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यह सांस्कृतिक रक्षाबंधन की शुरुआत है-डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवीसांसद, भारतवंशियों पर बनी उच्चस्तरीय समिति के अध्यक्षआज से 50 साल पहले डा. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी उच्च शिक्षा एवं अध्यापन हेतु विदेशों में गये और उसके बाद वि·श्व के अनेक देशों का भ्रमण किया। जहां-जहां गए, वहां भारतवंशियों के भारत के प्रति प्रेम और अपनी जड़ों से जुड़ने की ललक को उनकी आंखों में पढ़ा, तभी से मन में बस गई भारतवंशियों और भारत के बीच संबंधों का सेतु बनाने की बात। 1962 से संसद में पहुंचने के बाद से पं. जवाहरलाल नेहरू सहित सभी प्रधानमंत्रियों के सामने यह मुद्दा उठाते रहे। वे कहते हैं आखिर श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे सहज आत्मीयता, गंभीरता से सुना और संकल्पशक्ति के साथ इस दिशा में आगे कदम बढ़ाया। और मुझे अपना सपना साकार होता दिखने लगा। पाञ्चजन्य ने डा. सिंघवी से भारतवंशियों के मुद्दे पर लम्बी बातचीत की। यहां प्रस्तुत हैं उस बातचीत के मुख्य अंश-दविनीता गुप्ताथ्भारतवंशियों से इस प्रकार सरोकार स्थापित करने का विचार आपके मानस में कब जन्मा?दृ नीतिगत रूप में भारतवंशियों के साथ सरोकार स्थापित करने का विचार मेरे मन में पचास के दशक में जन्मा, जब मैंने बीहड़ और दुर्गम रास्तों से पूरे यूरोप और ब्रिटेन से लेकर अफगानिस्तान तक मोटरकार से यात्रा की। इस दौरान मेरा अनेक प्रवासी भारतीयों से परिचय हुआ। तब मुझे लगा कि ये भारतमाता की संतानें हैं और भारतमाता अपनी इन संतानों को अपना स्नेह दे, अपनापन दे तो सांस्कृतिक दृष्टि से यह व्यापक अभियान हो सकता है।1962 में जब मैं लोकसभा का निर्दलीय सदस्य चुना गया तब प्रवासी भारतीयों का प्रश्न पं. जवाहरलाल नेहरू के समक्ष रखा था और तब से प्रत्येक प्रधानमंत्री के साथ इस बारे में बातचीत हुई थी, सभी ने रुचि तो दिखाई, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी। पहली बार प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस प्रश्न को बहुत गंभीरता, सहज आत्मीयता और संकल्प शक्ति से लिया और उन्होंने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया।क्या इस आयोजन को भारतवंशियों को जड़ों से जोड़ने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है?भारतवंशी शारीरिक रूप से भले ही भारत से दूर रहे हों, लेकिन कई-कई पीढ़ियों से मानस के स्तर पर भारत से जुड़े रहे हैं। 48 साल पहले जब मैं कैलिफोर्निया में शोध एवं अध्यापन कर रहा था, तब मुझे एक व्यक्ति मिले उन्होंने बताया कि वह प्रवासी भारतीय के वंशज हैं और अपनी जड़ों को खोजना चाहते हैं। उनके दादा 1900वीं शताब्दी के अंत में कैलिफोर्निया आए थे। वे अकेले ही आए थे, क्योंकि तब भारतीय महिलाएं साथ नहीं जाती थीं। वे एक मैक्सिकन महिला के साथ रहने लगे और इस प्रकार इस भारतवंशी युवक की पहचान कैलिफोर्निया में प्रवासी मैक्सिको के लोगों के साथ मिल गई। वह व्यक्ति अपनी जड़ों को खोजना चाहते थे। जमैका में एक बार मैं बीमार था। अस्पताल में एक नर्स मेरी देखभाल कर रही थी, उसने कहा कि मेरे दादा भारत के थे। उनकी शादी एक नीग्रो से हुई थी मेरे माता-पिता दोनों नीग्रो थे। लेकिन मैं भारत से जुड़ना चाहती हूं। और मैं आज एक भारतीय की देखभाल कर रही हूं, इसकी मुझे बहुत खुशी है। इस प्रकार इन भारतवंशियों ने भारत देखा हो या न देखा हो, लेकिन भारत उनके मन में हमेशा जीवित रहा है।सौ-दौ सौ वर्षों पहले भारत छोड़कर गए इन भारतवंशियों ने उन देशों की समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया और पहचान बनाई। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में जो भारतवंशी बाहर गए, उन्हें श्रमजीवी के रूप में वहां ले जाया गया था। जो खेती जानते हों। वे कठिन परिस्थितियों में भारत से गए, लेकिन उन देशों को उन्होंने आबाद किया, हरा-भरा बनाया, उनमें से कुछ ने तो उन देशों में विशेष स्थान प्राप्त किया। मारीशस द्वीप में गन्ने की खेती को संभालने और उन्नति के शिखर पर भारतवंशियों ने पहुंचाया। मारीशस के पास एक द्वीप है रियूनियन आइलैंड। यह फ्रांस का हिस्सा है। वहां के गवर्नर ने बताया कि वहां की आबादी के तीन हिस्से हैं, जिनमें एक हिस्सा भारतवंशियों का है। और इन्हीं भारतवंशियों के चलते ही द्वीप की अर्थव्यवस्था चल रही है। इसी प्रकार फीजी, सूरीनाम, जमैका, ग्वाडालूप, गुयाना, त्रिनिदाद टोबैगो का विकास भारतवंशियों के कारण हुआ। आजादी के बाद विदेशों में बसने वाले भारतीय पढ़े-लिखे थे, पढ़ने के लिए गए थे और अपने परिश्रम और मेधा के बल पर जिस प्रकार अपनी पहचान बनाई, वह अद्भुत है। मैंने महसूस किया ये भारतवंशी देश के लिए कितना बड़ा संसाधन हैं। सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से आज इनके साथ मजबूत व्यापारिक सम्बंध हैं। इन दो करोड़ लोगों की सम्पत्ति भारत के सकल घरेलू उत्पाद से ज्यादा है। और इनके मन में भारत है, जिसके लिए वे कुछ करना चाहते हैं। इनका हमारे साथ और हमारा इनके साथ जुड़ना भारत वर्ष के नवनिर्माण और इन भारतवंशियों की आने वाली पीढ़ियों के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ बन सकता है।इन्हीं भारतवंशियों और भारत के बीच सेतु बनाने के उद्देश्य से यह आयोजन किया जा रहा है। 1962 से जो सपना मेरी आंखों में तैर रहा था अब साकार होने जा रहा है। 1962 में ही मुझे भारतवंशी शब्द सूझा था। यह एक ऐसा शब्द है जिसमें देश के नाम के साथ वंश भी जुड़ा हुआ है। मेरे मानस में एक सेतु की कल्पना थी। यह भारतवंशियों और भारतवर्ष के लिए एक प्रकार से सांस्कृतिक रक्षाबन्धन का शुभारम्भ है।थ् और क्या-क्या योजनाएं हैं?दृ प्रवासी भारतीय भवन बनाने के अलावा एक वि·श्वस्तरीय वि·श्वविद्यालय बनाने की योजना है, जिसमें वि·श्वभर से लोग पढ़ने आएं और वि·श्व के श्रेष्ठ शिक्षक भी कुछ समय के लिए यहां पढ़ाने आएं। इसी प्रकार सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने के लिए एक केन्द्र बनाने की योजना है, लेकिन इन सब योजनाओं को साकार करेंगे वे सम्पन्न भारतवंशी जिनके ह्मदय में भारत बसा है। इसी प्रकार हमने योजना आयोग की तरह एक स्वतंत्र भारतवंशी आयोग बनाने की बात सोची है। यह आयोग लगातार भारतवंशियों से सम्पर्क बनाए रखेगा, जिससे पूंजी निवेश और सावर्जनिक हित के कार्यों के लिए उन्हें मार्गदर्शन मिले। संस्कृतियों का सेतु बने।16
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