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मंथन

by
Mar 10, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 10 Mar 2004 00:00:00

वाम मोर्चे का असली चरित्रदेवेन्द्र स्वरूपआपने उस पक्षी की कथा सुनी है, जो सोचता है उसने अपने पंजों पर सारा आकाश उठा रखा है? इसलिए वह उलटा खड़ा रहता है इस डर से कि सीधा हुआ तो आकाश गिर जाएगा। पिछले चार महीने से केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को बाहर से समर्थन दे रहा तथाकथित वाम मोर्चा जिस तरह नचा रहा है, वह ऐसी ही हास्यास्पद स्थिति की जीती जागती मिसाल है। सरकार बनने के पहले दिन से चार दलों में विभाजित 60 सांसदों वाला वाम मोर्चा मीडिया में ऐसा वातावरण बनाने में लगा हुआ है कि केन्द्र सरकार केवल उसी की कृपा पर निर्भर है, उसके इशारे पर नाच रही है और सरकार को अपनी सब नीतियां और निर्णय उसके दबाव में लेने पड़ रहे हैं। देखने की बात यह है कि सरकार और वाम मोर्चा की समन्वय समिति बन जाने के बाद भी वाम मोर्चा अपनी सारी बात समिति की बैठकों में कहने के बजाय मीडिया में कहना ज्यादा पसंद करता है। जिससे स्पष्ट है कि उनका मुख्य उद्देश्य सरकार की नीतियों को प्रभावित करने से अधिक प्रचार के मोर्चे पर अपनी छवि को उभारना है। वे यह आभास पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं कि मनमोहन सिंह सरकार पूंजीपतियों और विदेशी, विशेषकर अमरीकी पूंजी व उद्योगपतियों के हाथ बिकी हुई है, उसकी नीतियां जन-विरोधी हैं और केवल वामदल जनहित में शोर मचा रहे हैं, गरीबी, बेरोजगारी और विदेशी पूंजी व शक्तियों के दबाव के विरुद्ध लड़ रहे हैं। यदि मनमोहन सिंह सरकार का कोई भी निर्णय जनहित में उठा है तो उसका पूरा श्रेय वाम मोर्चे के दबाव को जाना चाहिए था। वे बीच-बीच में यह धमकी भी देते रहते हैं कि यदि सरकार ने हमारी बात नहीं मानी तो हम समर्थन वापस ले सकते हैं और यदि सरकार गिर गई तो उसके लिए हम जिम्मेदार नहीं होंगे।किन्तु यह बात जगजाहिर है कि इस सरकार को समर्थन देना वामपंथियों की मजबूरी है। उनकी राजनीति का एक ही लक्ष्य है कि भाजपा-गठबंधन को सत्ता में आने से रोकना, उसे रोकने के लिए सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का लालच देकर सोनिया कांग्रेस के कंधों का इस्तेमाल करना और भाजपा विरोधी दलों के साथ गठबंधन बनाकर प. बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाहर कुछ सीटों की भीख पाने की कोशिश करना। इसलिए अल्पमत में होते हुए भी इस सरकार को बनवाने के लिए परदे के पीछे जितनी जोड़तोड़ और मशक्कत माकपा नेता हरकिशन सुरजीत और ज्योति बसु ने की, उतनी किसी ने नहीं की। सरकार पर दबाव बनाने के लिए वे एक ही राग अलापते रहते हैं कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने की जिम्मेदारी अकेली हमारी नहीं है, यह कांग्रेस और राजद जैसे दलों की भी है।इस सरकार की आर्थिक नीतियां किस दिशा में जाने वाली हैं, इसका आभास कम्युनिस्टों को पहले दिन से था। जिस दिन सुरजीत के घर पर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के फैसले पर वाम मोर्चे की सहमति की मुहर लगी थी, क्या उस समय उन्हें मालूम नहीं था कि मनमोहन सिंह भारत में बाजारवाद की अर्थनीति के प्रवर्तक हैं? उन्होंने ही चन्द्रशेखर सरकार के सलाहकार और पी.वी. नरसिंह राव सरकार के वित्तमंत्री के रूप में आर्थिक सुधार की वर्तमान प्रक्रिया को आरंभ किया था। वामपंथ समर्थित संयुक्त मोर्चा सरकार के वित्त मंत्री के नाते पी. चिदम्बरम् के आर्थिक सोच से क्या कम्युनिस्ट नेता अनभिज्ञ थे? मोंटेक सिंह अहलूवालिया की योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर नियुक्ति से ही क्या यह स्पष्ट नहीं था कि मनमोहन सिंह, चिदम्बरम् और मोंटेक सिंह की तिगड़ी की अर्थनीति की दिशा क्या होगी? सब कुछ जानकर भी समर्थन और विरोध के इस दो मुंहे नाटक का उद्देश्य क्या हो सकता है, सिवाय इसके कि संप्रग सरकार को अपने समर्थन से टिकाये रखकर भाजपा-गठबंधन को सत्ता में आने से रोकना और मीडिया में विरोध का नाटक करके अपने को एकमात्र जन हितैषी राष्ट्रभक्त मोर्चे की छवि प्राप्त करना। इससे बड़ा राजनीतिक ढोंग और क्या हो सकता है।इस ढोंग का ही उदाहरण है कि मीडिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के विरुद्ध शोर मचाया जा रहा है और बंद कमरे में भोजन की मेज पर प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी को पूर्ण समर्थन का भरोसा दिलाया जा रहा है। अपनी अमरीका यात्रा से पहले 18 सितम्बर को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी की उपस्थिति में अपने घर पर ज्योति बसु, सुरजीत और सीताराम येचुरी को भोजन पर बुलाकर यह आश्वासन प्राप्त किया और अमरीका में उद्योगपतियों को अधिक से अधिक प्रत्यक्ष निवेश भारत में करने का निमंत्रण देते हुए उन्हें ज्योति बसु के इस वचन का स्मरण दिलाया। कम्युनिस्टों की यह पुरानी रणनीति रही है। ट्रेड यूनियन क्षेत्र में भी वे यही करते रहे हैं। बाहर मजदूरों को संघर्ष के लिए भड़काने वाले जोशीले भाषण देना और अंदर मिल मालिक का स्वादिष्ट भोजन खाकर, उससे कुछ व्यक्तिगत सुविधायें प्राप्त कर श्रमिकों के हितों का सौदा कर लेना। वही नाटक आज भी चल रहा है। मीडिया में फुफकारना और महल में जाकर मिमियाना। वाममोर्चे के चारों दलों में भोजन का निमंत्रण पाने की प्रतिस्पर्धा लगी हुई है। तीनों छोटे दल-ए.बी.वर्धन की भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, 3-3 सांसदों वाली आर.एस.पी. और फार्वर्ड ब्लाक भी अपने महत्व को जताने के लिए बीच-बीच में सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी देकर अपने लिए प्रधानमंत्री या वित्त मंत्री से भेंट का निमंत्रण प्राप्त कर लेते हैं। 18 सितम्बर को ज्योति बसु, सुरजीत और येचुरी ने प्रधानमंत्री के घर भोजन किया तो वर्धन साहब नाराज हो गए कि हमें क्यों नहीं बुलाया, केवल माकपा के तीन लोग क्यों बुलाये। इसलिए वित्तमंत्री पी. चिदंबरम् ने वामपंथियों के अहं को तुष्ट करने के लिए 21 सितम्बर, दोपहर के भोजन पर माकपा के येचुरी और प्रकाश कारत को बुलाया और रात्रि भोज पर माकपा के ए.बी. वर्धन व डी. राजा को बुला लिया। साथ ही सार्वजनिक प्रचार कर दिया कि वे आर.एस.पी. और फार्वर्ड ब्लाक को भी अलग से बुलायेंगे।सच बात यह है कि वामपंथियों का अब सिद्धान्तवाद व विचारधारा से कोई रिश्ता नहीं रह गया है। वे सत्ता के कुछ टुकड़े पाने के लिए किसी से भी गठबंधन कर सकते हैं, किसी का भी विरोध कर सकते हैं। हम भारतवासी कितने भोले हैं कि 75 साल तक कम्युनिस्ट नेताओं के आचरण को देखकर भी उनके चरित्र का सही मूल्यांकन नहीं कर पाये। हमसे चतुर और दूरदर्शी तो अंग्रेज शासक निकले जिन्होंने 1943 में ही लिख दिया था कि भारतीय कम्युनिस्ट केवल विरोध कर सकते हैं, किसी के सगे नहीं हो सकते सिवाय अपने निजी स्वार्थों के। ब्रिटिश गृह सचिव रिचर्ड टौटनहम की 24 मार्च 1943 की यह टिप्पणी भविष्यवाणी सिद्ध हुई है और एक वाक्य में भारतीय कम्युनिस्टों के चरित्र को नंगा कर देती है।बीमा-क्षेत्र, दूरसंचार और विमानन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का दिल्ली में विरोध करने वाले कम्युनिस्ट प. बंगाल में विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। इकोनोमिक टाइम्स के प्रतिनिधि ऋत्विक मुखर्जी से भेंटवार्ता में प. बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य एक ही बात दोहराते रहे “आमार तो एफ.डी.आई.चाई” अर्थात् किसी भी कीमत पर मुझे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जुटाना ही है। उन्होंने गर्वपूर्वक बताया कि किस प्रकार रिलायंस, विप्रो, इन्फोसिस और सत्यम आदि बड़े उद्योगपतियों के सहयोग से वे प. बंगाल में सूचना-प्रौद्योगिकी को विकसित कर रहे हैं, जिससे 24000 रोजगार निर्माण हो सके। रिलायंस औद्योगिक समूह के सहयोग से धीरु भाई अंबानी की स्मृति में एक सूचना प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना कर रहे है। प. बंगाल विश्व बैंक, एशिया डेवलपमेंट, मैक्स्कि आदि विदेशी संस्थाओं से सलाह और सहयोग ले रहा है। बुद्धदेव ने कहा कि हम जापान, स्विटजरलैंड, ब्रिटेन आदि देशों से आर्थिक मार्गदर्शन व सहयोग ले रहे हैं। विदेशी सहयोग का बंगाल में स्वागत और दिल्ली में विरोध, यह दो मुंहे सांप के लक्षण नहीं तो और क्या है?वामपंथी केन्द्र सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि रोजगार गारंटी योजना को जल्दी से जल्दी लागू किया जाए। बेरोजगार युवाओं की नौकरी का आवेदन पत्र देने के 15 दिन के भीतर यदि उन्हें रोजगार न दिलाया जा सके तो उन्हें रोजाना बेकारी भत्ता दिया जाए। सोनिया ने अपनी सरकार को बचाये रखने के लोभ में उनकी मांग के सामने झुककर यह योजना जल्दी लागू करने की घोषणा कर दी और प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर वेबसाईट पर डाल दी। वित्तमंत्री चिदम्बरम् ने भोजन की मेज पर वचन दे दिया। तब प. बंगाल के वित्तमंत्री असीम दास गुप्त भागे-भागे दिल्ली आये। अपने नेता सीताराम येचुरी और प्रकाश कारत से मिले। उन्होंने कहा कि बेकारी भत्ते की योजना को लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार पर आ पड़ेगी और प. बंगाल सरकार का सन् 1978 से इस दिशा में प्रयोग पूरी तरह असफल रहा है। हम इस योजना को कदापि स्वीकार नहीं करेंगे।कम्युनिस्टों के ढोंग का सबसे बड़ा पर्दाफाश दसवीं पंचवर्षीय योजना की प्रगति के मध्यावधि मूल्यांकन के लिए विश्व बैंक, एशियायी डेवलपमेंट बैंक एवं मैक्ंिस्की नामक अमरीकी कन्सलटेंसी संस्था के विशेषज्ञों की नियुक्ति का विरोध कराने से हुआ है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह ने इस मध्यावधि मूल्यांकन के लिए 19 सलाहकार समूह गठित किए जिनमें श्रमिक, स्वयंसेवी, उद्योग, वित्त आदि क्षेत्रों से कुल 415 विशेषज्ञों को मनोनीत किया। इसमें कुछ विदेशी वित्तीय संस्थाओं एवं विशेषज्ञ संस्थाओं के केवल 15 प्रतिनिधियों को भी नामांकित किया गया था। बस इसे मुद्दा बनाकर कम्युनिस्टों ने प्रचार का बवंडर खड़ा कर दिया कि यह भारत की प्रभुसत्ता को विदेशियों को बेचना है, भारत की गुलामी को निमन्त्रण देना है। बार-बार यह कहने पर भी कि ये केवल सलाहकार समूह है, निर्णय लेने वाली समितियां नहीं। जिन संस्थाओं से आप आर्थिक सहयोग ले रहे हैं, जिनसे आपकी अपनी सरकार प. बंगाल में सलाह और सहयोग ले रही है, उनसे इतना परहेज क्यों? जो लोग विदेशी मूल की महिला को प्रधानमंत्री बनाने पर तुले हैं, उन्हें विदेशी संस्थाओं के प्रतिनिधियों से खतरा क्यों है? लेकिन जो कम्युनिस्ट हमेशा विदेशी पैसे से पलते रहे, उनका गुणगान करते रहे, उनके विचारों की तोता रटंत करते रहे वे अपनी राष्ट्रभक्ति का दिखावा करने के लिए विरोध पर अड़े रहे। उनके पांच अर्थशास्त्री फोर्ड फाउण्डेशन के पैसे पर खड़ी संस्थाओं से जुड़े हैं, ये सब अमरीकी यात्रा के अवसर ढूंढते रहते हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने यह भी पाया कि विदेशी संस्थाओं के जिन 15 प्रतिनिधियों के नाम पर हो-हल्ला मचाया जा रहा है वे सब भारतीय नागरिक ही हैं और सरकारी मंत्रालयों में ऊं‚चे पदों पर काम कर चुके हैं या बम्बई विश्वविद्यालय के प्राध्यापक हैं। इससे हास्यास्पद स्थिति क्या हो सकती है कि जो अर्थशास्त्री किसी एक विदेशी विचारधारा से बंधे हों, विदेशनिष्ठ पार्टी के गुलाम हों, विदेशी पैसे का उपभोग करते हों, वे भारतीय मूल के विदेशी विशेषज्ञों से राष्ट्र की स्वाधीनता को खतरा बतायें। इससे भी शर्मनाक स्थिति यह है कि दोनों कम्युनिस्ट दल महाराष्ट्र और बिहार में कुछ सीटें पाने के लिए कांग्रेस-राकांपा गठबंधन और राष्ट्रीय जनता दल के सामने किस तरह नाक रगड़ रहे हैं और स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने की धमकियां दे रहे हैं। सच है भारतीय कम्युनिस्ट किसी के सगे नहीं हैं, वे दो मुंहें सांप की तरह किसी को भी डस सकते हैं। 24.9.200439

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