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स्त्री

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Jan 8, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jan 2004 00:00:00

हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भतेजस्विनीकितनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। आपके आसपास भी ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बल पर समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गयीं। क्या आपका परिचय ऐसी किसी महिला से हुआ है? यदि हां, तो उनके और उनके कार्य के बारे में 250 शब्दों में सचित्र जानकारी हमें लिख भेजें। प्रकाशन हेतु चुनी गयी श्रेष्ठ प्रविष्टि पर 500 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।पुबाली रायनक्सलवाद की आंधी में टिके रहे जो कदमएक पथ के पथिक: पुबाली और रजत अग्रवाल बीत गए वे दिन जब सहारे को तरसते थे मौसी के साथ बालिका पुबालीविनीता गुप्तापुबाली-अर्थात् पूरब का प्रकाश। पुबाली राय भी सूरज की उस पहली किरण की तरह हंसती-खिलखिलाती चारों ओर उजाला फैलाती हैं। लेकिन खुद भोर की किरण की भांति घने अंधकार को चीरकर निकली हैं 33 वर्षीया युवती पुबाली। बिहार, प. बंगाल और आंध्र प्रदेश में नक्सलवादी घटाटोप ने कितने ही हंसते-खेलते परिवारों को लील लिया, इसका साक्षात् प्रमाण हैं पुबाली राय।उन दिनों नक्सली आंदोलन पूरे-जोर पर था। असीम चटर्जी के कोलकाता स्थित घर पर सभी बड़े नक्सली नेताओं का आना-जाना लगा रहता था। कानू सान्याल, जंगल संथाल…. कौन नहीं आता था, नक्सली नेता असीम चटर्जी के घर। घर भी एक नहीं कई-कई बदले जाते थे। छह महीने भवानीपुर में, फिर छह-आठ महीने हाजरा रोड में और न्यू अलीपुर रोड और फिर कहीं-कहीं मुसाफिरों की तरह गृहस्थी भी चलती रहती। रणनीतियां बनतीं, असीम चटर्जी के घर में। पत्नी रोमा चटर्जी अपनी बेटी ईक्षिता के साथ-साथ सभी का ख्याल रखतीं, लेकिन कभी-कभी ये सब गतिविधियां देखकर कांप उठतीं। 27 जून, 1971 को घर में एक और बेटी का जन्म हुआ, किलकारियां भरती नन्हीं बच्ची पुबाली को आंचल में समेटे रोमा अज्ञात आशंका से भर उठतीं क्योंकि असीम चटर्जी और उनके साथियों को पुलिस तलाश रही थी और फिर एक दिन पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके ले गयी। छह महीने की नन्हीं पुबाली बिलखती रही, उसने तो ठीक से आंखें भी नहीं खोली थीं। फिर पिता को क्या जानती? नन्ही बच्ची को गोद में लिए और दो साल की ईक्षिता की अंगुली थामे रोमा निकल पड़ीं अनजानी-अंधेरी डगर पर। खुद जानती थीं कि जेल गए नक्सली नेताओं की पत्नियों के साथ कैसा व्यवहार होता है। कहीं उनके साथ भी वही सब कुछ न हो, “दोनों पैर बांधकर साड़ी में गिरगिट छोड़ देना…. और भी न जाने क्या-क्या।” दोनों बच्चियों को लिए दर-दर भटकते हुए आखिर वह अपने माता-पिता के घर हिन्दुस्तान पार्क पहुंचीं। लेकिन वहां भी जिन्दगी आसान नहीं थी, क्योंकि रोमा ने असीम चटर्जी से विवाह परिवार वालों की इच्छा के विरुद्ध किया था। वहां रहने के लिए उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा। ऐसे ही अंधकार में पुबाली ने होश संभाला। मां राजनीतिक बंदियों के लिए चल रहे बंदी मुक्ति आंदोलन के लिए काम करती रहीं। एक-एक मामले के लिए कहीं-कहीं जाना पड़ता। कभी-कभी वे पुबाली को साथ भी ले जातीं। नन्हीं बुद्धि में कुछ पल्ले नहीं पड़ता। पूरा परिवार बिखर चुका था। अतीत को याद करने की कोशिश करती हैं पुबाली, “सात साल बाद पापा जेल से लौटे, तब मैंने देखा, मेरे पापा कौन हैं। मैं कितनी खुश थी कि पापा आ गए, लेकिन उन्होंने तो एक बार भी गोद में नहीं लिया।” सात साल की नन्हीं पुबाली बड़ी-बड़ी आंखों से टुकुर-टुकुर पापा को देख, सहम-सहम जाती। फिर एक दिन पति-पत्नी अलग हो गए। दस साल की बच्ची अब कुछ समझने लगी थी। उसके शब्दों में “मम्मी बहुत परेशान रहती थीं। मर्द तो छोड़ सकते हैं, लेकिन औरत तो अपने बच्चों को नहीं छोड़ सकती। मां की अंगुली थामे हम कहीं-कहीं आसरा ढूंढते। मम्मी की नौकरी नहीं थी। फिर बाद में राजनीतिक भुक्तभोगी कोटे से उन्हें “लाइब्रोरियन” की नौकरी मिल गयी।” इन्हीं परेशानियों में पुबाली बड़ी होती गई। लेकिन परेशानियां उसकी पढ़ाई पर हावी कभी नहीं हुर्इं। आखिर दसवीं में आई तो बोर्ड की परीक्षा के फार्म में एक स्थान पर पिता के हस्ताक्षर जरूरी थे। बस वह धर्म-संकट में पड़ गयी। उस वक्त को याद करते हुए बताती हैं, “पापा आए लेकिन उन्होंने मेरे फार्म पर हस्ताक्षर करने से साफ मना कर दिया।” बहुत फूट-फूट कर रोयी पुबाली फिर हिम्मत बांधी और विद्यालय में प्रधानाचार्य से बात करके अपनी मां को ही अपना अभिभावक बनाया। “उसके बाद से आधिकारिक या भावुकता के स्तर पर मेरे जीवन में पापा का कोई स्थान नहीं था। मैंने उनका नाम कहीं इस्तेमाल नहीं किया। यहां तक कि अपनी शादी के निमंत्रण पत्र में भी उनका नाम नहीं लिखवाया। उनसे मेरा कोई नाता भी नहीं है और आगे कहीं रखना भी नहीं चाहती। अब वे हमें स्वीकार करना भी चाहें तो क्या, अब हमें उनकी जरूरत नहीं रही। जब जरूरत थी तब वे आए नहीं। बाद में पापा ने किसी और से शादी कर ली। हमारे ऊपर उसका कोई असर नहीं पड़ा, क्योंकि शायद हमारे जीवन में उनका स्थान बहुत पहले से ही नहीं था। मां और हम दोनों बहनें अपनी तरह से हालात से जूझते रहे। लोग आते, हम लोगों को अन्यथा लेते जैसे कि हम अनाथ हैं। और यह अहसास गहराता गया कि हमें अपने पांव पर खड़ा होना है। सबसे पहले बारहवीं के बाद मैंने पैसा कमाने के लिए बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।” एक ओर पढ़ना और दूसरी ओर पढ़ाना, किशोरी पुबाली को कुछ और सोचने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। पढ़ती रही फिर जादवपुर विश्वविद्यालय से अंतरराष्ट्रीय संबंधों में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। वहीं विश्वविद्यालय में कुछ नेत्रहीन विद्यार्थी भी आते थे। वहीं उन्हें पढ़ाना और उनके लिए लिखना शुरू किया। ब्रोललिपि भी सीखी और फिर पुबाली ने नेत्रहीन विद्यार्थियों के लिए एक वाचनालय शुरू किया। विश्वविद्यालय में योग्यता सूची में अच्छा स्थान प्राप्त किया था। बहुत लोग पीएच.डी. करने के लिए कहते थे, लेकिन उन नेत्रहीन विद्यार्थियों ने कहा, “दीदी हमें आप जैसे लोगों की जरूरत है।” पुबाली ने सोचा, “सच में अगर मैं पीएच.डी. कर भी लूंगी तो वह समाज के लिए कितना उपयोगी होगा। उसका सामाजिक मूल्य कितना होगा। मां के कहने के बावजूद मैंने पीएच.डी. नहीं की।” अब पुबाली के रास्ते दूसरे थे। पूरब का प्रकाश आंचल में समेटे नक्सली अंधकार को चीरकर निकली। पुबाली नेत्रहीनों के जीवन का अंधकार दूर करने के लिए निकल पड़ी। नेशनल इंस्टीटूट फार विजुअली हैडीकैप्ड से विशेष शिक्षा में बी.एड किया। दिल्ली आकर राष्ट्रीय शैक्षिक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान परिषद् में नेत्रहीनों के लिए कुछ प्रकल्पों पर काम किया। उन्हीं के लिए नक्शों की किताब तैयार की उसके बाद तो पुबाली नेत्रहीनों के लिए ही काम करने लगीं। इसी उद्देश्य से विशेष शिक्षा में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से एम.एड. किया। इसी राह पर चलते-चलते “नेशनल एसोशिएशन फार द ब्लाइंड” में एक दिन उनकी मुलाकात प्रतिभाशाली युवक रजत अग्रवाल से हुई। लेकिन रंग रूप से आकर्षक, प्रतिभा से लबालब, रजत दुनिया को अपनी आंखों से नहीं देख सकते थे। उसी संस्थान में कम्यूटर शिक्षक के रूप में छात्रों को पढ़ाने आते थे। पुबाली बताती हैं, “एम.एड. करते हुए हमने शादी करने की बात सोची। नेत्रहीन से विवाह! मां यह बात सुनकर बेहद परेशान हो गर्इं लेकिन फिर बाद में राजी हो गर्इं।” और रजत और पुबाली परिणय सूत्र में बंध गए। पुबाली नेत्रहीनों के लिए अन्य अनुसंधान कार्यों में जुट गयीं। नये-नये अनुसंधान, नयी-नयी उपलब्धियां, तमाम सारे प्रकल्प। इसी बीच रजत की बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी के पद पर नियुक्ति हो गई। पुबाली और रजत साथ मिलकर आगे बढ़ने लगे। मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों को विशेष शिक्षा देने में जुट गयीं पुबाली। कई लोग कहते हैं कि नेत्रहीन से शादी करके बड़ी बहादुरी की, कई लोग यह सवाल भी करते हैं कि नेत्रहीन से शादी की है, जरूर इसमें कोई कमी होगी। पुबाली कहती हैं, “सच, रजत पांच-छह साल पहले तक सब कुछ देख सकते थे। कार भी खुद ही चलाते थे….” “अब भी वह क्या नहीं कर सकते। जब मैं थकी-हारी देर से घर पहुंचती हूं तो खाना भी बनाते हैं। उन्होंने भी बहुत संघर्ष किया। इंजीनियरिंग द्वितीय वर्ष की पढ़ाई के समय उनकी आंखों की रोशनी चली गई थी तो नए सिरे से उन्होंने जीवन शुरू किया। पढ़ाई की और आज अपने पैरों पर मजबूती से खड़े हैं।”पुबाली और रजत एक पथ के पथिक हैं। नक्सलवाद के अंधकार में पली-बढ़ी पुबाली के जीवन में अब प्रकाश ही प्रकाश है, और यह प्रकाश वह हर अंधेरे जीवन में लाना चाहती हैं।20

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