह मानसिक कमजोरी की निशानी है। वह डरा हुआ है कि जो कुछ भी मेरे पास है, वह कहीं खिसक न जाए। यही डर उसे हिंसक बनाता है। आज तक यही डर पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में सभी को मिलता रहा है। एक तरफ नारी का सहज समर्पण, फिर भी पुरुष के मन में बसा डर हमें सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर ऐसा क्यों है?आज के परिप्रेक्ष्य में नारी के हाथ में पैसा और सत्ता दोनों ही हैं पर समर्पण का भाव तिरोहित होता जा रहा है। पुरुष को अपनी सत्ता खिसकती दिखाई दे रही है। ऐसे में हिंसा में वृद्धि होना भी स्वाभाविक है। आज स्त्री और पुरुष के अधिकारों की बहस में परिवार कहीं पीछे छूट गया है। समाज में महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव कम हुआ है, प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है, हिंसा बढ़ी है। अर्थात पुरुष का डर बढ़ा है। इस बढ़ते डर के साथ क्या हम स्वस्थ परिवार और स्वस्थ समाज की कल्पना कर सकते हैं? यदि नहीं तो क्या होना चाहिए? क्या महिला पूर्व की भांति समर्पण कर दे? क्या तब यह डर कम हो जाएगा? मेरा मानना है नहीं! इसका उत्तर सम्पूर्ण समाज को खोजना होगा।विद्वान कहते हैं कि व्यक्ति मृत्यु से नहीं, जीवन के समाप्त होने से डरता है। अर्थात हमारा सुख छूट जाएगा, यह डर व्यक्ति को मृत्यु से डराता है। इसी प्रकार पुरुष अपना आनन्द महिला के साहचर्य में ढूंढता है। कही यह आनन्द समाप्त न हो जाए, उसकी सोच का प्रमुख विषय यही है। इसीलिए विवाह-पद्धति में पत्नी उसकी लम्बाई से छोटी हो, कम आयु वाली हो तथा कम पढ़ी-लिखी हो आदि बातें प्रमुख रहती हैं। येन-केन-प्रकारेण अपनी मुट्ठी में अपने आनन्द को रखने का जतन। अब प्रश्न है कि इस डर से वह कैसे छूटे? क्या पुरुष के चाहने मात्र से उसका डर कम होगा? क्या महिला के अधिकार सम्पन्न होने से पुरुष का डर कम होगा? क्या महिला के समर्पण से डर कम होगा? ये सारे ही समाधान समाज खोज चुका है लेकिन पुरुष का डर समाप्त नहीं हुआ।शायद इस डर को एक मां ही निकाल सकती है, क्योंकि मां ने ही बच्चे का सृजन किया है, उसका संवद्र्धन किया है। पिता की भूमिका एक शिक्षक की रह सकती है। अत: आज समाजिक कार्यकर्ताओं को स्त्री-पुरुष अधिकारों की चर्चा न करके इस डर को निकालने में सहयोग करना चाहिए। विवाह पद्धति इस डर को बहुत हद तक कम करती थी लेकिन अब खंडित होती विवाह पद्धति इस डर को फिर बढ़ा रही है और हिंसा को जन्म दे रही है। पहले सम्बंध-विच्छेद (तलाक) का कोई डर नहीं था पर आज पति-पत्नी में सम्बंध-विच्छेद बढ़ता जा रहा है। ऐसे में विवाह-पद्धति के सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता है। आप कह सकते है; कि पहले महिलाओं पर अत्याचार अधिक होते थे। लेकिन केवल कह देने भर से मान्यता नहीं मिलती। अपने परिवारों में झांकना होगा कि सच क्या था? जहां डर अधिक हावी था, वहां अत्याचार था। जहां आनन्द के अतिरेक की चाहत थी, वहीं अत्याचार था। जहां आनन्द को घर के बाहर भी खोजा जा रहा था वहां अत्याचार था। सात्विक पुरुष ने कभी अत्याचार नहीं किया।” अत: सभी को एक तराजू में तौलने से समाज सुदृढ़ नहीं होगा। इसीलिए विवाह पद्धति को सुदृढ़ करना पहली और व्याभिचार को कम करना दूसरी आवश्यकता है। अकेले होते जा रहे व्यक्ति को परिवार की आवश्यकता है। जब वह विभिन्न रिश्तों की गंध समझेगा तभी दैहिक आनन्द को प्राप्त करने की भूख कम होगी। अत: तीसरी आवश्यकता है परिवार। यदि परिवार और विवाह-पद्धति को हमने सुदृढ़ कर लिया तो पुरुष का डर निकलेगा, उसका व्याभिचारी मन संस्कारित होगा और वह निर्माण की ओर प्रवृत्त होगा।22

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