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मंथन

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Feb 5, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Feb 2004 00:00:00

कम्युनिस्ट औरसोनिया-मंडलीयानी”मातम के मसीहाओं”की टोलीदेवेन्द्र स्वरूप”दौड़ो-दौड़ो, बचाओ-बचाओ, रोको-रोको, आसमान गिर रहा है। जल्दी रोको” चीखती-चिल्लाती, पसीने से तर ब-तर घबरायी हुई टिटहरी पीठ के बल जमीन पर लेट गयी। अपने नन्हे-नन्हे चारों पैर ऊपर की ओर उठा दिये आसमान को रोकने के लिए। बेचारी टिटहरी की नन्ही सी जान और सब ओर फैला इतना भारी आसमान!! बेचारी टिटहरी करे भी तो क्या। यही हालत है आजकल हमारे एक दर्जन कम्युनिस्ट पार्टियों और करीब एक सौ कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों, रंगकर्मियों और कलाकारों की। उन्होंने फतवा जारी कर दिया है कि देश को, सेकुलरवाद को बचाने के लिए “फासिस्ट साम्प्रदायिक” भाजपा का रथ रोकना जरूरी है। यह रथ अब नहीं रुका तो कभी नहीं रुकेगा। इसलिए उन्होंने भाजपा हराओ मोर्चा बना लिया है। सभी सेकुलर पार्टियों, सभी वोटरों के नाम फतवा जारी कर दिया है कि कोई भाजपा को वोट न दे। यह फतवा लेकर वे चारों तरफ दौड़ रहे हैं। एक दस्ता लखनऊ पहुंच गया है अटल बिहारी वाजपेयी को हराने के लिए, शबनम हाशमी भागी गयीं गुजरात वहां के मुसलमानों को गोलबंद करने के लिए, फतवे में यह नहीं कहा गया है कि वोट किसे दें। अपने लिए तो वोट मांग नहीं सकते क्योंकि प. बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाहर कम्युनिस्ट पार्टियों का कहीं वजूद ही नहीं है। इसलिए कोई शिखंडी ढूंढना जरूरी है और वह शिखंडी हो सकता है अपने को 119 साल पुरानी बताने वाले कांग्रेसियों की “सोनिया मंडली”। पर, यह राजनीतिक दल है या एक खानदान की कारपोरेट कम्पनी।कांग्रेस या कारपोरेट कम्पनीइसके पास चुनाव प्रचार के लिए कुल मिलाकर तीन नेता हैं- एक विदेशी मूल की मां, एक बेटी और एक बेटा। चौथा कोई नाम हो तो हमें बता दीजिए। सब तरफ से उन्हीं की मांग है। कहां-कहां जाएं। अपनी सीटें बचायें कि गुलामों की सीट बचायें। इस सोनिया कम्पनी के तीन निदेशक हैं, परदे के पीछे दो-चार प्रबंधक हैं- आस्कर फर्नांडीस और विंसेंट जार्ज जैसे। मीडिया को बहलाने के लिए कुछ पेशेवर वकील हैं-कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, अश्विनी कुमार और आर.के. आनन्द जैसे। इस पूरी कारपोरेट कम्पनी में कांग्रेसी कहीं नहीं हैं। कांग्रेस का सिर्फ लेबल है। कांग्रेस तो कभी की मर चुकी है। अब केवल उसकी लाश है और उस लाश में घुसा हुआ वंशवादी प्रेत। यही प्रेत आजकल हमारे जनाधारशून्य कम्युनिस्ट बहादुरों का शिखंडी है। उसे ही सामने रखकर वे भाजपा के विजय रथ को रोकने का सपना देख रहे हैं।क्या सचमुच भाजपा से उन्हें इतनी नफरत है और सोनिया मंडली से सच्चा प्यार है? क्या वे किसी सिद्धान्त की लड़ाई लड़ रहे हैं? तब 1989 में उन्होंने कांग्रेस को हराने के लिए भाजपा से दोस्ती क्यों की थी? और अब भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस यानी सोनिया मंडली के कंधों का सहारा क्यों ले रहे हैं? सच तो यह है कि वे किसी के सगे नहीं हैं, वे अपनी अस्तित्व-रक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं और उनका अस्तित्व किसी सिद्धान्त पर नहीं, केवल व्यक्तिगत अहंकार और स्वार्थ पर टिका है। यदि वे कम्युनिस्ट हैं, यदि माक्र्सवाद में उनकी सच्ची निष्ठा है तो कोई पूछे कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी (माले), एस.सी.यू.आई, माक्र्सवादी कम्युनिस्ट सेन्टर, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक आदि दर्जनों पार्टियों में कौन सा सैद्धान्तिक मतभेद है। सभी तो अपनी छाती पर माक्र्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के चित्र लगाये घूम रहे हैं और सभी आपस में लड़ रहे हैं। सीटों के लिए लड़ रहे हैं। आर.एस.पी. और फारवर्ड ब्लाक को शिकायत है कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस की पिछलग्गू बन गयी है। कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने अपनी पुस्तिका में लिखा है, “बुर्जुआ दलों के सामने आत्मसमर्पण करना माकपा का कलंकित इतिहास है।” बिहार में केवल एक सीट पाने के लिए माकपा ने लालू यादव के सामने घुटने टेक दिये। लालू यादव और राम विलास पासवान के बाहुबली उम्मीदवारों के खिलाफ मुंह नहीं खोल पा रही। कम्युनिस्ट कार्यकर्ता चन्द्रशेखर के हत्यारे शहाबुद्दीन के खिलाफ मुंह सी लिया है कि कहीं लालू यादव नाराज न हो जाय। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को लालू ने घास नहीं डाली। वह लालू के खिलाफ चुनाव लड़ रही है पर माकपा उसका साथ देने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही।कैसी वफादारीजब कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रति माकपा का यह रुख है तो सोनिया मंडली उर्फ कांग्रेस उससे वफादारी की क्या उम्मीद कर सकती है? केरल में कांग्रेस के खिलाफ पूरी ताकत लगाने के लिए 86 वर्षीय बूढ़े सुरजीत से लेकर सीताराम येचुरी, प्रकाश कारत, नीलोत्पल बसु आदि सभी तोपें केरल पहुंच रही हैं। माकपा की साख इतनी गिर चुकी है कि केरल के कांग्रेसी मुख्यमंत्री आरोप लगा रहे हैं कि माकपा की भाजपा के साथ मिलीभगत है। उधर पंजाब में भी एक विद्रोही कम्युनिस्ट उम्मीदवार चन्नी का सार्वजनिक आरोप है कि पंजाब में माकपा भाजपा से मिल गयी है। है न अजूबा। एक ओर ज्योति बसु और हरकिशन सुरजीत घोषणा करें कि हम सोनिया को प्रधानमंत्री बना देखना चाहते हैं, प्रकाश कारत सार्वजनिक अपील करें कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस को वोट दो पर दूसरी ओर उनके अपने बागी और कांग्रेस के नेता उन पर भाजपा के साथ गुप्त सांठगांठ का आरोप लगायें मतलब साफ है कि किसी को माकपा पर विश्वास नहीं, उसकी असलियत को सब पहचान गये हैं।पर बेचारी टिटहरी को तो आसमान रोकना ही है। वह हर दरवाजे पर दस्तक दे रही है, सेकुलरवाद की कसमें खा रही है, सेकुलर मोर्चे की बात कर रही है। पर कोई उसकी बात सुनने को तैयार ही नहीं है। टिटहरी की दृष्टि में केवल हिन्दुत्व यानी भारतीय राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता है और प्रत्येक जातिवाद, क्षेत्रवाद और मजहबी कट्टरवादी दल सेकुलर है। सेकुलर मोर्चे में आने लायक है। दूसरे शब्दों में कहना हो तो देश को जोड़ने वाला विचार भारतीय कम्युनिस्टों का शत्रु है और समाज तथा देश को तोड़ने वाला प्रत्येक दल और विचार उनका प्रिय मित्र। इसलिए सेकुलरवाद के नाम पर वे मुस्लिम कार्ड, जाति कार्ड, क्षेत्रवाद का कार्ड, दलित कार्ड, जनजाति कार्ड, नारी कार्ड खेलते रहे हैं। समाज को अनेक वर्गों में बांटकर उन वर्गों के बीच नफरत के बीज बोते रहे हैं। केवल अपने स्वार्थ के लिए, सत्ता के कुछ टुकड़े पाने के लिए। अब उनका यह स्वार्थी, तोड़क चरित्र पूरी तरह बेनकाब हो गया है। उनके सेकुलरवाद का झूठ और ढोंग सबके सामने आ गया है। इसलिए कोई दल उनके सेकुलर मोर्चे में आने को तैयार नहीं है, न मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, न लालू यादव और रामविलास पासवान, न मायावती और न शरद पवार। बेचारी टिटहरी अकेली ही पैर उठाकर आसमान को रोकने की कोशिश कर रही है।हिन्दू बहुसंख्या का हौवासबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि जिन मुसलमानों को कम्युनिस्टों अपना सबसे बड़ा हितैषी दिखाया था, उनके सामने हिन्दू बहुसंख्या का हौवा खड़ा किया था, उनके और हिन्दू समाज के बीच नफरत और विद्वेष की दीवार खड़ी करने की कोशिश की थी वही मुस्लिम समाज उनकी इस तोड़क राजनीति से ऊब गया है और हिन्दू-मुस्लिम एकता में ही अपना व भारत का भविष्य देखने लगा है। उसे यह दिखाई देने लगा है कि कम्युनिस्टों का सेकुलरवाद झूठा है, आपस में लड़ाने वाला है। कम्युनिस्टों ने ही गांधी जी के खिलाफ जिन्ना का साथ देकर देश का विभाजन कराया, लाखों-करोड़ों घरों को बर्बाद किया, खून-खराबा कराया। हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाने में उन्होंने निहित स्वार्थ पैदा कर लिया है। मुस्लिम समाज को सुधार के रास्ते पर बढ़ाने के बजाय उन्होंने उसे कट्टरवाद के गड्ढे में ही धकेलने की कोशिश की। मुस्लिम समाज यह देखकर आश्चर्य है कि जिस हिन्दुत्व, जिस संघ विचार परिवार, जिस भाजपा के विरुद्ध कम्युनिस्ट प्रचारतंत्र ने उनके दिलों में जहर भरा था, वे हमारे सच्चे हितचिन्तक हैं, वे हमसे खुले दिल से संवाद करने को तैयार हैं, वे वोटों के लिए हमारी चापलूसी करने के बजाय सच्चे राष्ट्रवाद के अधिष्ठान पर हमें गले लगाने को तैयार हैं। वे हमें कट्टरवाद के गड्ढे से निकालकर सुधार के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही भारत-पाकिस्तान सम्बंध मधुर हो रहे हैं। पन्द्रह साल बाद भारत की क्रिकेट टीम ने पाकिस्तान की धरती पर मैच खेला, क्रिकेट का यह मैच कटुता पैदा करने के बजाय मैत्री का पुल बन गया, कश्मीर में शान्तिपूर्ण पारदर्शी चुनाव हो सके, गुजरात के अलावा पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए। और कई जिम्मेदार मुस्लिम विचारक और नेता यह मानने लगे हैं कि गुजरात के दंगे गोधरा के नरमेध की तात्कालिक प्रतिक्रिया थी, कोई स्थायी प्रवृत्ति नहीं। अत: तीस्ता सीतलवाड़ और शबनम हाशमी जैसे वामपंथियों के बहुत जोर लगाने पर भी गुजरात के मुसलमानों ने इस बार भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस को वोट नहीं दिया (देखिए, एशियन एज 22 अप्रैल में सीमा मुस्तफा की लम्बी रपट) कम्युनिस्टों का झूठ सेकुलरवाद ढह गया है। आरिफ मोहम्मद खान, आरिफ बेग, इलियासी, सईद नकवी, सीमा मुस्तफा, एम.जे.अकबर, इमाम बुखारी जैसे अनेक समझदार मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवी भाजपा की ओर आशा भरी दृष्टि से देखने लगे हैं। अजमेर की प्रसिद्ध दरगाह के मुफ्ती साहब ने लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को केरल जाकर शुभकामनाएं दीं। महत्वपूर्ण मुस्लिम नेताओं ने “अटल हिमायत कमेटी” बनाकर पूरे देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रचार का बीड़ा उठाया है। एकता के इस पर्व को देखकर नफरत और विद्वेष के ये व्यापारी बहुत परेशान हो गये हैं। वे अब उन कट्टरवादी चेहरों को ढूंढ रहे हैं जो मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा के विरुद्ध खड़ा रहने का फतवा जारी कर सकें। अब उनकी उम्मीद मिल्ली काउंसिल पर टिकी है, या दूसरा जिन्ना बनने का सपना देख रहे सैयद शहाबुद्दीन पर, पर इनके फतवे का मुस्लिम समाज पर कितना असर होगा, यह देखना बाकी है।उतरा सेकुलरवाद का मुखौटासेकुलरवाद का मुखौटा उतर जाने के बाद कम्युनिस्टों के पास बचा क्या? केवल झूठे प्रचार की ताकत। उनके कलमघिस्सुओं की फौज राजग, भाजपा और वाजपेयी के विरुद्ध झूठे प्रचार में जुट गयी। उन्होंने अपना तोड़-फोड़ का हथियार राजग और भाजपा पर चलाना शुरू किया। कभी अटल और आडवाणी को लड़ाने की कोशिश की पर अटल जी ने कहा कि मैं आडवाणी के कारण ही प्रधानमंत्री बना हूं और हम दोनों दो शरीर एक प्राण हैं। फिर राजग में फूट डालने की कोशिश की। अटल जी के किसी एक भाषण के एक वाक्य को पकड़कर राजग के घटकों के मन में जहर भरने की कोशिश की कि भाजपा राजग के कंधों पर चढ़कर पूर्ण बहुमत पाना चाहती है। पूर्ण बहुमत मिल गया तो उन्हें ठोकर मार देगी। पर कई घटकों ने साफ कह दिया कि आप अपनी चालाकी अपने पास रखिए। हम एक दूसरे को खूब समझते हैं। कभी राजग के घोषणापत्र में अयोध्या मुद्दे के उल्लेख को उछालकर कहना शुरू किया कि राजग का भाजपा में विलय हो गया है।कम्युनिस्टों का मुख्य निशाना हैं अटल बिहारी वाजपेयी। राष्ट्र के मन में एकता और उज्ज्वल भविष्य का जो विश्वास उनके नेतृत्व ने पैदा किया है, वह कम्युनिस्टों को सबसे बड़ा खतरा लगता है। इसलिए उनका पूरा प्रचारतंत्र अटल जी की लोकप्रियता में बाधा डालने की कोशिश में जुटा है। कभी वे साठ साल पुराना मुखबिरी का रिकार्ड बजाते हैं, कभी अटल जी के उत्तराधिकारी का सवाल उठाते हैं, कभी उन पर दोमुंहा बयान देने का आरोप लगाते हैं, कभी उन्हें संघ का मुखौटा बताते हैं। उनके इशारे पर सोनिया के भाषणों का एकमात्र विषय अटल जी की आलोचना और देश की अब तक की प्रगति पर प्रश्नचिन्ह लगाना रह गया है। अटल जी ने सोनिया की सारी भड़ास को “मातम का मसीहा” कहकर खारिज कर दिया।आसमान रोकने की कोशिशबेचारी टिटहरी करे भी तो क्या वह आसमान को रोकने की जितना कोशिश करती है, वह उतना ही फैलता और भारी होता जाता है। टिटहरी ने छद्म विज्ञापनों के द्वारा अटल जी का चरित्रहनन करने का षडंत्र रचा, वह फेल हो गया। टिटहरी नहीं चाहती थी कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण प्रकाशित हों। उसने बहुत जोर लगाया, चुनाव आयोग के दरवाजे पर खूब माथा रगड़ा पर वही हुआ जो टिटहरी नहीं चाहती थी। मतदान के पहले दौर के सर्वेक्षण ने ढिंढोरा पीट दिया कि सोनिया मंडली के सत्ता में आने के कोई आसार नहीं है, सरकार बनेगी तो अटल जी के नेतृत्व में राजग की ही। भारत को एकता, स्वावलंबन और समृद्धि के रास्ते पर बढ़ने से कोई ताकत नहीं रोक पायेगी, क्योंकि भारत की नियति है कि 2020 तक वह विश्व में एक मार्गदर्शक महाशक्ति बन कर उभरे। सब ज्योतिषीय भविष्यवाणियां भी भारत की इस प्रगति यात्रा का नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ही बता रही हैं।अब बताइए बेचारी टिटहरी क्या करे? पूरे देश में तो वह कहीं है नहीं। बंगाल का गढ़ भी ढहता प्रतीत हो रहा है। ट्रेड यूनियनवाद और मतदान में वैज्ञानिक धोखाधड़ी के सहारे वह कब तक इस दुर्ग को बचा सकेगी। यदि चुनाव आयोग प. बंगाल में मतदान कराने वाले प्रशासक वर्ग में कम से कम आधे लोग बंगाल के बाहर से ले जाने में समर्थ हुआ तो इस बार कुछ चौंकाने वाले परिणाम आ सकते हैं, किन्तु जो कम्युनिस्ट गुजरात दंगों से सम्बंधित मुकद्दमों की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं, वही कम्युनिस्ट प. बंगाल में बाहर से कर्मचारी वर्ग को लाने के लिए चुनाव आयोग के आदेश से बौखला कर पागल हो गये हैं। नन्हें से त्रिपुरा में दस साल शासन करने के बाद भी माकपा वहां आतंकवाद से त्रस्त है और केन्द्रीय सरकार से अधिक सुरक्षा बल भेजने की गुहार लगाती रहती है, पर आन्ध्र, उड़ीसा, झारखण्ड और बिहार जैसे राज्यों में नक्सली हिंसा पर वह चुप्पी साधे हुए है। क्या इसलिए कि वहीं सच्चा माक्र्सवाद है और माकपा का चुनावी माक्र्सवाद केवल एक ढकोसला है, मुखौटा है। यदि नहीं तो लोकतंत्रीय चुनावों में भाग लेने वाली सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को नक्सली हिंसा को माक्र्सवाद और लोकतंत्र का सबसे बड़ा शत्रु घोषित कर देना चाहिए था। उनकी प्रचार की बंदूकों का मुंह लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद के बजाय अधिनायकवाद की ओर घूमना चाहिए। बेचारी टिटहरी हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही है “हे माक्र्स, हे लेनिन, हे स्तालिन, हे माओ” तुम्हें सबने त्याग दिया, चीन ने छोड़ दिया, केवल हम अपनी छाती से चिपकाये हैं, अब तुम ही हमारी रक्षा करो, त्राहिमाम, त्राहिमाम। (23-4-2004)22

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