|
माटी का मन अब पछता रहे हैं देसी बीज छोड़करद डा. रवीन्द्र अग्रवालपिछले दिनों पंजाब के भटिंडा जिले के गांव हरकिशनपुरा के किसानों की बदहाली की खबरें समाने आईं। कर्ज में डूबे गांव की पंचायत ने गांव बेचने का प्रस्ताव मुख्यमंत्री को दिया। कर्ज से डूबा यह अकेला गांव नहीं है। क्षेत्र के 8-9 गांव और हैं जिनकी हालत हरकिशनपुरा जैसी ही है। सभी किसानों पर औसतन 4 से 5 लाख रुपए तक का कर्ज है। हालत यह है कि जिसके पास जितनी ज्यादा जमीन है वह उतना ही ज्यादा कर्ज में डूबा है। कई किसानों की जमीनें कुर्क भी हुईं। कर्ज का तनाव, आर्थिक तंगी व कुर्की के अपमान के भय से कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें से कुछ किसानों ने तो अपनी जमीन का एक हिस्सा बेच भी दिया परन्तु फिर भी कर्ज से मुक्ति नहीं मिली। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र का किसान हमेशा से ही कर्ज में डूबा हुआ है। 1985-86 से पूर्व वह कर्ज मुक्त था। फिर ऐसा क्या हुआ कि एक नहीं, दो नहीं, पूरे गांव के गांव कर्ज में डूबते चले गए? गलती एक-दो किसानों से हो सकती है, क्षेत्र के हजारों किसानों से तो एक साथ नहीं। 1985-86 के दौरान पंजाब कृषि वि·श्वविद्यालय ने संकर (हाइब्रिड) कपास का बीज किसानों को दिया और इसके बाद निजी बीज कम्पनियां संकर बीज लेकर आईं। यहीं से शुरू हुई किसानों की समस्याएं। संकर कपास से पूर्व किसान देसी नरमा बोता था। बीज उसका घर का होता था, उस पर तो पैसा खर्च होता ही नहीं था; देसी नरमा पर किसी कीट का भी प्रकोप नहीं होता था, अत: कीटनाशकों पर पैसा खर्च होने का प्रश्न ही नहीं। परन्तु महंगा संकर बीज किसान को हर बार बाजार से खरीदना होता था। यही नहीं इस पर अमरीकन सुंडी नामक कीट का भी प्रकोप होता था, जिसको नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग आवश्यक था। प्रारम्भ में 500-600 रुपए के कीटनाशक प्रति एकड़ छिड़कने से काम चल जाता था परन्तु अब यह खर्च बढ़कर 10 हजार रुपए प्रति एकड़ हो गया। इसका कारण यह है कि एक तो कीटनाशक दिन-प्रतिदिन महंगे होते जा रहे हैं, दूसरे सुंडी कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी होती जा रही है, जिससे कीटनाशकों की मात्रा बढ़ानी पड़ती है। 1988 में पहली बार संकर कपास पर अमरीकन सुंडी का आक्रमण हुआ। अर्थात् संकर कपास की बीजाई शुरू होने के एक-दो वर्ष बाद ही। शुरू में तो सुंडी को नियंत्रित कर लिया गया, परन्तु 1992 का वर्ष किसानों के लिए सबसे घातक सिद्ध हुआ। इस वर्ष अमरीकन सुंडी के कारण पूरे इलाके में कपास की फसल बरबाद हो गयी। बस यही से शुरू हुई किसान के कर्ज में डूबने की कहानी।संकर कपास से पूर्व किसान देसी नरमा तो बोता ही था साथ ही वह ग्वार, चना व मूंग जैसी फसलें भी बोता था। जिनके लिए न तो ज्यादा पानी की जरूरत होती थी और न ही ज्यादा खाद व कीटनाशकों की। अब किसान इन फसलों को छोड़कर कपास-गेहूं के फसल चक्र में फंस गया है। नहरी पानी की उपलब्धता ने भी इस फसल चक्र को अपनाने को प्रेरित किया। परन्तु 1996 से नहरी पानी की कमी ने उसे गहरे संकट में धकेल दिया। उस पर अब कर्ज का शिकंजा रोज कसता जा रहा है। कीटनाशकों के कारण उसका स्वास्थ्य भी गड़बड़ा गया।अब किसान का कहना है कि देसी बीज को छोड़कर उसने गलती की। उसे तो अपनी गलती समझ आ गई परन्तु बिना जांचे-परखे संकर बीज उसे क्यों दिया गया? क्यों नहीं संकर कपास पर कीटों के दुष्प्रभाव का पूरा अध्ययन किया गया? बिना जांचे-परखे संकर कपास से किसान को जो क्षति हुई, उसकी भरपाई अब कौन करेगा?10
टिप्पणियाँ