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न पर: पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम्।श्रेष्ठ पुरुष दूसरे की बुराई करने वाले पापियों के पापकर्म को नहीं अपनाते हैं।-वाल्मीकि (रामायण, युद्धकाण्ड ।113।44)चीन में परिवर्तनचीन में राष्ट्रपति जियांग जेमिंन ने तमाम सैन्य दायित्वों से मुक्त होकर देश के नेतृत्व को अपने से युवा हाथों में सौंपने की प्रक्रिया को पूरा किया। पार्टी की केन्द्रीय समिति ने अपनी चार दिवसीय बैठक में हू जिंताओ को केन्द्रीय सैन्य आयोग के अध्यक्ष पद के लिए नामांकित किया। उल्लेखनीय है कि 61 वर्षीय श्री हू ने 2002 में जियांग जेमिंन का स्थान ग्रहण कर पार्टी प्रमुख और उसके बाद 2003 में चीन के राष्ट्रपति का पद संभाला था। अब चीन की शक्तिशाली सेना की कमान संभालने के बाद चीन के इतिहास में पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को नेतृत्व दिए जाने का ऐतिहासिक अध्याय रचा गया है। उल्लेखनीय है कि जियांग जेमिंन का केन्द्रीय सैन्य आयोग के अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल 2007 तक था। लेकिन चीन की आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियां इतनी तीव्रता से बढ़ रही हैं और इसी वर्ष अमरीकी राष्ट्रपति पद के चुनावों के बाद ताइवान जैसे प्रश्नों पर भी आवश्यक चर्चा देखते हुए जियांग जेमिंन ने सक्रिय राजनीति से विराम लेकर अपने उत्तराधिकारी हू को दायित्वों की आखिरी गठरी भी सौंप कर लोगों को चकित कर दिया।हू जिंताओ प्रशासन तथा सामाजिक स्तर पर ज्यादा पारदर्शिता लाने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन उन्होंने चीन में अखबारों को अधिक स्वतंत्रता देने से इनकार कर दिया। पिछले कुछ समय से उन्होंने साहित्य, संगीत एवं गैर राजनीतिक समाचारों के प्रकाशन के लिए काफी छूट भी दी। तंग शियाओ फंग और उनके बाद जियांग जेमिंन के रास्ते से गुजरते हुए हू जिंताओ के नेतृत्व में चीन दुनिया की सातवीं आठवीं महाशक्ति और तीसरी सैन्य महाशक्ति के रुप में आगे बढ़ रहा है। प्रगति के जितने भी आधुनिक मापदंड कहे जा सकते हैं उन पर चीन बेझिझक एक पार्टी तानाशाही के रास्ते से पश्चिम की उन तमाम तथाकथित लोकतांत्रिक अवधारणाओं को मुंह चिढ़ाते हुए चल रहा है जो एक भी पौर्वात्य देश में सफल नहीं हुई हैं।सिंह की पुकारप्रधानमंत्री जब राष्ट्र संघ की यात्रा पर गए थे तो हमने यह कहते हुए उन्हें शुभकामनाएं दी थी कि वे किसी एक पार्टी के नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र के प्रधानमंत्री हैं। उनका राष्ट्र संघ का भाषण हमने सुना और पढ़ा। अच्छी बातें कहीं हैं। मगर कुछ भी असाधारण नहीं। उन्होंने न्यूयार्क और रुस में इस्लामी आतंकवादियों के वहशियाना कृत्यों का उल्लेख किया और कहा कि आतंकवाद मतांधता यानी कट्टर पन और नफरत की विचारधारा के आधार पर अपनी ताकत बढ़ाता है। उन्होंने गरीबी दूर करने के साथ-साथ सुरक्षा परिषद् में भारत की सदस्यता की आवश्यकता को भी जोरदार ढंग से रेखांकित किया और साथ ही यह आशा व्यक्त की कि संयुक्त राष्ट्र संघ इराकी जनता को जल्दी से जल्दी कारगर प्रभुसत्ता प्राप्त कराने में मुख्य भूमिका निभाएगा ताकि उस देश की एकता और अखंडता को बनाए रखा जा सके। हालांकि इराक और अफगानिस्तान के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया है, परंतु यह अच्छा होता कि इसके साथ ही वे इन दोनों देशों से जल्दी से जल्दी अमरीकी फौजों की वापसी का भी जिक्र करते। क्योंकि यह भारतीय जनता को कतई स्वीकार नहीं होगा कि इराक और अफगानिस्तान में अमरीका की वास्तविक हुकूमत कायम रहे और भारत वहां छोटे मोटे काम और सहायता कार्यों में उलझा रहे। हमारी यह स्पष्ट भूमिका होनी चाहिए कि वहां का शासन और प्रशासन पूर्णत: स्थानीय नागरिकों के हाथ में ही आना चाहिए और जब तक ऐसा नहीं होता भारत इन देशों में अपनी किसी भी सार्थक भूमिका की संभावना नहीं देखता। हमें यह भी ठीक नहीं लगा कि अमरीका में विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुखों से बातचीत करते हुए प्रधानमंत्री ने प्रार्थना भरे शब्दों में विनिवेश करने का आग्रह किया और कहा कि आप हमें बताएं कि कैसे आगे बढ़ा जा सकता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुख हमें समझाएं, यह तो कोई बात नहीं हुई। अपने विकास की दिशा तय करने में हम स्वयं समर्थ हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियां यदि भारत में निवेश करें भी तो वह हमारी शर्तों पर होना चाहिए न कि उनकी सलाहों पर।8
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