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अग्निधर्मा तपस्वियों की दृष्टि में
डाक्टर जी-गुरुजी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक यानी-अग्निधर्मा तपस्वी। केवल काषाय वस्त्र ही तो नहीं धारण करते, लेकिन श्रेष्ठ योग्यता एवं नैपुण्य से सिद्ध अपना सब कुछ अर्पित करते हैं, मातृभूमि के चरणों में। समाज जीवन की समरभूमि में चतुर्दिक चुनौतियों एवं कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने ज्ञान और शरीर का उपयोग समाज की सेवा के लिए ही करते हैं। नई पीढ़ी ऐसे ही कुछ युवा प्रचारकों तथा संघ के कुछ वरिष्ठ और तपे-तपाए कार्यकर्ताओं से हमने बात की और पूछा कि संघ गंगा की जिस धारा के माध्यम से वे नूतन भारत के सृजन के लिए जीवन होम कर रहे हैं, उसके भगीरथतुल्य द्वय डा. हेडगेवार और श्रीगुरुजी को कितना उन्होंने समझा है, उनकी वे कैसी छवि मन में धारण कर काम में जुटे हैं और उन ऋषियों के जीवन के किन पहलुओं से प्रेरणा ले रहे हैं। प्रस्तुत हैं उनके विचार-
भीतर की श्रद्धा अभिव्यक्त नहीं होती
-डा. नित्यानंद,निमंत्रित सदस्य, रा.स्व. संघ, उत्तराञ्चल
श्रीगुरुजी जब सितम्बर, 1968 में बद्रीनाथ की यात्रा पर जा रहे थे, तब मैं भी उनके साथ उनकी कार में ऋषिकेश तक आया था। उस समय यात्रा में यह चर्चा आयी कि ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जी का स्वर्गवास होने के बाद स्वामी शांतानन्द जी को उत्तराधिकार सौंपा गया है। करपात्री जी का इससे मतभेद था, इसलिए उन्होंने वहां अपना व्यक्ति भी बैठा दिया। इस पर विवाद चला और मामला न्यायालय में चला गया। गुरुजी ने इस प्रकरण पर कहा कि जिस समय मैं बिल्कुल नया था और छोटा भी था, मुझसे वरिष्ठ और अनुभवी कार्यकर्ता संघ में थे, लेकिन डाक्टर जी ने मुझे यह दायित्व सौंपा। मुझमें कोई बड़ी योग्यता नहीं थी, फिर भी वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के सहयोग और वि·श्वास के कारण उस दायित्व का निर्वाह करते-करते मैं इस योग्य हुआ कि मैं आज सफलतापूर्वक कार्य कर रहा हूं। यह उद्धरण उन्होंने इसलिए दिया क्योंकि वे ज्योतिर्मठ के प्रसंग से चिंतित थे। उनकी यात्रा के समय भारी भूस्खलन हुआ था, मार्ग बन्द हो जाने के कारण कई दिनों तक उन्हें बद्रीनाथ में ही रुकना पड़ा था। करपात्री जी ने वहां उन्हें सारी कथा बतायी। वास्तव में जैसे ही किसी कार्यकर्ता की नियुक्ति होती है तो पुराने लोगों को लगता है कि कोई नया व्यक्ति हमारे ऊपर थोप दिया गया है और उसकी आलोचना करने लगते हैं। किन्तु रा.स्व. संघ की सफलता का बहुत बड़ा श्रेय इस बात को जाता है कि जो पुराने व अनुभवी सहयोगी कार्यकर्ता हैं, वे सभी नए कार्यकर्ता को साथ लेकर चलते हैं, उसकी आलोचना नहीं करते। यही संघ की रीति-नीति है, इसके कारण ही संघ चल रहा है।
रा.स्व. संघ की वर्तमान अ.भा. कार्यकारिणी को देखें तो एकदम नया स्वरूप देखने को मिलता है। युवा लोगों को आगे लाया गया है। वरिष्ठ और अनुभवी कार्यकर्ताओं ने स्वेच्छा से अपना स्थान छोड़ दिया और इतना ही नहीं तो वे सब प्रकार का मार्गदर्शन देंगे। यही संघ की नीति है, इसका पूज्य डाक्टरजी ने अपने जीवन में स्वयं उदाहरण प्रस्तुत किया। उस समय बाबासाहेब आप्टे, दादाराव परमार्थ, भैया जी दाणी जैसे अनेक श्रेष्ठ कार्यकर्ता थे जिन्हें डाक्टर जी कार्य सौंप सकते थे। किन्तु डाक्टर जी ने देखा कि गुरुजी में कुछ विशेष बात है, इसलिए उन्हें दायित्व सौंपा। पर गुरुजी का विनम्रतापूर्वक कहना था कि मेरे अन्दर कोई योग्यता-प्रतिभा है, इस कारण मुझे दायित्व नहीं सौंपा गया है, बल्कि सभी के विश्वास और सहयोग के कारण मैं इतने बड़े संगठन को चला पा रहा हूं।
मैं दो बार दो मास तक संघ शिक्षा वर्ग, नागपुर में रहा जहां मुझे पूज्य गुरुजी का निरन्तर सान्निध्य मिला। मैंने देखा कि वे बहुत छोटी-छोटी बातों पर भी ध्यान देते थे। उनके सान्निध्य में आकर मैंने बहुत कुछ सीखा और उसका मेरे मन पर गहरा प्रभाव है। बहुत-सी बाते हैं जो मन मस्तिष्क में बसी हुई हैं। कैसे कहूं, जो भीतर की श्रद्धा होती है, वह अभिव्यक्त नहीं होती है। उनके जीवन ने मुझे बहुत गहरे तक आकर्षित किया था। बैठकों में जिस प्रकार से वे बहुत बारीकी से पूछताछ करते थे, बाद में मैंने उसी सूत्र को पकड़ा। मेरे प्रवास में जो बैठकें आयोजित होती थीं, उनमें मैं उसी प्रकार से प्रश्न करता था। हालांकि मैं उनके समान कहीं नहीं था, पर उनका ऐसा प्रभाव पड़ा कि लोग मुझे बहुत कठोर और अनुशासनप्रिय
मानने लगे।
विलक्षण, प्रेरक व्यक्तित्व
-कृष्ण बल्लभ प्रसाद नारायण सिंह उपाख्य बबुआ जी
क्षेत्र संघचालक, उत्तर-पूर्व क्षेत्र
प.पू. डाक्टर जी और श्री गुरुजी एक सिक्के के दो पहलू थे। डा. जी से मैं 1939 में मिला था। कई यात्राओं में, संघ शिक्षा वर्ग में, कई बैठकों में और उनकी रुग्णावस्था में भी उनके साथ रहा। इसी प्रकार श्री गुरुजी को भी मैंने प्रत्यक्ष देखा है। उनके साथ कार्य किया है। उस समय रेलगाड़ी में आरक्षण नहीं होता था। तृतीय श्रेणी होती थी। तृतीय श्रेणी के डिब्बे में ऊपर सामान रखने वाली सीट पर उन्होंने हजारों किलोमीटर की यात्राएं की हैं। जबलपुर से कोलकाता जैसी लंबी यात्राएं। श्री गुरुजी अपने शरीर की चिंता न करते हुए अखंड प्रवास करते रहते थे। डाक्टर जी का जीवन तो अत्यंत अभावों का जीवन था। नागपुर जैसे बड़े शहर में रहने के बाद भी उनके घर में बिजली तक नहीं थी। मैं एक बार उनके घर पर ठहरा था तो उन्होंने कहीं से पेट्रोमैक्स की व्यवस्था की थी। इतने अभावों के बाद भी दूसरों की इतनी चिंता करना अत्यंत प्रेरणादायी है। उन्होंने केवल एक सिद्धान्त बताया कि भारत हिन्दू राष्ट्र है। अपने व्यवहार और आचरण से ही वे सबको प्रेरणा देते रहे। इसी प्रकार श्री गुरुजी का जीवन भी काफी प्रेरणादायी था। श्री गुरुजी अत्यंत सादा वस्त्रों में रहते थे। सज्जनता और सरलता उनके विशेष गुण थे। एक बार नागपुर के संघ शिक्षा वर्ग में डा. जी संघ स्थान पर आए। उन्हें सरसंघचालक प्रणाम दिया जाना था। श्री गुरुजी ने जो वहां सर्वाधिकारी थे, देखा कि चूंकि वे काफी दूरी पर खड़े हैं, अत: डाक्टर जी को काफी देर तक दक्ष में खड़ा रहना पड़ेगा। इसलिए गुरुजी एक व्यक्ति की साइकिल लेकर तेजी से चलाते हुए वहां पहुंचे। श्रीगुरुजी की स्मरण-शक्ति भी विलक्षण थी। अक्सर बैठकों में वे सभी के नाम लेकर ही बुलाते थे। एक बैठक में दो स्वयंसेवक विलंब से आए थे। गुरुजी ने बैठक लेते हुए ही दोनों का नाम लेकर कहा कि बिहार के दो कार्यकर्ता अभी-अभी आए हैं। मुझे लगा कि उन्होंने गलत समझ लिया है। मैंने धीरे-से उनके पैर को दबाया कि वे गलत परिचय कह गए हैं। किन्तु बाद में मुझे पता चला कि श्रीगुरुजी ने ठीक परिचय दिया था। मैं ही गलत था। इस प्रकार श्रीगुरुजी और डाक्टर जी, दोनों विलक्षण व्यक्तित्व थे। द
उनके मन की व्यग्रता से मिलती है प्रेरणा
-डा. अशोक वाष्र्णेय, प्रांत प्रचारक, झारखंड
श्री गुरुजी को मैंने पहली बार जब देखा था, उस मैं आठवीं कक्षा का छात्र था। एक छोटे स्थान से बड़े स्थान पर गया था। अत: सारी चीजें नवीन प्रतीत होती थीं। वहां सभी कार्यकर्ताओं की सक्रियता देखकर लगता था कि मुझे भी इसमें होना चाहिए। श्रीगुरुजी का वह कार्यक्रम मेरे लिए एक प्रेरणादायी कार्यक्रम सिद्ध हुआ। हालांकि मैं उनकी एक ही झलक देख पाया था। परंतु वह एक झलक ही काफी प्रेरणा देने वाली थी। बाद में जो उनके संस्मरण पढ़े व सुने। वे एक प्रकाश-स्तंभ का कार्य करते हैं। समय पर पहुंचने की उनकी व्यग्रता का एक संस्मरण है। वे रेलगाड़ी से कानपुर से झांसी जा रहे थे। गाड़ी विलंब कर रही थी। इससे वे अत्यंत व्याकुल थे। उनके मन की व्यग्रता के कारण दूसरों पर भी प्रभाव पड़ता था। कार्य के प्रति अपने मन के अंदर भी ऐसी ही व्यग्रता का भाव आ सके तो कार्य करना सरल होता है। इसी रूप में मैं उनसे प्रेरणा प्राप्त करता हूं। द
अपने समाज का, देश का गत दस-बारह शताब्दियों का दु:ख से, अपमान से, पराभव से भरा हुआ जीवन अपने मन को व्यथित करता है। इस दयनीय दशा का कारण अपनी राष्ट्र की एकता का विस्मरण और उससे उत्पन्न फूट तथा असंगठितता है। आधुनिक काल में भी अहिन्दू समाजों ने आक्रमण कर देश विच्छेद कर बड़ा अपमान किया और आगे भी करने की सिद्धता में लगे हुए हैं। हिन्दू समाज असंगठित, आत्मविस्मृत- परिणामस्वरूप दुर्बल है, यही सोचकर वे आक्रमण करने का साहस करते हैं।
(श्रीगुरुजी द्वारा दि. 29.8.61 श्री. मारोतीराव घनाते, शहाबाद, जि. गुलबर्गा, कर्नाटक को लिखा गया पत्र। अक्षर प्रतिमा, खण्ड 1, पृ.90) कठिनाइयां सभी को हैं। गृहस्थी सभी के पीछे लगी है। यदि सभी अपनी अपनी कठिनाइयों का रोना रोने लगेंगे तो हम दूसरों के भक्ष्य बनने से बच न सकेंगे। संघ कार्य को सब बातों से अधिक महत्व का समझ कर यदि हम अपने आपको प्राणपण से इस कार्य में लगा दें, तो कल कम से कम हमारी सन्तान हिन्दू के रूप में जीवित रह सकेगी।
-डा. हेडगेवार (पाथेय, पृष्ठ 9)
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