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तो कौन थे इशरत और जावेद?क्या आपने “ओक्कम्स रेजर” के बारे में सुना है? नहीं, यह ऐसी चीज नहीं है जो किसी नाई की दुकान में मिलती है, बल्कि यह एक दार्शनिक सिद्धान्त है, जो कहता है, “जब तक आवश्यकता न हो तब तक भीड़ की बातों पर भरोसा करके नहीं चलना चाहिए।”गुजरात पुलिस का दावा है कि 15 जून, मंगलवार को उन्होंने चार आतंकवादियों को मार गिराया। इन मारे गए चार आतंकवादियों में एकमात्र महिला थी 19 वर्षीया कालेज छात्रा इशरत जहां मोहम्मद शमीम रजा। एक अन्य था जावेद गुलाम शेख, जो जन्म से मलयाली हिन्दू था और अपनी मुस्लिम प्रेमिका से विवाह करने के लिए प्रणेश कुमार पिल्लै से जावेद बन गया था। बाकी दो पाकिस्तानी थे। (भारत में से कोई भी उनके शवों को अब तक लेने नहीं आया है।)ये चारों, संभावना व्यक्त की गई है, नरेन्द्र मोदी की हत्या के इरादे से गुजरात आए थे। इशरत जहां और जावेद गुलाम शेख के परिवारों ने तीखे स्वरों में इसका खण्डन किया है। परिजनों द्वारा इशरत और जावेद शेख को निर्दोष मानना तो समझ में आ सकता है, परन्तु एक राजनीतिक की ओर से इस प्रकार की बातें किया जाना समझ से परे है।बताया गया कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के विधायक वसंत देवखरे ने इशरत जहां के परिवार को एक लाख रुपए देने की पेशकश की। गुजरात के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अमरसिंह चौधरी ने इस मामले को “फर्जी” बताते हुए इसकी भत्र्सना की और मांग की है कि चूंकि गुजरात पुलिस पर कोई भरोसा नहीं करता, इसकी जांच सी.बी.आई.से कराई जानी चाहिए। मुम्बई के समाजवादी पार्टी नेता अबु असीम आजमी ने भी ऐसी ही मांग की। इस बात से कोई इनकार नहीं करता कि भारत में फर्जी “मुठभेड़ों” के कुछ मामले हुए हैं। लेकिन क्या इसका अर्थ यह भी है कि इस देश में आतंकवाद और राजनीतिक हत्याएं अनजानी बातें हैं? अत: तुरन्त किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले क्या हमें कुछ अकाट्य तथ्यों पर नजर नहीं डाल लेनी चाहिए?पहली बात, इशरत जहां 12 जून को अपने घर से गायब हुई थी। उसकी मां, शमीमा जहां शेख कहती हैं कि कोई झंझट न उठ खड़ा हो इस कारण उन्होंने अपनी बेटी के गायब होने पर चुप्पी साध ली थी। इससे एक सवाल पैदा होता है: 12 जून को घर से गायब होने और 15 जून को कथित आतंकवादियों के साथ होने पर गोली लगने के बीच इशरत क्या कर रही थी? कई तरह की बातों में से एक बात यह भी उड़ाई गई है कि गुजरात पुलिस ने “फर्जी मुठभेड़” में उपयोग करने के लिए उसका अपहरण किया था। ठीक यहीं पर “ओक्कम्स रेजर” झूठ के पुलिंदे को काटना शुरू करता है। अगर मान भी लें कि गुजरात पुलिस को “मुठभेड़” को सच साबित करने के लिए मृत शरीरों की जरूरत थी, तो उसने ठाणे की एक नितांत अपरिचित लड़की को ही क्यों चुना? निश्चित रूप से उसके लिए और कई उम्मीदवार हो सकते थे, खुद गुजरात में भी आपराधिक पृष्ठभूमि के कई लोग मिल जाते। गुजरात पुलिस उनमें से किसी एक को चुन सकती थी और उसकी कोई ज्यादा चर्चा भी नहीं होती।दूसरे, अखबार और टी.वी. चैनल इशरत जहां के कालेज के साथियों, उसके शिक्षकों और पड़ोसियों तक के बारे में रपटें प्रसारित कर रहे हैं जिनमें वे सभी दुनिया को बार-बार बताते हैं कि इशरत कितनी भली लड़की थी। वे दोहराते हैं कि उसमें “कट्टरवादी” झुकाव का अंदेशा तो किसी भी तरह नहीं किया जा सकता। एक बार फिर, इस तरह के दावे सीधे, सरल से तथ्यों के उलट हैं। अगर आप आतंकवादी हैं तो क्या दुनियाभर में यह चिल्लाते फिरेंगे कि आप नरेन्द्र मोदी को मारना चाहते हैं? या कि आप मौका आने तक खामोश रहेंगे?जावेद गुलाम शेख पर भी नजर डालते हैं। उसके पिता गोपीनाथ पिल्लै, अपने बेटे के निर्दोष होनें की कसमें खा रहे हैं। लेकिन इसमें भी कुछ सवाल हैं जिनके जवाब दिए जाने की जरूरत है। मुझे संदेह है कि उसने अपने पास दो नामों, “प्रणेश कुमार पिल्लै” और “जावेद गुलाम शेख” से पारपत्र (पासपोर्ट) किसी न किसी कारण से जरूर रखे होंगे। (हालांकि भारतीय कानून के अनुसार तो उसे कोई भी एक वापस लौटा देना चाहिए था।) लेकिन क्या यह भी सच है कि उसके पास इसी तरह का तीसरा दस्तावेज “सैय्यद अब्दुल वाहिद” के नाम से भी था? और उसकी अपनी बहन के संभावित बयान कि मुठभेड़ में मारे गए दो कथित पाकिस्तानी उसके भाई के साथ रह चुके थे, से क्या अर्थ निकलता है? इंसान का दिमाग इतना उपजाऊ है कि इस बात के भी अनेक कारण खोज निकालेगा कि अब तक अनजान रहे दो भारतीय दो सशस्त्र विदेशियों के साथ कैसे पकड़े गए। “ओक्कम्स रेजर” के अनुसार तो जब तक कोई साझा उद्देश्य न हो, कोई भी व्यक्ति अपने घर-परिवार को छोड़कर अनजान लोगों के साथ नहीं जाएगा। ज्यादातर देशों का कानून कहता है कि आरोपी तब तक “निर्दोष है जब तक उचित संदेह के पार होकर अपराधी सिद्ध नहीं हो जाता है।” इशरत जहां और जावेद गुलाम, दोनों निस्संदेह इस संरक्षण के हकदार हैं। खासकर तब जब वे अपनी सफाई देने के लिए जीवित नहीं हैं। लेकिन पेशेवर “सेकुलरवादियों” के लिए तो ये दोनों हत्या के इरादे के आरोपी नहीं हैं; बल्कि उनके निशाने पर गुजरात पुलिस है जो “राजकीय आतंकवाद” की अपराधी है। आखिर संदेह के सिद्धांत के अनुसार वे “सेकुलरवादी” गुजरात पुलिस को भी निर्दोष मानने को तैयार क्यों नहीं हैं? (23.06.04)8
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