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केरल-कर्नाटक-आंध्र प्रदेश-तमिलनाडुदक्षिण में सुनाई दी बदलाव की दस्तक-तिरुअनंतपुरम से प्रदीप कुमारओ. राजगोपालदक्षिण के चार राज्यों-केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में लोकसभा चुनाव 2004 में बदलाव की दस्तक सुनाई दी है। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव भी हो रहे हैं। दक्षिण के इन चारों राज्यों का सिलसिलेवार विश्लेषण स्थानीय स्थितियों को और स्पष्ट कर देगा।केरलकेरल में इस बार भाजपा द्वारा खाता खोले जाने के अच्छे आसार दिख रहे हैं। हालांकि यहां तमाम हिंसक विरोधों के बावजूद हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों का कार्य बहुत पहले से और सुव्यवस्थित तौर पर चल रहा है लेकिन ऊंचे कद के स्थानीय नेताओं के अभाव के कारण शायद भाजपा को अपना राजनीतक लक्ष्य अभी तक नहीं मिला था। उधर दो प्रमुख मोर्चों-वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (वालोमो) और संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (संलोमो) में आपसी रस्साकशी साफ तौर पर दिख रही है। कांग्रेस में भयंकर गुटबाजी के कारण संलोमो छितरा हुआ है। चुनाव के ठीक पहले मुख्यमंत्री एंटोनी और वयोवृद्ध नेता करूणाकरन के बीच मान-मनौव्वल होने के बाद उम्मीदवारों की सूची तैयार की गई। परन्तु इस सूची के कारण कई वरिष्ठ स्थानीय कांग्रेसी अपने पसंदीदा उम्मीदवारों के नाम न पाकर खिन्न हो गए। इस तरह चुनाव से पहले कांग्रेस अपनी खेमेबाजी से जूझ रही है।समस्याएं वालोमो में भी हैं। माकपानीत इस मोर्चे ने 1999 चुनावों में 20 में से 9 सीटें जीती थीं जबकि माकपा ने 8। 2 को छोड़कर माकपा ने अपने शेष 6 निवर्तमान सांसदों को फिर से टिकट दिया है। इसे लेकर माकपा महासचिव पिनरई विजयन और विपक्ष के नेता अच्युतानंदन के बीच दिनोंदिन खाई गहराती जा रही है।ऐसी स्थिति में भाजपा अपने व्यवस्थित प्रचार और जमीनी कार्यकर्ताओं की मेहनत के भरोसे खाता खोलने के प्रति आश्वस्त है। तिरुअनंतपुरम से भाजपा उम्मीदवार केन्द्रीय रक्षा राज्यमंत्री ओ. राजगोपाल अपने प्रतिद्वन्द्वियों -माकपा के वासुदेवन नायर और कांग्रेस के शिवकुमार- से आगे चल रहे हैं।कर्नाटकदक्षिणी राज्यों में कर्नाटक में भाजपा का आधार मजबूत माना जाता है। इसके पीछे राजनीतिक व सामाजिक कारण हैं। 1991 में भाजपा ने यहां लोकसभा में पहली बार 4 सीटें जीती थीं और 12 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी। आगे चलकर 1998 लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 13 सीटें जीतकर राज्य के लोगों के मन में अपने प्रति बढ़ते विश्वास को सिद्ध किया था।राज्य के तीन प्रमुख राजनीतिक दलों-भाजपा, कांग्रेस और जनता दल (से.) -की ताकत तुलना की दृष्टि से आज बहुत स्पष्ट हो चुकी है। 1999 से आज 2004 के बीच बड़ी संख्या में गैर कांग्रेस व गैर भाजपा वोट आकर्षित करता आ रहा जनता परिवार आज आकार और प्रभाव में सिकुड़ चुका है। आज जनता दल (से.) पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा के गिर्द ही सिमटा दिखता है। श्री रामकृष्ण हेगड़े की मृत्यु के बाद जनता दल (एकी.) अब उतना प्रभावी नहीं रहा और श्री हेगड़े के रहते हुए ही पार्टी के एक वर्ग ने अलग होकर आल इंडिया प्रोग्रेसिव जनता दल (ए.आई.पी.जे.डी.) बना लिया था।चुनाव प्रचार की दृष्टि से भी राजग कांग्रेस से कहीं आगे दिख रहा है। हालांकि राजग के भारत उदय अभियान की धार कुंद करने की दृष्टि से चलाया गया एस.एम. कृष्णा सरकार का लोकहित योजनाओं का नियोजित प्रचार बेअसर साबित हुआ। कांग्रेस पहले से अधिक सीटें जीतने के दावे के कुछ कारण भी गिना रही है। 1999 में कांग्रेस ने 28 में से 17 सीटें जीती थीं, भाजपा ने 7, जद (से.) ने एक और जद (एकी.) ने 3। इस साल के शुरू में कांग्रेस के विधानसभा में 135 विधायक थे जबकि 23 फरवरी को विधानसभा भंग होते समय ए.आई.पी.जे.डी. के नौ ओर 2 निर्दलियों का समर्थन भी कांग्रेस को प्राप्त हो गया था, भाजपा के 8 निष्कासित विधायकों ने भी कांग्रेस को अपना समर्थन दिया था। लेकिन ये आंकड़े कांग्रेस सरकार के प्रति जनता का दुराव नहीं छुपा सकते।इस बात की पूरी संभावना है कि कर्नाटक में सरकार बनाने की भाजपा की घोषणा सत्य साबित हो। संकेत हैं कि विधानसभा की 284 सीटों में से भाजपा व सहयोगी दल 111 सीटें जीतेंगे जबकि कांग्रेस और उसके सहयोगी मात्र 84 सीटें। अन्यों को 29 सीटें मिल सकती हैं, इस संकेत को भांपकर कांग्रेस खेमा बौखलाया हुआ है।भाजपा के 45 वर्षीय प्रदेश अध्यक्ष अनंत कुमार, जो दक्षिण बंगलौर सीट से तीन बार सांसद रह चुके हैं, भाजपा अभियान के प्रमुख रणनीतिकार हैं। पूर्व मुख्यमंत्री एस. बंगारप्पा का भाजपा में आना भी एक उत्साहजनक घटना के रूप में देखा जा रहा है।उधर सत्ता-विरोधी भाव से घबराकर मुख्यमंत्री कृष्णा नुक्कड़ सभाओं में व्यस्त हैं। इन सभाओं के प्रति जनता की बेरुखी से भी पार्टी सकते में है, जबकि दूसरी ओर भाजपा आश्वस्त दिखती है।आंध्र प्रदेश की एक सभा में मुख्यमंत्री श्री चंद्रबाबु नायडूके साथ उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणीआंध्र प्रदेशआंध्र प्रदेश में इन दिनों पारा तेजी से ऊपर चढ़ रहा है। मौसम की गर्मी के साथ ही राजनीतिक गर्मी भी कांग्रेस में उपज रहे विद्रोह की तपिश दबा नहीं पा रही है। तेदेपा-भाजपा गठजोड़ बेहतर सामंजस्य दिखा रहा है। भाजपा 42 लोकसभा सीटों में से 9 पर चुनाव लड़ रही है। विधानसभा चुनाव भी साथ ही हो रहे हैं अत: भाजपा ने कुल 294 विधानसभा क्षेत्रों में से 27 सीटों पर लड़ने का मन बनाया है। तेलंगाना राष्ट्र समिति और कांग्रेस का गठजोड़ कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को गले नहीं उतरा है और कई नेता टिकट न मिलने के कारण बदला लेने की ठाने हुए हैं।उधर भाकपा ने लोकसभा की एक और विधानसभा की 7 सीटें अपने नाम कराने में सफलता हासिल कर ली है। माकपा में लोकसभा की दो सीटों-मिरयलगुडा और खम्मम- को लेकर कांग्रेस के साथ उठापटक चल रही है। लेकिन कांग्रेस ने इन सीटों पर अपने उम्मीदवारों-क्रमश: जयपाल रेड्डी और रेणुका चौधरी- के नामों की घोषणा कर दी है।भाजपा कार्यकर्ता यूं तो पार्टी को मिली 9 सीटों से संतुष्ट नहीं हैं, परन्तु पार्टी के हितों को देखते हुए अभियान में जुट चुके हैं। चंद्रबाबू नायडू भी भाजपा से अपनी निकटता सार्वजनिक मंचों पर बढ़-चढ़कर दिखा रहे हैं। वे सुखद अहसास और राजग सरकार के शासन में हुए विकास की खूब तारीफ कर रहे हैं।1999 के विधानसभा चुनावों में यहां कांग्रेस को 91 सीटें मिली थीं, जबकि तेदेपा-भाजपा को 191। तब लोकसभा चुनाव में तेदेपा-भाजपा गठबंधन को 42 में से 36 सीटें मिली थीं जबकि कांग्रेस को महज 5 सीटें। इस बार तेलंगाना का मुद्दा निश्चित रूप से मतदान पर असर दिखाएगा। तेलंगाना क्षेत्र में भले कांग्रेस को कुछ सफलता मिले पर तटीय आंध्र और रायलसीमा में उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।तमिलनाडु1996 के लोकसभा चुनावों तक कांग्रेस इस राज्य में एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपना दबदबा बनाए हुए थी। क्षेत्रीय दलों में केवल द्रमुक और अन्नाद्रमुक ही दिखाई देते थे। 1998 में अन्नाद्रमुक के साथ गठजोड़ करके भाजपा ने यहां से लोकसभा का खाता खोला था। 1999 के मध्यावधि चुनाव में अन्नाद्रमुक की प्रतिद्वन्द्वी-द्रमुक के साथ चुनावी तालमेल करके भाजपा ने लोकसभा में यहां से 4 सीटें जीतकर अपना असर बढ़ाया था। इस बढ़ते असर के पीछे भाजपा का द्रविड़ दलों के सामने कोई वैचारिक चुनौती खड़ी न करना और जातिवाद से प्रभावित द्रविड़ राजनीति में दखल देने की कोशिश न करना कारण रहा था। तब रामदास और वाइको के नेतृत्व वाली क्रमश: पी.एम.के. और एम.डी.एम.के. को भी भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रवादी दलों से हाथ मिलाने में कोई दिक्कत नहीं आई थी। तमिलनाडु का पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग वाजपेयी को एक वरिष्ठ राजनेता के रूप में देख रहा है।इस बार प्रदेश की अन्नाद्रमुक सरकार ने चुनावों में अपने कार्यकर्ता तंत्र के सहारे अभियान जोर-शोर से चला रखा है। 10 मई को होने वाले चुनावों के लिए अन्नाद्रमुक कार्यकर्ताओं ने दूरदृष्टि रखते हुए फरवरी में ही दीवारों पर नारे, अपील लिखने शुरू कर दिए थे। मुख्यमंत्री जयललिता ने 9 मार्च को अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था।अन्नाद्रमुक राज्य की 39 लोकसभा सीटों में से 33 पर चुनाव लड़ रही है जबकि 6 सीट इसने भाजपा के लिए छोड़ी हैं। पांडिचेरी की एकमात्र सीट पर भी भाजपा ही लड़ रही है। अन्नाद्रमुक नेता जयललिता ने निवर्तमान 10 में से केवल दो ही सांसदों (पेरियाकुलम से दिनाकरन और तेनकासी से मुरूगेशन) को फिर से टिकट दिया है। 31 नए चेहरों को इस बार पार्टी ने चुनाव लड़ाने का मन बनाया है। उधर द्रमुक के नेतृत्व में डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव एलायंस (डी.पी.ए.) हकबकाया हुआ है। इस गठजोड़ में एम.डी.एम.के., पी.एम.के., माकपा, भाकपा और मुस्लिम लीग शामिल हैं। द्रमुक 15 सीटों पर लड़ रही है जबकि कांग्रेस 10, पी.एम.के. 6, एम.डी.एम.के. 4, माकपा 2, भाकपा 2 और मुस्लिम लीग एक सीट पर चुनाव लड़ रही है।राज्य के दक्षिणी जिलों में अन्नाद्रमुक-भाजपा गठजोड़ के पक्ष में हवा बह रही है। तमिल फिल्मों के महानायक रजनीकांत ने इस गठजोड़ के लिए चुनाव प्रचार करने की घोषणा की है जिससे उत्साह का संचार होना स्वाभाविक ही है। बहरहाल तमिलनाडु में टक्कर दमदार है, भाजपा की बढ़ती स्वीकार्यता के अलावा मतदाता जयललिता सरकार के कामों को भी परखेंगे और यही बात अंतत: निर्णायक सिद्ध होगी।18
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