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-पंकज परिमल
सूत सूत ही काता हमने जीवन भर
अगर जुलाहे होते तो बिनना आता।
कितने तार उठाने और दबाने हैं
काश हमें यह सही-सही गिनना आता।
मौसम में देखो कुछ ज्यादा सरदी है
तन पे अपने झीनी-झीनी वरदी है
महंगाई को खुली छूट भी बढ़ने की
फिर तनख्वाह बढ़ाने को हां कर दी है।
सुविधाओं के उलझन भरे विकल्प कई
काश, हमें इस उलझन को चुनना आता।
मरने से पहले पूछी भी थी ख्वाहिश
उसने बहुत जरा-सी छोड़ी गुंजाइश
उसका हक कितना या क्या स्वीकार करें
मेरा हक है मैं बतला दूं फरमाइश।
काश, हमें अपनी शर्तें रखनी आतीं
काश, हमें उनके आगे तनना आता।
बेशकीमती हम तो यहां नगीने हैं
मोल लगाने वाले बहुत कमीने हैं।
यूं ही अपना रंग समझता क्या कोई
हम सोने की कोख जड़ें तो मीने हैं।
जीवन में तप-तप कुंदन तो बहुत हुए काश, हमें भी आभूषण बनना आता
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