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मंथन

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May 9, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 May 2004 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूपदुनिया के मजदूरो, एक हो जाओपर हम आपस में लड़ते रहेंगे”कम्युनिस्ट ऋषि” हीरेन मुखर्जी का 30 जुलाई की प्रात: 97 वर्ष की आयु में प्राणांत हो गया। मृत्यु के काफी पूर्व उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं के नाम एक पत्र लिखा। उसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बंगला मुखपत्र “कालान्तर” को इस हिदायत के साथ भेजा कि इस पत्र को उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित किया जाय। “कालान्तर” ने 31 जुलाई को उसे प्रकाशित कर दिया, पर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र “गणशक्ति” ने प्रकाशित नहीं किया। इस पत्र में हीरेन मुखर्जी ने अपनी अंतिम इच्छा के रूप में कम्युनिस्ट नेताओं से प्रार्थना की कि बदली हुई परिस्थितियों में अनेक कम्युनिस्ट पार्टियों का अस्तित्व निरर्थक हो गया है और उन्हें आपस में मिल जाना चाहिए। 22 अगस्त को कोलकाता में वाममोर्चे के संयोजक विमान बसु की अध्यक्षता में एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया जिसमें 92 वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु, वर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव देवव्रत बनर्जी एवं फारवर्ड ब्लाक के नेता जयन्तु राय ने हीरेन मुखर्जी की श्रेष्ठ मेधा, उनकी विद्वता, प्रभावी भाषण कला एवं सशक्त लेखनी का स्तुतिगान किया। ज्योति बसु ने बताया कि कोलकाता विश्वविद्यालय के स्वर्ण पदक विजेता हीरेन मुखर्जी ने इंग्लैंड में उच्च शिक्षा प्राप्त कर भारत लौटते ही 1936 में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। उनके चार वर्ष बाद 1940 में इंग्लैंड से लौटकर ही ज्योति बसु कम्युनिस्ट पार्टी में आये। हीरेन मुखर्जी को प्रगतिशील लेखक संघ और जननाट्य मंच के संस्थापक के रूप में स्मरण किया गया। उनकी मृत्यु के तुरन्त बाद प्रसारित वक्तव्यों और उस श्रद्धांजलि सभा में भी इस बात को बार-बार रेखांकित किया गया कि हीरेन मुखर्जी जीवन के अंत तक शुद्ध कम्युनिस्ट बने रहे, क्योंकि उन्हें सोवियत संघ के विघटन से गहरा आघात लगा था।ज्योति बसु ने माना कि अपनी बौद्धिक ऊंचाइयों के कारण हीरेन दा बुद्धिजीवियों को बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट पार्टी की ओर आकर्षित करने में सफल हुए। पर यह नहीं बताया कि अपनी बौद्धिक उदारता और व्यापकता के कारण कम्युनिस्ट नेतृत्व ने उन्हें कभी सच्चे कम्युनिस्ट के रूप में स्वीकार नहीं किया। हीरेन दा ने गांधी और नेहरू की प्रशंसा में जो कुछ लिखा वह कम्युनिस्ट पार्टी की नीति से तनिक मेल नहीं खाता था। इस लेखक ने भारतीय विद्या भवन में “समाजवाद की भारतीय परम्परा” विषय पर उनकी भाषण माला को सुना था। वैदिक काल से संस्कृत वाङ्मय में समता के आदर्श के प्रमाण प्रस्तुत करके उन्होंने इस कम्युनिस्ट मान्यता पर जड़ से प्रहार किया था कि कार्ल माक्र्स ने ही पहली बार “वैज्ञानिक समाजवाद” का प्रतिपादन किया। हीरेन मुखर्जी संस्कृत वाङ्मय की समृद्धि, संस्कृत भाषा की उपयोगिता और प्राचीन भारत की दार्शनिक, वैज्ञानिक उपलब्धियों को स्वीकार करते थे जिससे किताबी कम्युनिस्ट नेतृत्व का गहरा मतभेद था।कांग्रेस के साथ रिश्तेहीरेन दा को “ऋषि” का दर्जा देने और उनका इतना स्तुतिगान करने के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टियों के विलय की उनकी अंतिम इच्छा को पूरा करने की दिशा में कोई कदम उठाने की घोषणा किसी भी अधिकृत वक्तव्य या उस श्रद्धांजलि सभा में नहीं की गई। भाकपा सचिव ए.बी. बर्धन ने यह बात उठाई कि हमें उनकी अंतिम इच्छा का आदर करना चाहिए किन्तु माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने उसे सिरे से खारिज कर दिया। एक माकपा सांसद और केन्द्रीय समिति के सदस्य हन्नान मुल्ला ने दो टूक टिप्पणी की कि “भाकपा वर्ग-गठजोड़ के रास्ते पर चल रही है जबकि माकपा वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त पर अटल है।” उनका इशारा कांग्रेस के साथ रिश्तों को लेकर था। माकपा का आरोप है कि भाकपा हमेशा कांग्रेस के साथ सहयोग की पक्षधर रही है। 1969 में कांग्रेस विभाजन के समय उसने इन्दिरा गांधी का साथ दिया और 1971 में अपने तीन नेताओं को इन्दिरा गांधी मंत्रिमंडल में सम्मिलित कराया, 1975 में आपात्काल की घोषणा का भाकपा ने न केवल समर्थन किया अपितु वह इन्दिरा गांधी के अधिनायकवाद के साथ खड़ी रही। 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार बनते समय भी भाकपा सरकार में सम्मिलित हो गई जबकि माकपा ने बाहर रहकर उसका समर्थन किया और अब भी भाकपा कांग्रेस-गठबंधन की सरकार में सम्मिलित होने के लिए व्याकुल है। पर वाम-एकता के दबाव के कारण बाहर रहने को मजबूर है। इसके उत्तर में भाकपा का कहना है कि माकपा अपनी चंडीगढ़ कांग्रेस के पूर्व तक कांग्रेस को अपना शत्रु क्रमांक 1 घोषित करती थी किन्तु चंडीगढ़ कांग्रेस में उसने कांग्रेस और भाजपा दोनों को समान रूप से शत्रु कहना शुरू किया और अगली हैदराबाद कांग्रेस में तो उन्होंने भाजपा को शत्रु क्रमांक 1 घोषित कर दिया है। और भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए उन्होंने कांग्रेस के कंधों का सहारा लेने का निर्णय कर लिया। वस्तुत: सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए जितना प्रयास ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत ने किया उतना किसी भी अन्य गैर कम्युनिस्ट दल या नेता ने नहीं किया। भाकपा का कहना है कि माकपा अपनी पुरानी हठ को छोड़कर भाकपा के रास्ते पर आ गई है। अत: दोनों पार्टियों के विलय में “वर्ग-गठजोड़” बनाम “वर्ग-संघर्ष” का तर्क कहीं नहीं ठहरता। इसके जवाब में माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य एस. रामचन्द्रन पिल्लई ने माकपा पर आरोप लगाया कि यह तो स्पष्ट है कि माकपा कांग्रेस के साथ सरकार में सम्मिलित नहीं होना चाहती जबकि भाकपा इसके लिए बेताब है।दोनों पार्टियों के विलय के विरुद्ध ज्योति बसु का तर्क अलग है। उन्होंने कहा कि विलय के रास्ते में बहुत सी व्यावहारिक कठिनाइयां है। दोनों पार्टियों के अलग-अलग छात्र, साहित्यिक, मजदूर और किसान संगठन बन चुके हैं, उनका काफी विकास हो चुका है। अब उनका एक-दूसरे में विलय इतना आसान नहीं है, क्योंकि इससे नेतृत्व और साधनों पर स्वामित्व की जटिल समस्यायें खड़ी होंगी। इसलिए अच्छा यही होगा कि जिस प्रकार हम केरल और बंगाल में संयुक्त मोर्चा बनाकर काम करते रहे हैं और अब केन्द्र में अपनी अलग से समन्वय समिति में और संप्रग के साथ भी एक समन्वय बनाकर काम कर रहे हैं, उसी प्रकार काम करते रहें। माकपा नेताओं का तर्क है कि एक साथ लगातार काम करते रहने के साथ दोनों घटकों के बीच मतभेद पूरी तरह समाप्त हो जाए तो फिर एकीकरण का रास्ता अपने आप खुल जाएगा। यानी विलय की बात को टालने के लिए माकपा तरह-तरह के बहाने और तर्क ढूंढ रही है। इसका कारण यही हो सकता है कि माकपा प. बंगाल और त्रिपुरा में सत्ता पर काबिज है और केरल में भी वही सबसे बड़ा दल होने के कारण सत्ता पर काबिज रही है और आगे भी होगी। उसके लिए वाममोर्चा मात्र एक ढकोसला है।वास्तव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इसके पहले भी कई बार एकता का हाथ बढ़ा चुकी है। जब तक नम्बूदरिपाद जिंदा थे वे भाकपा को चिमटे से भी छूने को तैयार नहीं थे। 1964 में अलग होने का निर्णय लेते ही उन्होंने व वासवपुनैया ने एक पत्रक छाप कर भारत के सबसे पुराने और शिखर नेता एस.ए.डांगे को ब्रिटिश सरकार का एजेंट घोषित कर दिया था। भाकपा की चंड़ीगढ़ कांग्रेस में भी ए.बी. बद्र्धन एकता का हाथ बढ़ाने के लिए एकत्र हुए। उनके और हरकिशन सिंह सुरजीत के बीच लम्बा पत्राचार भी हुआ। किन्तु माकपा नेतृत्व ने एकता की पेशकश को ठुकरा दिया।विलय की उलझनमाकपा की परेशानी यह है कि विलय की बात स्वीकार लेने पर किस पार्टी का किसमें विलय होगा और विलय की प्रक्रिया का स्वरूप क्या होगा। नई एकीकृत पार्टी का नाम क्या रहेगा? इतिहास में जाएं तो जुलाई 1964 में आन्ध्र प्रदेश के तेनाली शहर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस से टूटकर बनी एक नई कम्युनिस्ट पार्टी ने नवम्बर, 1964 में कोलकाता में अपना अलग सम्मेलन बुलाया और मार्च 1965 में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट जैसा नाम धारण किया। यदि विलय होता है तो स्वाभाविक ही नई पार्टी को मूल पार्टी में जाना होगा। और उसका नाम अपनाना होगा। शायद इस दुविधा से उबरने के लिए ही माकपा भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का आरंभ सन् 1920 कहती है, क्योंकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की विधिवत् स्थापना 1925 में हुई थी। और भाकपा 1925 को ही आरंभ वर्ष मानती है जबकि माकपा स्वयं को 1920 में आरंभ हुई प्रक्रिया का उत्तराधिकारी बताती है अर्थात् अपनी आयु भाकपा से 5 वर्ष अधिक घोषित करती है इसलिए दोनों पार्टियों ने अपने-अपने ऐतिहासिक दस्तावेजों का अलग-अलग संकलन किया है।माकपा इस समय सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में उभर आयी है। दो राज्यों की सत्ता पर वह काबिज है। केरल में पुन: सत्ता में आने की उसे आशा है। लोकसभा में उसके पास 43 सदस्य हैं जबकि भाकपा के पास केवल दस। माकपा को आशा है कि उसकी अपनी शक्ति बढ़ती जाएगी। और भाकपा धीरे-धीरे सिकुड़ कर अपना अस्तित्व खो बैठेगी। उसकी इस आशा को निर्वाचन आयोग भी अनजाने में पुष्ट कर रहा है। निर्वाचन आयोग ने सन् 2000 में संशोधित नियमों के अन्तर्गत भाकपा को नोटिस भेजा है कि राष्ट्रीय दल के लिए निर्धारित शर्तें पूरी न कर पाने के कारण भाकपा की मान्यता समाप्त क्यों न कर दी जाए! इन नई शर्तों के अनुसार किसी भी दल को राष्ट्रीय दल या दर्जा पाने के लिए लोकसभा में तीन राज्यों से कम से उसके कम 11 सदस्य होने चाहिये या चार राज्यों में 6 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त करना चाहिए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लोकसभा में 10 सदस्य हैं अर्थात् 1 कम। और केवल दो राज्यों-केरल और मणिपुर में 6 प्रतिशत मत अर्जित कर पाई है। राष्ट्रीय दल के नाते उसकी मान्यता खतरे में है। इस खतरे को टालने के लिए उसने आयोग को उत्तर देने के लिए 2 महीने का अर्थात् 31 अक्तूबर तक का समय और मांग लिया है। उसे आशा है कि जिस प्रकार चार साल पहले माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय दल की मान्यता छिन गई थी और एक साल बाद बहुत दौड़ धूप करके तत्कालीन चुनाव आयुक्त एम.एस. गिल की कृपा से मान्यता की शर्तों में संशोधन के साथ माकपा को खोई हुई मान्यता वापस मिल सकी थी, उसी प्रकार भाकपा भी दो महीने में जोड़-तोड़ करके अपनी मान्यता बचा सकेगी।मूल प्रश्न यह है कि माक्र्स एक है, लेनिन एक है, स्टालिन एक है और माओ भी एक है फिर भी कम्युनिस्ट पार्टियां अनेक क्यों हैं? सभी माक्र्स और लेनिन के प्रति निष्ठा प्रगट करती हैं। थोड़ा-बहुत मतभेद स्टालिन और माओ को लेकर हो सकता है। वास्तव में 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की टूट रूस और चीन के प्रति वफादारी को लेकर ही हुई थी। स्टालिन के जीवनकाल में ही माओ उनके प्रतिद्वन्द्वी बन गये थे। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में वर्चस्व के लिए रूस और चीन के बीच ठन गई थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी रूस और चीन समर्थकों में विभाजित हो गई। चीन समर्थक नेतृत्व ने अलग होकर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनायी। किन्तु यह पार्टी स्टालिन और माओ के प्रति निष्ठा के बीच झूलती रही, जब 1967 में संसदीय लोकतंत्र के रास्ते से यह पार्टी प. बंगाल में सत्ता में पहुंच गई तो कट्टरवादियों ने उसे पतित माना और प. बंगाल के नक्सलवादी क्षेत्र में उन्होंने चारू मजूमदार और कानु सान्याल के नेतृत्व में सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजा दिया। इस समय देश में अनेक राज्यों में अनेक नामों से हिंसा या सशस्त्र क्रांति का झंडा लहराते अनेक गुट खड़े हो गए हैं। उनका दावा है कि सच्चे माक्र्सवादी वही हैं। संसदीय लोकतंत्र के रास्ते पर चलने वाली सभी पार्टियां झूठी हैं, वे कम्युनिस्ट नहीं हैं, माक्र्सवादी नहीं हैं। इस प्रकार इस समय देश में माक्र्सवाद के लेबिल लगाने वाली दर्जनों पार्टियां और गुट काम कर रहे हैं। उनमें से कुछ संसदीय लोकतंत्र के रास्ते से सत्ता में पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं और अनेक गुट सशस्त्र हिंसा के माध्यम से। सब माक्र्सवाद के प्रति निष्ठा की कसम खाते हैं, सब माक्र्स के “दुनिया के मजदूरो, एक हो जाओ” नारे की तोता रटन्त करते रहते हैं और सभी आपस में लड़ते रहते हैं, टूटते जाते हैं। प्रश्न है कि माक्र्सवाद के प्रति निष्ठा उन्हें जोड़ क्यों नहीं पा रही है? यदि वे आपस में नहीं जुड़ सकते तो वे दुनियाभर के मजदूरों को कैसे जोड़ सकते हैें? यदि विचारधारा के प्रति निष्ठा होती तो वे अवश्य जुड़ते। क्या वे नहीं जानते कि उनका वैचारिक अधिष्ठान पूरी तरह ढह चुका है?वे किसे धोखा दे रहे हैं?किन्तु भारत में अभी भी आपस में लड़ने-झगड़ने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां और हिंसक गुट लेनिन, स्टालिन ओर माओ की पताका लिए घूम रहे हैं। वे किसे धोखा दे रहे हैं? उनकी वास्तविक प्रेरणा क्या है? तो ज्योतिबसु ने हीरेन दा की श्रद्धांजलि सभा में स्पष्ट शब्दों में कहा कि हमारा एकमात्र लक्ष्य भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है, इसी के लिए हम कांग्रेस का समर्थन कर रहे हैं। वाममोर्चा बार-बार कह रहा है कि हम कांग्रेस की अल्पमत गठबंधन सरकार को कदापि गिरने नहीं देंगे, क्योंकि तब भाजपा के सत्ता में आने का रास्ता खुल जाएगा। कम्युनिस्ट नेता यह भी कहते हैं कि उनका अंतिम लक्ष्य कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता में लाना है। वर्तमान संप्रग सरकार को वे सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने सरकार में सम्मिलित न होने का निर्णय लिया, क्योंकि वे इस सरकार की असफलताओं और बदनामी में भागीदार नहीं बनना चाहते थे। यदि वे सरकार में चले जाते तो विपक्ष की पूरी जगह भाजपा और उसके गठबंधन के पास चली जाती। वे सरकार से बाहर रहकर विपक्ष की भूमि पर भी कब्जा जमाए हुए हैं। सरकार के काम की कोई जिम्मेदारी न लेकर उनका काम केवल मीडिया में शोर मचाना है, सरकार को सलाह देना है, जनहित में उसकी आलोचना करके अपने लिए लोकप्रियता अर्जित करना है। वे दोहरी रणनीति अपना रहे हैं। (27-8-2004)24

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