परम पावन दलाई लामा ने 6 जुलाई को अपना 90 वां जन्मदिन मनाया। मुख्य जन्मदिन समारोह केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के मुख्यालय, हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में आयोजित किया गया था। तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता वर्ष 1959 से भारत में निर्वासन में रह रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित दलाई लामा को बड़ी संख्या में विश्व के प्रमुख नेताओं ने बधाई दी।
चीन को स्पष्ट संदेश
चर्चा के लिए स्पष्ट विषय 14 वें दलाई लामा की उत्तराधिकार योजना रही है। दलाई लामा ने बताया किया कि उनके उत्तराधिकारी का चयन प्रक्रिया के अनुसार किया जाएगा और किसी को भी इस मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। वह स्पष्ट रूप से चीनी दावे का जिक्र कर रहे थे कि अगले दलाई लामा का चयन उनके द्वारा ही किया जाएगा।
तिब्बत पर जबरन कब्जा
तिब्बत को अक्सर “दुनिया की छत” कहा जाता है और यह 14,000 फीट की औसत ऊंचाई वाला पठार और पर्वतीय क्षेत्र है। चीन के दक्षिण पश्चिम में स्थित, 2,500, 000 वर्ग किमी का यह विशाल क्षेत्र नेपाल, भारत और भूटान से दक्षिण में सीमा साझा करता है। 1950 से पहले, यह एक दूरस्थ क्षेत्र था और यहाँ एक स्वायत्त प्रसाशन था।
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चीन ने 1 अक्टूबर 1949 को स्वतंत्रता प्राप्त की और इस क्षेत्र के साथ प्राचीन संबंध का हवाला देते हुए तुरंत तिब्बत पर अपना दावा पेश कर दिया। चीन ने 1951 में बलपूर्वक तिब्बत पर कब्जा कर लिया और तब से यह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) के प्रशासन के अधीन है। 1959 में तिब्बती विद्रोह के बाद, तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता को भारत भागना पड़ा और दलाई लामा ने 29 अप्रैल 1959 को मसूरी में निर्वासन में तिब्बती सरकार की स्थापना की और उसके बाद यह 1960 में धर्मशाला में स्थानांतरित हो गई। यद्यपि भारत ने तिब्बत को 1954 में ही चीन का हिस्सा मान लिया था, लेकिन भारत में निर्वासित सरकार के अस्तित्व को वह रास नहीं आया है।
‘वन चाइना पॉलिसी’ बनाम वैश्विक रुख
चीन के ‘एक चीन सिद्धांत (One China Policy)’ का मानना है कि चीन और सत्तारूढ़ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की तिब्बत, हांगकांग और ताइवान पर एकमात्र वैधता है। दूसरी ओर, अमेरिका की ‘वन चाइना पॉलिसी’ तिब्बत और हांगकांग को पीआरसी के तहत स्वीकार करती है और अमेरिका का आधिकारिक तौर पर ताइवान के साथ कोई राजनयिक संबंध नहीं है। लेकिन अमेरिका ने निरंकुश चीन से तिब्बतियों के लिए वास्तविक स्वायत्तता के आह्वान का समर्थन किया है।
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इस घोषित नीति के अनुसरण में, अमेरिकी कांग्रेस ने तिब्बत के लिए अमेरिकी समर्थन बढ़ाने और चीन और दलाई लामा के बीच संवाद को बढ़ावा देने के लिए पिछले साल 24 जून को ‘संकल्प तिब्बत अधिनियम (Resolve Tibet Act)’ पारित किया। जैसा कि अपेक्षित था, चीन ने बहुत कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की और उसने अमेरिका से बिल को टालने के लिए कहा है।
दमनकारी कार्यवाही कर सकता चीन
दलाई लामा की बढ़ती उम्र और कभी-कभी उनके गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए, प्रमुख मुद्दा तिब्बती विरासत के लिए उनका 15 वां उत्तराधिकारी होगा। चीन निश्चित रूप से चाहेगा कि उनका उत्तराधिकारी उनकी कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़ा हो। अमेरिका ने कहा है कि वह बीजिंग द्वारा नियुक्त दलाई लामा को स्वीकार नहीं करेगा और अतीत की परंपराओं के आधार पर उत्तराधिकार का समर्थन करता है। भारत को यहां सावधानी से चलना होगा। एक बात पक्की है। चीन दलाई लामा के उत्तराधिकार की योजना पर बहुत कड़ी प्रतिक्रिया देने जा रहा है। आने वाले समय में हम तिब्बत में चीन की अधिक दमनकारी कार्यवाही देख सकते हैं।
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विदेश नीति के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण निर्णय भारत से निर्वासन में तिब्बती सरकार के कामकाज को जारी रखने पर भारत का रुख होगा। जबकि हम भारत में रहने वाले लगभग एक लाख तिब्बतियों के उचित अधिकारों का समर्थन करना जारी रख सकते हैं, लेकिन अब अमेरिका को तिब्बतियों को अधिक सक्रिय समर्थन की पेशकश करनी चाहिए।
भारत के लिए चुनौती
भारत पहले ही 65 से अधिक वर्षों से उनके उद्देश्य का समर्थन करता रहा है। बाइडेन प्रशासन के तहत, अमेरिका तिब्बती मुद्दे के प्रति अधिक प्रतिबद्ध था, जैसा कि उनके बहुप्रचारित रीशेप तिब्बत बिल/एक्ट से स्पष्ट है। राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा उस प्रकार का समर्थन मिलना कठिन है। 15वें दलाई लामा को कैसे प्रतिष्ठापित किया जाता है, इसके आधार पर भारत की विदेश नीति में विकल्प तैयार होने चाहिए। एक स्पष्ट विकल्प चीन के साथ सीमा विवाद और अरुणाचल प्रदेश पर उनके दावे को सुलझाना है।
अरुणाचल पर चीन की मंशा
चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत के रूप में संदर्भित करता है और इसे ‘ज़ंगान’ कहता है। भारत के इस राज्य पर अपना दावा जताने के लिए चीन अक्सर अरुणाचल प्रदेश के स्थानों का नाम बदलने की कवायद में जुटा रहता है। अरुणाचल प्रदेश में नाम बदलने की ऐसी कवायद चीन ने साल 2017, 2021, 2022 और 2024 में की है। आखिरी बार नाम बदलने की कवायद मई 2025 में हुई थी। भारत के उत्तर पूर्व में स्थित, अरुणाचल प्रदेश अष्टलक्ष्मी के क्षेत्रफल के मामले में उत्तर पूर्व क्षेत्र का सबसे बड़ा राज्य है।
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चीन के संदर्भ में इस राज्य का बहुत अधिक रणनीतिक महत्व है। इससे पहले यह नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) का हिस्सा था और फरवरी 1987 में अरुणाचल प्रदेश भारत का एक पूर्ण राज्य बन गया। यह पश्चिम में भूटान, पूर्व में म्यांमार और दक्षिण में असम और नागालैंड राज्यों से सीमा साझा करता है। भारत और चीन के बीच अंतरिम सीमा का सीमांकन करने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा (Line of Actual Control, LAC) का चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश पर दावा छोड़ने के बाद अनुकूल समाधान किया जा सकता है।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की असहजता
सत्तारूढ़ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (Chinese Communist Party, सीसीपी) को बहुत निराशा है कि अब भी तिब्बत अपने आध्यात्मिक नेता 14 वें दलाई लामा में विश्वास करना जारी रखता है। वर्ष 2013 से राष्ट्रपति शी जिनपिंग के तहत चीनी प्रशासन तिब्बती लोगों के बीच दलाई लामा के सभी संदर्भों को मिटाने के लिए अतिरिक्त आक्रामक रहा है। लाखों युवा तिब्बती बच्चों को शिक्षा के कम्युनिस्ट मॉडल का अध्ययन करने के लिए मजबूर किया गया है, इस उम्मीद में कि तिब्बतियों की नई पीढ़ी दलाई लामा को भूल जाएगी। चीन का मानना है कि उनके स्वयं के नियुक्त 15वें दलाई लामा तिब्बती समाज का पूर्ण एकीकरण सुनिश्चित करेंगे जो सीसीपी के प्रति वफादार रहेगा।
भारत का संतुलित रुख
भारत ने यह अच्छा किया की उसने दलाई लामा की उत्तराधिकार योजना से खुद को अलग कर लिया । विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि भारत विश्वास और धर्म की मान्यताओं और प्रथाओं से संबंधित मामलों पर कोई रुख नहीं लेता है या वक्तव्य देता है। उत्तराधिकार विवाद से भारत के दूर होने के बावजूद, चीन द्वारा तिब्बत में भारत की भूमिका पर अपना रुख बदलने की संभावना कम है। चीन तिब्बत की निर्वासित सरकार को अपने आंतरिक मामलों में भारत की दखलंदाजी के रूप में देखता है। चीन अरुणाचल प्रदेश में स्थानों के नाम बदलने की अजीबोगरीब कवायद जारी रख सकता है। इसलिए, भारत को मजबूरन चीन के साथ अपनी मजबूत स्थिति से बातचीत करनी होगी।
दो दलाई लामा की आशंका
पूरी संभावना है कि दुनिया में दो दलाई लामा होने जा रहे हैं, जिनमें से एक को मौजूदा पदाधिकारी और पद्धति द्वारा नियुक्त किया जाएगा और दूसरे को चीन द्वारा नामित किया जाएगा। यह संभावना नहीं है कि चीन द्वारा नियुक्त दलाई लामा को तिब्बती लोगों द्वारा सहर्ष स्वीकार किया जाएगा। उस समय भारत न चाहते हुए भी एक अनावश्यक उत्तराधिकार विवाद में फंस सकता है। ऐसे समय, अमेरिका का रुख महत्वपूर्ण हो जाता है। यदि अमेरिका का ट्रम्प प्रसाशन विशुद्ध रूप से वाणिज्यिक हितों के लिए चीन का पक्ष लेता है तो भारत को अगला कदम अपने राष्ट्रीय हित में लेना पड़ सकता है।
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