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आपातकाल की काली रात
इस बार 25 जून की रात 11 बजे जैसे दूरदर्शन ने 28 साल पहले का पूरा इतिहास ही खंगाल डाला। दूरदर्शन ही नहीं, किसी भी अन्य समाचार वाहिनी ने आज तक आपातकाल की विभीषिका पर शायद ही इतनी विस्तृत खोजबीन की हो। पर इस बार दूरदर्शन ने आपातकाल को इतने विस्तृत और शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया कि नई पीढ़ी भी लोकतंत्र के उस काले अध्याय से परिचत हो गई होगी। 25 जून, 1975 की वह काली रात जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के एक आदेश पर भारतीय लोकतंत्र के सूर्य को तानाशाही की कालिमा ने ढक दिया.. और फिर प्रारंभ हुआ लोकतंत्र बहाली का संघर्ष, कारावास, यातनाएं, संगठनों के सत्याग्रह… और अंतत: लोकसंघर्ष से पुन: चमका लोकतंत्र का सूर्य, पहले से भी कहीं अधिक प्रखर और तेजस्विता लिए हुए। निर्माता एवं निर्देशक श्री अशोक श्रीवास्तव की परिकल्पना एवं शोध ने जैसे उस पूरे काले अध्याय का सार मात्र 1 घंटे के फिल्मांकन में प्रस्तुत कर दिया। उस समय जिन राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उस तानाशाही का विरोध किया, यातनाएं झेलीं, कारावास में रहे या फिर भूमिगत रहकर आंदोलन चलाते रहे, उनमें से कुछ प्रमुख-श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री जार्ज फर्नांडीस, श्री हो.वे. शेषाद्रि, श्री नानाजी देशमुख, श्री मदनदास, श्री चन्द्रशेखर, श्री कुलदीप नैयर, श्री शरद यादव, श्री लालू यादव, श्री मदनलाल खुराना, श्री राममाधव, श्री शांति भूषण के संस्मरणों ने उस ऐतिहासिक सचाई से लोगों को जोड़ा।
यह जानना-देखना भी रोमांचकारी था कि कैसे श्री आडवाणी बंगलौर में गिरफ्तार हुए, कैसे श्री जार्ज फर्नांडीस डायनामाइट विस्फोट के लिए चर्चित हुए, श्री मदनदास को कैसे शाहदरा जेल में यातनाएं दी गईं, कैसे श्री राम माधव अपने बाल्यकाल का लाभ उठाते हुए सरकार विरोधी पर्चे बांटते थे, अखबारों ने कैसे घुटने टेके और कैसे मदरलैण्ड अखबार ने सरकारी तानाशाही के विरुद्ध आवाज बुलंद की…
दूसरी तरफ आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में रा.स्व.संघ, अकाली दल, लोक संघर्ष समिति आदि संगठनों की भूमिका को भी प्रमुखता दी गई। आपातकाल का समर्थन करने वाले वामपंथी भी अपनी भूल पर क्षमा मांगते दिखे। आपातकाल का यह फिल्मांकन शोधपरक एवं तथ्यात्मक लगा। इससे उस काल की बाद की पीढ़ी के लोग देश के उस हालात से भी परिचित हो सकेंगे। द प्रतिनिधि
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