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द वचनेश त्रिपाठी
देश था सोया, दमन का त्रास था,
स्वदेशी की भावना का ह्यास था।
देश को स्व का हुआ था विस्मरण,
असत् का सत् पर पड़ा था आवरण।
तू चला तो चल पड़े कितने चरण,
जिन्दगी तेरी बनी नव जागरण।
ओ व्रती! तूने किया विष का वरण,
त्याग-तप-पर्याय तेरा आचरण।
नया अरुणोदय हुआ, हिन्दुत्व जागा।
देश का टूटा हुआ, वि·श्वास जागा।
अस्मिता का, आत्मा का तेज जागा।
वीरव्रत का, विजय का अभियान जागा।
पद्मिनी की राख का अपमान जागा।
विगत गौरव का पुन: अभिमान जागा।
जगी तरुणाई, जगे नव रक्त-कण।
दूर गांवों तक उतर आई किरण।
तू नहीं है, शेष तेरा पथ यहां,
ओ सारथी! अवशेष तेरा रथ यहां।
राह वह, जिस पर चला तू आमरण,
कोटि जीवन कर रहे हैं अनुसरण।
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